Friday, January 11, 2008

मेरा गांव और बाढ......-2

मेरे गांव के बारे में लोगों का कहना यह है कि मेरे पुरखे आज से तकरीवन ढाई सौ साल पहले मधुबनी से करीब तीस किलोमीटर पश्चिम बसैठ-चनपुरा से आए थे। बसैठ चानपुरा वहीं गांव है जहां इंदिरा गांधी के नजदीकी और बिवादास्पद योगी धीरेंद्र व्रह्मचारी का जन्म हुआ था। उस गांव मे अभी भी हमलोगों के मूल के व्राह्मण काफी संख्या में है। उस जमाने में पता नहीं हैजा या बाढ की बजह से लोग पलायन करते रहते थे। हिंदुस्तान में वो मुगलो का अवसान काल था और यह इलाका बंगाल के नवाब के अधीन था। दरभंगा महाराज उनके सामंत हुआ करते थे। कहते है कि उस जमाने में इस इलाके में बडे बडे जंगल थे, कुछ तो बिहार के उत्तरी भाग से लेकर हिमालय की निचली श्रृखलांओं तक फैले हुए थे। गांव में अक्सर तेंदुआ या बाघ आ जाता था और ऐसा आजादी मिलने के समय तक सुनने में आता था। अब पता नहीं वो जंगल कहां है, बढती आबादी ने जंगलो के बेतरह लील लिया और अब तो उसके अवशेष भी यहां मिलना मुश्किल है। आज यह इलाका भारत के घनी आबादी बाले इलाकों में गिना जाता है। पुराने लोगों की बातों पर यकीन करें तो बाढ तब भी आता था लेकिन उसका प्रकोप इतना नहीं था। बडे-बडे जंगल विशेषकर नेपाल की तराई के जंगल बाढ के पानी को आहिस्ता आहिस्ता मैदानों में आने देते थे और तकरीवन हरेक गांव में पोखरों की श्रृखला, ताल-तलैया और छोटी-छोटी धाराएं बडे-2 बाढ को पचा जाती थी। आज भी उत्तर बिहार के इस इलाके में-जिसे मिथिलांचल के नाम से जाना जाता है-हरेक गांव में आठ-दस पोखर या तालाव हैं जो दिन व दिन अतिक्रमण की बजह से उथले होते जा रहे है। पहले ये तालाबें जमींदारो की मल्कियत थी, लेकिन आजादी मिलने का बाद से इनका सरकारीकरण हो गया और लोगों ने तालाब को भरकर घर वनाना शुरु कर दिया। पतली-पतली जल धाराएं- जो पता नहीं नेपाल से कहीं से आती थी- जिनका हरेक गांव में अलग अलग नाम था और जो बडी नदियों में जाकर मिल जाती थी, लोगों द्वारा भर कर खेत बना ली गई है और स्वभाविकत; इससे पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुका है। विकास की तमाम योजनाएं ऐसी वनाई गई जिससे उत्तर से आने वाली नदियों के पानी का प्रवाह अवरुद्ध हुआ-जिसका सवसे बडा उदाहरण दरभंगा -निर्मली रेलवे लाइन है जो पश्चिम से पूरब लगभग सत्तर किलोमीटर तक पानी के लिए एक कृत्रिम अवरोध के रुप में डटी है। इसके आलावा दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाइवे भी इसी तरह का है। कहने का तात्पर्य यह विल्कुल नहीं है कि विकास की योजनाएं गैर-जरुरी है। मतलब सिर्फ इतना है कि इसका कोई लाजिकल तरीका खोजा जा सकता था। नेपाल की तराई में पहले घने जंगल थे-सागवान की लकडियो के लिए प्रसिद्ध। पिछले पचास साल में वहां की राजशाही के दौरान विकास के आधुनिक माडल के तहत जो जंगलों की हृदयहीन लूट हुई है उसने हिमालय के ढलान को नंगा कर दिया है और उसका सीधा असर उत्तर बिहार पर पडा है। इसके आलावा, कुछ न कुछ असर ग्लोवल वार्मिग का भी जरुर हुआ है जिसने वर्षा के चक्र को वेतरह प्रभावित किया है।
बाढ की समस्या में नदियों का सिल्टिंग एक महत्वपूर्ण कारण है। पिछले कई दशकों से बिहार के नदियों की सिल्टिंग नहीं हटाई गई है और बाढ जव आती है तो किनारों में अकल्पनीय क्षति पहुचाती है।

Monday, January 7, 2008

मेरा गांव खोजपुर- 1............

