Thursday, April 25, 2013

वैशाली यात्रा-7


अभिषेक पुष्करिणी की दाईं तरफ वैशाली म्यूजियम, सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो और बुद्ध के अस्थि स्तूप हैं लेकिन उस दिन म्यूजियम बंद था और लोगों ने कहा कि वहां देखने को बहुत कुछ है भी नहीं। सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो दूर से ही चमक रहा था और ऐसा लग रहा था कि अधिकारियों ने अपने रहने-खाने का शानदार इंतजाम किया था।  


हम वहां से बुद्ध के अस्थि स्तूप देखने गए जिसे अपेक्षाकृत ठीकठाक तरीके से संरक्षित किया गया है। दसेक एकड़ जमीन को दीवारों से घेर दिया गया था और पुरातत्व विभाग ने नाम पट्टिका लगा रखी थी। अंदर मैदान में रंग-बिरंगे फूल खिले था जहां पचास के करीब देशी-विदेशी पर्यटक थे। मजे की बात ये उस जगह के बारे में तो कि नाम पट्टिका थोड़ा भीतर लगाई गई थी, लेकिन आदेशात्मक लहजे में क्या करें और क्या नहीं करें कई जगह लिखा हुआ था। ऐसा वैशाली में कई जगह मिला। पता नहीं पुरातत्व विभाग इतना गुरुत्व का भाव क्यों पाले हुआ था।
वैशाली में बुद्ध का अस्थि स्तूप


बुद्ध की अस्थि जहां रखी हुई थी उस जगह को लोहे से घेर कर स्तूपनुमा बना दिया गया था। ऊपर एस्बेस्टस या टीन की छत थी। बीच में पत्थर की आकृति थी और हमें बताया गया कि बुद्ध के अस्थि अवशेष के कुछ अंश यहां जमीन के अंदर रखे गए थे। बौद्ध श्रद्धालू उस जगह की परिक्रमा कर रहे थे। वहां हमें एक बौद्ध भिक्षु भंते बुद्धवरण मिले जो तफ्सील से लोगों को उस जगह के बारे में बता रहे थे।

भंते बुद्धवरण ने हमें बताया, अपनी मृत्यु(महापरिनिर्वाण) से पहले बुद्ध वैशाली आए थे और उसके बाद वे कुशीनारा चले गए जहां उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनके अस्थि अवशेष को आठ भागों में बांटा गया जिसका एक हिस्सा वैशाली गणतंत्र को मिला था। वहीं वो अस्थि अवशेष है जिसे यहां रखा गया है और बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए यह जगह अत्यंत ही पवित्र है।


भंते बुद्धवरण से हमने पूछा कि वो कब से बौद्ध भिक्षु हैं? उनका कहना था कि उनका जन्म नेपाल के लुंबिनी में(महात्मा बुद्ध का जन्मस्थल) हुआ था और उनके माता-पिता भी बौद्ध थे। उसके बाद वहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हासिल की और बाद में नालंदा चले आए। वहां उन्होंने पालि और बौद्ध साहित्य में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की और एक बौद्ध भिक्षु का जीवन जी रहे हैं और जगह-जगह घूमते रहते हैं। मैंने उनसे पूछा कि उनका खर्च कैसे चलता है? वे मुस्कराने लगे। उनके चेहरे पर एक अपूर्व शांति थी। उन्होंने कहा, बौद्ध भिक्षुओं का जीवन सदा से भिक्षा पर आधारित रहा है। आप जैसे लोग कुछ न कुछ दे देते हैं जो जीवन जीने के लिए काफी होता है।

बुद्ध के अस्थि स्तूप परिसर में काफी लोग हिमाचल प्रदेश के भी मिले जो अपने आराध्य के स्थल को देखने आए थे। बाहर बौद्ध साहित्य, माला, काष्ठ प्रतिमाएं और कैलेंडर बिक रहे थे। हम स्तूप से बाहर आए तो अभिषेक पुष्करिणी के किनारे सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे बैठकर पूरी जलेबी और सब्जी का भोज खा रहे थे। पता चला एक सरकारी स्कूल का ट्रिप है जिसे वैशाली घुमाने लाया गया है। हमें ये तो पता था कि बिहार सरकार आजकल इस तरह का ट्रिप करवा रही है, लेकिन बच्चों को पूरी जलेबी खिलाया जाता होगा, इसकी कल्पना नहीं थी !


हमने स्कूल के एक शिक्षक से पूछा तो उन्होंने कहा कि सरकारी फंड तो पांच हजार का ही था, लेकिन शिक्षकों ने अपने वेतन से पैसा जमाकर बच्चों को ये ट्रिप करवाया जिसका कुल खर्च करीब बीस हजार का आया था। सुनकर अच्छा लगा कि कुछ शिक्षकों में जरूर इतिहासबोध बाकी है। बदलते बिहार का यह एक नमूना था।

Friday, April 19, 2013

वैशाली यात्रा-6


वैशाली की यात्रा और उसका वृतांत आम्रपाली के बिना वाकई अधूरी है। आम्रपाली वैशाली की प्रसिद्ध नगरबधू थी जिसका जिसके बारे में कई दंतकथाएं प्रचलित हैं। मेरे मन में था कि चूंकि आम्रपाली की कहानी सब जानते ही होंगे इसलिए इस पर अलग से एक पोस्ट लिखना जरूरी नहीं है। लेकिन मेरे कुछ मित्रों का आग्रह था कि आम्रपाली पर एक पोस्ट होना ही चाहिए।
बुद्ध से दीक्षा लेती आम्रपाली


