Monday, October 11, 2010

असली एंग्री यंग मैन तो तुम थे जेपी....!

गनीमत है कि अमिताभ का जन्म 2 अक्टूबर को नहीं हुआ। नहीं तो लोग बापू को भी भूल जाते। क्या फर्क पड़ता है कि आज 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन है। बिग बी का भी जन्मदिन आज ही है। जेपी के बारे में टीवी और अखबारों में शायद ही कहीं छपा हो। एक पत्रकार ने कहा कि जेपी को चलाने से टीआरपी नहीं मिलती। बात सही है। टीआरपी तो बिग बी उगल रहे हैं। शायद लालू-नीतीश भी जेपी को भूल गए हों। चुनाव प्रचार में बिजी होंगे। क्या पता कहीं माला-वाला चढ़ा दिया हो।
हां, बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकारी ने जरुर जेपी को याद किया। लेकिन गलत संदर्भ में। उन्होंने कहा कि आज जेपी (और नानाजी देशमुख भी) के जन्मदिन को बीजेपी कर्नाटक में अपनी सरकार बचा कर सेलीब्रेट कर रही है। सही बात है। लेकिन बीजेपी ने जिस तरह से स्पीकर की सत्ता का अपने पक्ष में इस्तमाल करके सरकार बचाई है जेपी तो उसी के खिलाफ थे। जेपी ने 1974 में इंदिरा-बनाम राजनारायण मुकदमे में हार के बाद लोकसभा स्पीकर को मनमर्जी फैसला लेनेवाला बताया था। इसे उस वक्त स्पीकर की गुंडागर्दी बताया गया। लेकिन बीजेपी, अपनी जीत को जेपी के जन्मदिन को सुपुर्द किए जा रही है!

खैर, बात जेपी की हो रही थी। कई लोग कहते हैं कि जेपी सारे चेले लंपट और उचक्के निकले। उनका इशारा लालू-मुलायम की तरफ होता है। यूं, मुलायम जेपीआईट नहीं है, वे अपने को लोहियाईट कहते हैं। इस तरह के आरोप पूर्वाग्रह से भरे होते हैं, उसमें गंभीरता कम होती है। जेपी आन्दोलन से जो सबसे अहम परिवर्तन आया वो ये कि हमारे लोकतंत्र का समाजीकरण हो गया। अब संसद और विधानसभाएं सिर्फ साफ बोलने और पहनने वालों की जागीर नहीं रही। ऐसे में कुछ ऐसे भी लोग सामने जरुर आए जिन्हें सार्वजनिक जीवन में देखकर संभ्रान्तों को तकलीफ होती थी। ऐसे लोगों को जेपी के लंपट और उचक्के चेलों की संज्ञा दे दी गई!

जेपी और अमिताभ दो और वजहों से महत्वपूर्ण हैं। देश की आजादी के बाद जब सपने टूटने लगे थे और उम्मीदें दरकने लगी थीं तो दोनों ने ही अलग-अलग तरीकों से इसे अभिव्यक्त किया था। जेपी का इंदिरा विरोधी आन्दोंलन और अमिताभ का एंग्री यंग मैन एक ही चीज की वकालत कर रहा था। साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति बहुत पहले हो चुकी थी। रेणु, देश की आचंल को मैला साबित कर चुके थे, और श्रीलाल शुक्ल नेताओँ को रागदरबारी। माध्यम अलग-2 था। जेपी को भी इस बात का एहसास था कि उनके आन्दोंलन में कई विचारधाराओँ के लोग हैं जिनकी निष्ठाएं अलग-अलग हैं। लेकिन बावजूद इसके, गैर-कांग्रेसवाद का पहला प्रयोग वे कामयाब बनाना चाहते थे।

कई लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि ये जेपी ही थे जिन्होंने तत्कालीन जनसंघ को एक तरह से सियासी अछूतपना से निजात दिलाया था। लेकिन ये इल्जाम जेपी पर ही क्यों...! क्या लोहिया ने सन् '67 में पहली संविद सरकार में ऐसा ही नहीं किया था? जाहिर है, लोहिया का वो अधूरा प्रयोग साल 1977 में जाकर पूरा हुआ था। कांग्रेस इसलिए सत्ता में फिर से आ गई या आती रही कि कोई मजबूत विकल्प नही था। लोहिया इसका प्रयास करते रहे थे। जेपी ने उसे एक कदम आगे बढ़ाया।
जेपी इसका प्रयास करते रहे कि जनसंघ अपने कट्टर खोल से बाहर निकले और इसलिए जनता पार्टी भी बनाई गई। बाद में दोहरी सदस्यता पर जनसंघियों की जिद और दूसरे नेताओं की महात्वाकांक्षा की वजह से पार्टी टूट गई, ये अलग बात है। लेकिन जेपी ने अपने भर तो प्रयास किया ही था।
सन् 77 में बड़ा मुद्दा ये था कि मुल्क को इंदिरा गांधी की तानाशाही से मुक्ति दिलाई जाए। इस चक्कर में बेहतर विकल्प और कार्यक्रमों पर ध्यान नहीं दिया गया और जनता पार्टी आपसी अंतर्कलह का शिकार हो गई। लेकिन इसने देश को ये बता दिया कि मुल्क एक परिवार और एक पार्टी के बगैर भी चल सकता है। यहीं वो प्रयोग था जिसने बाद के दिनों में कांग्रेस को अपेक्षाकृत ज्यादा लोकतांत्रिक बनने या दिखने पर मजबूर किया। इसमें कोई शक नहीं कि सन् 1975-77 का आन्दोलन देश के इतिहास में एक दूसरे आजादी के आन्दोलन की तरह ही याद रखा जाएगा जिसने भारतीय लोकतंत्र का इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र सबकुछ बदल दिया।
जेपी को आंकने का पैमाना निश्चय ही लालू या मुलायम नहीं हो सकते। वैसे भी, लालू-मुलायम जिस देशज और व्यापक राजनीति की नुमाईंदगी करते हैं वो कांग्रेस के कलफ लगे हुए कुर्तों में नहीं थी। परवर्ती नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को जेपी पर नहीं थोपा जा सकता।
एक व्यक्ति के तौर पर जेपी शायद गांधी के बाद पहले भारतीय थे जिन्होंने दो-दो बार सत्ता को ठुकरा दिया था। नेहरुजी की मौत के बाद भी जेपी को कथित तौर पर ये मौका मिला था और आपातकाल के बाद तो खैर जनता पार्टी ही उनकी ब्रेनचाईल्ड ही थी। जब इंदिरा गांधी तानाशाह बन रही थी तो जेपी चंबल में डकैतों से आत्मसमर्पण करवा रहे थे। उनकी ये नैतिक सत्ता थी, डकैतों को सरकार पर यकीन नहीं था।
आज मुल्क जेपी की याद में जश्न मनाना जरुरी नहीं समझ रहा। शायद, सत्ता भी यहीं चाह रही है। लेकिन इस लोकतंत्र पर जब-जब खतरा आएगा और जब भी तानाशाही थोपने की कोशिशें होंगी, जेपी का नाम हमारे जेहन में बिजली सा जरुर कौंधेगा।