मुझे शुरु में लगता था कि खोजपुर नामका जो यह गांव है वो मेरो ही पुरखे द्बारा बसाया गया है, लेकिन बाद मे यह भ्रम भी दूर हो गया। दरअसल इस गाव का जिक्र टोडरमल के 16वीं सदी के सर्वे में भी आता है जबकि मेरे पुरखे इस गांव मे करीब 1750 ई के आसपास आए होगें। दरअसल, ये बाते मुझे पूर्व सांसद भोगेद्र झा ने बतायी जिनका इतिहास आदि विषयों में खासा दखल है। अपने आसपास की चीजों के बारे में हम कितना कम जानतेहै। अधिकांश को तो अपने गांव या अपने पडोस का ही इतिहास नहीं मलूम है-जवकि उन्हे हडप्पा-मोहनजोदडो के बारे में तोता की तरह रटाया जाता है। खैर, बात खोजपुर नामके गांव की हो रही थी जो बिहार के मधुबनी जिले में,जिला मुख्यालय से 34 किलोमीटर उत्तर-पूर्व की दिशा में बसा हुआ है। नेपाल की सीमा यहां से मह़ज 20 किलोमीटर है-और सीमापार बेरोकटोक आवाजाही होती है,शादी व्याह भी। सन् 84 तक गांव में बस नहीं चलती थी, कारण की सडक पक्की नहीं थी और कमला-बलान पर पुल नहीं था। पुल बनबाने में ललितनारायण मिश्र का योगदान अहम था। यों उन्होने और भी कई उल्लेखनीय काम किये थे-जैसे, दरभंगा में विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेज, झंझारपुर-लौकहा रेलवेलाइन और पश्चिमी कोशी नहर आदि। जनता उन्हे भगवान की तरह मानती थी। इतना सम्मान बिहार में बहुत कम नेताओं को नसीव हुआ। खोजपुर की आबादी आठेक हजार है जिनमें, ब्राह्मण,हरिजन ,यादव और कई पिछडी जातियां शामिल है। गांव की तकरीबन 80 फीसदी जमीन आज भी व्राह्मणों की मल्कियत है-हलांकि जमीन का हस्तांतरण पिछडी जातियों को हो रहा है-मगर उसकी रफ्तार अभी भी कम है। आज खोजपुर में बैक है, स्कूल है, डाकघर है, पटना के लिए बसें मिलती है और एक छोटा सा चौक भी है जहां आप दैनिक जीवन की वस्तुएं खरीद सकते है। लेकिन मुझे उस खोजपुर की याद आती है जो व्राह्मणों के कठोर चंगुल मे जकडा हुआ था-ये बात 80 के दशक की है, जब पटना में लालू यादव नामका आदमी मुख्यमंत्री नहीं बना था, जब कमला-बलान पर पुल नहीं बना था और जब अधिकांश व्राह्मण खेती खुद करते थे या करबाते थ। मेरे छुटपन तक तो सवर्णों का आत्याचाक कम हो गया था अलबत्ता आतंक अभी भी व्याप्त था। अभी भी पुराने लोग उन्हें देखकर पायलागी करते ही थे..अलबत्ता दिल्ली और पंजाव से कमाकर आई दलितो की नई पौध ने उन्हे चुनौती देना शुरु कर दिया था..ये बात तो लालू यादव के आने के पहले ही शुरु हो गयी थी।. हां लालू के आने के बाद वो आवाज और भी मुखरित हो चली थी और कई बार तो अन्याय के हद तक ब्राह्मणों से बदला लिया गया था। एक व्यक्ति के सत्ता में आने से कैसे सामाजिक संवंध बदलते है इसका नायाब उदाहरण नव्वे का वो शुरुआता दशक था , जहां लालू की आलोचना का मतलव सरेआम राह चलते पिटाई हो सकती थी।

मेरा गांव खोजपुर........