ऐतिहासिक उपन्यसों को लिखने के लिए प्रसिद्ध आचार्य चतुरसेन ने आम्रपाली पर एक उपन्यास लिखा जिसका नाम है-वैशाली की नगरबधू। चतुरसेन ने तत्कालीन वैशाली में आम्रपाली की महत्ता का वर्णन करते हुए लिखा है-  

वैशाली की मंगल पुष्करिणी का अभिषेक वैशाली जनपद में सबसे बड़ा सम्मान था। इस पुष्करिणी में जीवन में एक बार स्नान करने का अधिकार सिर्फ उसी लिच्छवि को मिलता था जो गणसंस्था का सदस्य निर्वाचित किया जाता था। उस समय बड़ा उत्सव समारोह होता था और उस दिन गण-नक्षत्र मनाया जाता था। यह पुष्करिणी उस समय बनाई गई थी जब वैशाली प्रथम बार बसाई गई थी। इसमें लिच्छवियों के उन पूर्वजों के शरीर की पूत गंध होने की कल्पना की गई थी जिन्हें आर्यों ने व्रात्य कहकर वहिष्कृत कर दिया था और जिन्होंने अपने भुजबल से अष्टकुल की स्थापना की थी। उस समय तक लिच्छवियों के अष्टकुल के सिर्फ 999 सदस्य ऐसे थे जिन्होंने पुष्करिणी में स्नान किया था। लेकिन अम्बपाली लिच्छवि थी और वैशाली की जनपद कल्याणी का पद उसे मिला था। उसे विशेषाधिकार के तौर पर वैशाली के जनपद ने यह सम्मान दिया था।


आम्रपाली या अम्बपाली का जिक्र आते ही भारतीय इतिहास की: विद्रोहिणी नारियों में से एक की तस्वीर उभरती है। आम्रपाली एक सेवानिवृत सेनानायक की बेटी थी और आम के बाग में जन्म लेने की वजह से उसका नाम आम्रपाली पड़ा। जन्म के समय ही उसे अपनी माता का वियोग सहना पड़ा और उसे उसके पिता ने लाड़-प्यार से पाला था। यौवन की दहलीज पर पहुंचते ही आम्रपाली के सौंदर्य की चर्चा पूरे वैशाली में फैल गई और सामंतपुत्रों, वणिकों और अभिजात्यों में उसे पाने की होड़ लग गई। वैशाली में तत्कालीन प्रथा के मुताबिक आम्रपाली को बलात नगरबधू घोषित कर दिया गया जिसका आम्रपाली ने कटु विरोध किया।

आम्रपाली अपने इस अपमान को कभी भूल नहीं पाई। उस समय मगध और वैशाली में प्रतिद्वंदिता चल रही थी। मगध सम्राट बिम्बिसार को जब आम्रपाली की सुंदरता के बारे में पता चला तो उन्होंने गुप्त रूप से उसे अपना प्रणय निवेदन भेजा। आम्रपाली ने दो शर्तें रखी। पहली, बिम्बिसार वैशाली पर आक्रमण कर उसे खाक में मिला देंगे और दूसरी अगर इस संबंध से अगर किसी बच्चे का जन्म होता है तो वह मगध का भावी सम्राट होगा।

बिम्बिसार ने ये शर्तें मान ली और वैशाली मगध के हमलों से खंडहर बनता गया। हजारों लोग मारे गए। अब आम्रपाली वैशाली के विनाश को देखकर पाश्चाताप की अग्न में जलने लगी। उसी समय वैशाली में बुद्ध का आगमन हुआ और आम्रपाली ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया। बुद्ध ने आम्रपाली को अपने संघ में शामिल कर लिया और कहा कि वह उतनी ही पवित्र है जितना गंगा का पानी।

चतुरसेन के उपन्यास का यहीं कथानाक है। यह कहानी लगभग ढ़ाई हजार साल पुरानी है। हालांकि अलग-अलग कथाओं में आम्रपाली की कहानी अलग तरीके से कही गई है। कुछ में कहना है कि आम्रपाली और बिम्बिसार का बेटा ही मगध सम्राट अजातशत्रु बना तो कुछ का कहना है कि आम्रपाली और बिम्बिसार का पुत्र एक बौद्ध भिक्षु बना जो बाद में आयुर्वेदाचार्य जीवक के नाम से प्रसिद्द हुआ। तिक न्यात हन्ह ने भी अपनी किताब जहं जहं चरण पड़े गौतम के में ऐसा ही लिखा है। आम्रपाली की कहानी पर लेख टंडन के निर्देशन में सन् 1966 में एक फिल्म भी बनी जिसमें वैजयंतीमाला आम्रपाली की भूमिका में है।

तो ये है आम्रपाली और मंगल अभिषेक पुष्करिणी की कथा जो उस विद्रोहिणी नायिका की गाथा को अभी भी सुना रही है। कुछ श्रुतियों के मुताबिक आम्रपाली के बौद्ध संघ में जाने के बाद ही बौद्ध संघ में भिक्षुणियों का प्रवेश संभव हो पाया।