पिछले एक साल पर गांव जाने का मौका मिला था और मैं हिंदुस्तान के गांवो की बदलती तस्वीर को अपने गांव के आईने में देखना चाहता था। उपर से सबकुछ वैसा ही था, बाढ के बाद का अटका हुआ पानी,उबड-खाबड सडके जिसपर नीतीश सरकार बडी शिद्दत के साथ कोलतार बिछा रही थी और मगध एक्सप्रेस से उतरकर शाही तिरुपति और जयमातादी जैसे बसों में बैठंने बालों का रैला। लेकिन कहीं गहराई में बहुत कुछ बदल रहा है। नेपाल की सीमा से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर मेरे गांव खोजपुर तक सडकें डवल लेन की बनाई जा रही थी। पिछले पचास साल में जो काम सरकारी टेलीफोन कंपनियां नहीं कर पाई थी, उसे सिर्फ एक साल में एयरटेल और रिलांयस ने निबटा दिया था। घर -घर में मोबाइल पहुच चुका था, और बिहार के खेतों में मोबाइल बजना मेरे लिए वाकई किसी सपने से कम नहीं था।सबसे बडी और सकारात्मक बात मैने यह मैंने जो देखा वो यह कि लडकियो की शिक्षा पर सरकार का और लोगों का खासा जोर है। सरकार का सर्वशिक्षा अभियान, अपने कई कमियों के बावजूद इस दिशा में खासा कामयाव रहा है।मिड डे मील स्कीम, लडकियों के लिए मुफ्त की किताबें, साल में दो बार ड्रेस और हाईस्कूल की लडकियों के लिए साईकिले-इन तमाम योजनाओं ने वाकई लडकियोंको वडी तादाद में स्कूल की तरफ खीचा है।मुझे यकीन नहीं हुआ जब मैंने अपने गांव के स्कूल में आठ सौसे ज्यादा बच्चों को देखा, जो मेरे जमाने में कभी चार सौ से उपर नहीं गया, जबकि उस समय पडोस के गांव के बच्चे भी वहां पढने आते थे। जाहिर सी बात है कि गांव के ज्यादातर ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां शहरों की ओर पलायन कर चुकी है और उन आठ सौ बच्चों में ज्यादातर पिछडों और दलितों के बच्चे थे जो एक नए भविष्य की तरफ इशारा कर रहे थे। गांव में अब आंगनबाडी केंद्र है, महिला स्वास्थ्य सेविका है और नये शिक्षा-मित्रों में एक तिहाई महिलाएं है। मेरे गांव में अब पर्दा के घुटन से महिलाएं आजाद हो रही हैं और साईकिल पर सबार लडकियां जब अपने सतरंगी परिधानों मे स्कूल की तरफ निकलती है तो लगता है कि वाकई पूरा कायनात मुसकुरा रहा है। पढने की भूख कुछ इस कदर हावी है कि दोयम दर्जे के अंग्रजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह खुल गये है और काफी पैसा भी बना रहे है। ट्यूटरों की एक फौज खडी हो गयी है जिसकी मासिक आमदनी दो हजार से आठ हजार रु तक है। नीतीश सरकार ने शिक्षा व्यबस्था को पटरी पर लाने की काफी कोशिशें की हैं लेकिन कुछ लोग शिक्षा-मित्र की बहाली पर सबालिया निशान लगा रहे हैं। अलबत्ता सरकार का दावा अपनी जगह है कि एक गरीब राज्य चार हजार रु प्रतिमाह में शिक्षा-मित्रों की सहायता से अभी अपनी सिर्फ अपनी प्राथमिकता निबाह रही है।सरकार की स्वास्थ्य नीति की भी तारीफ हो रही है जिसके तहत सरकार ने स्वास्थ्य केंद्रों के रखरखाव की जिम्मेवारी निजी संस्थानों को दे दी है।
लेकिन बिहार की समस्या सिर्फ भ्रष्टाचार की नहीं है जिसको लेकर वर्तमान सरकार परेशान दिख रही है।एक गरीब प्रांत जिसको सिलसिलेवद्ध रुप से पिछले साठ बरस से जातीय गिरोहों ने बिभिन्न राजनैतिक दलों के बैनर तले लूटा है और जो स्वभाविक रुप से अपराध , असामनता, भ्रष्टाचार और कुत्सित जातिवाद का शिकार हो गया है, वहां यह आश्चर्य की बात है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर सबसे कम पुलिस बाले ,डाक्टर और शिक्षक है। ऐसे में बिहारी छात्रों का बिहार के बाहर जाकर कामयाबी का झंडा गाडना वाकई काबिलेतारीफ है।कई दफा तो वे दूसरे प्रांत के लोगों के लिए जलन का पात्र बन जाते है। साधनबिहीन और कम संख्या में पुलिस का रिकार्ड भी तब खराब नहीं कहा जा सकता।
कुल मिलाकर सबसे बडी चीज जो देखने में आ रही है कि जनता में एक आशा का संचार हुआ है और प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप कम हुआ है। बिहार की गाडी को रफ्तार पकडने में भले ही दस बर्ष और लग जाए, लेकिन चीजें सकारात्मक हुई हैं। पटना बस स्टैंड में बस में बैठते बक्त अगर आप सरकारी कर्मचारियों की बातचीत का जायजा लें, तो एक बात साफ तौर पर झलक कर सामने आती है कि वे नितीश सरकार से वाकई नाखुश हैं। बास्तव में यहीं वो तबका है जिसने लालू यादव के कार्यकाल में नेताओं के साथ मिलकर जमकर लूट मचाया था, एश किया था और सवर्ण चरित्र होने के कारण लालू को गाली भी यहीं तबका सबसे ज्यादा देता था। मजे की बात यह है कि यहीं जन-विरोधी वर्ग अब नीतीश सरकार की आलोचना कर रहा है क्योंकि उसे नीतीश का चंद्राबाबू बनना पसंद नहीं है।