आखिरकार मोहन भागवत दिल्ली आ ही गए। आना ही था। सुदर्शन भी पिछली बार चेन्नई में डेरा डाल आए थे जब आडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाना था। हां, इतना तय है कि आडवाणी के जाने के बाद बीजेपी के आगामी नेता इतने बौने होंगे कि संघ प्रमुख उन्हे नागपुर से फोन पर ही निपटा देंगे। संघ सुप्रीमों का दिल्ली आना मायने रखता है। मजाल है कि कोई भाजपाई चूं भी बोल सके। सबको टिकट लेना है, पद पाना है जिसपर मुहर नागपुर ही लगाता है। कुल मिलाकर संघ प्रमुख हमारे यहां की एक बड़ी पार्टी-बीजेपी- के खुमैनी हैं जो चुनाव लड़नेवाले उम्मीदवारों को योग्यता का सर्टिफिकेट देते हैं।
लेकिन खेल मजेदार है, टीवी के लायक बिकाऊ भी। उधर जसवंत को भाजपा ने निकाला तो वाजपेयी के तमाम पुराने ‘खास’ गोलबंद हो गए। नया गोला ब्रजेश मिश्रा और यशवंत सिंहा ने दागा। उनका कहना है कि आडवाणी को ये बात मालूम थी कि आतंकियों को छोड़ा जाना तय हुआ था। ये कैबिनेट का सामूहिक फैसला था। मामाला वैसा ही लग रहा है जैसा राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में आडवाणी पर आरोप लगाते थे। अब निकालते रहो कितने को पार्टी से निकालते हो। बीजेपी आलाकमान शौरी को पार्टी से नहीं निकाल पाया, उधर खंडूरी और वसुंधरा अभी तक आंखे दिखा रहे हैं। पहली नजर में बात तो सही लगती है कि पार्टी की हार के लिए प्यादे ही कैसे जिम्मेवार हैं जबकि लड़ाई तो प्रधानमंत्री बनने की थी।
जाहिर है वाजपेयी के तमाम पुराने यार ( या शागिर्द?) एक हो गए हैं। ब्रजेश, जसवंत, खंडूरी ये तो बानगी है। वाजपेयी ने जब जसवंत को मुलाकात का वक्त दिया तभी लग रहा था कि खेल अभी बाकी है।
आडवाणी खेमा के सारे चुप हैं। वे हवा का रुख देख रहे हैं। क्या बैकय्या, क्या जेटली और क्या अनंतकुमार। सुषमा का पता नहीं चल पा रहा वो अब किस खेमे में है। कई लोग खेमाविहीन होने की जुगत में है। राजनाथ के मन की बात किसी को पता नहीं- कि वो आडवाणी के आदमी है या असंतुष्टों का। लगते तो आडवाणी के हैं लेकिन संघप्रमुख के सामने जुबान नहीं खुलती-किसी की नहीं खुलती। आडवाणी को बचाने के लिए कहते हैं कि हार का ठीकरा मेरे सिर। लेकिन राजनाथ का कद इनता बड़ा नहीं कि ठीकरा उनके सिर फूटने की हामी भरे।
बीजेपी में कांग्रेस के उलट सब कुछ रहस्य ही रहस्य है। कांग्रेस में ही एक ही पथ है जिसका नाम 10 जनपथ है। बीजेपी में कई पथ हैं। यूं ज्यादातर नागपुर को जाती है लेकिन कुछ सड़कें इधर यू-टर्न मार आडवाणी के घर की तरफ मुड़ जाती थी।
जसवंत की विदाई से ठीक एक दिन पहले संघप्रमुख का इंटरव्यू आता है। उधर चिंतन बैठक है, आडवाणी एंड कंपनी पर आरोपों की बौछार होनी है और बीच में जसवंत सिंह आउट। क्या ये आडवाणी खेमा मुद्दा को डाईवर्ट कर रहा था जो चिंतन में उठना था?
उधर सयानों का कहना है कि जसवंत की विदाई संघ के इशारे पर हुई है और संकेत आडवाणी को सेफ पैसेज देने की है। मतलब ये तुमने भी तो पिछले के पिछले साल जिन्ना को देवता बताया था। लेकिन उधर फिर एक पेंच हैं।
सुदर्शन कहते हैं कि जिन्ना भले मानूस थे। अब यहीं सुदर्शन, आडवाणी को जिन्ना मसले पर अध्यक्ष पद से हटा चुके थे। लेकिन अब ये कैसा जिन्ना प्रेम?
उधर जिस दिन भागवत ने कहा कि एक नहीं दो नहीं 10-15 काबिल नेता हैं तो जोशी ने हां में हां मिलाई कि 10-15 ही क्यों 70-75 हैं। एक मतलब ये भी है कि उपर में जो पूरी टीम बैठी है उसे ही साफ कर दो। लाओ नीचे से नेता और पुनर्गठन करो। शौरी भी यहीं बोल रहे। तो क्या इस खेमें को संघ की सरपरस्ती हासिल है ?
लेकिन ये मानने का दिल फिर नहीं करता। क्योंकि जसवंत ने जो बड़ा पाप किया वो ये कि उन्होने जिन्ना को महान नहीं बताया-बल्कि सरदार पटेल की आलोचना की। उस पटेल की जिसे संघ वाले नेहरु के बरक्श अपना मानते आए हैं। तो फिर होगा क्या? इतना तो तय है कि आडवाणी एंड कंपनी को जाना होगा। संघ को उनका विकल्प नहीं मिल रहा। कोई ऐसा नाम जिस पर एका हो सके और जनता में भी जिसकी स्वीकार्यता ज्यादा हो। जाहिर है, कई डार्क होर्स इंतजार में बैठे हैं।
Friday, August 28, 2009
Friday, August 7, 2009
हमें आगे कौन पढ़ाएगा सरकार...?
सुमन कहती है कि फरक्का में वो सब कुछ है जो एक छोटे शहर में होना चाहिए, मसलन अच्छी सड़के, अच्छे स्कूल-डीपीएस भी है-और अच्छे अस्पताल। लेकिन नहीं है तो सिर्फ कोई भी कालेज। मैं भौचक्का हूं। मैं उससे कुछ और जानना चाहता हूं। वो आगे बताती है कि फरक्का में वाटर आथरिटी है, एनटीपीसी है, एनएचपीसी है, भेल है सब है। उसकी टाउनशिप है, गतिशील बाजार है और शान्ति है। लेकिन ऊपर बताया गया सारा कुछ केंद्रीय सरकार का है। मै पूछता हूं कि तो फिर बंगाली भद्रमानूष राईटर्स बिल्डिंग में क्या करते है। सुमन के पास इसका कोई जवाब नहीं है, वो बताती है कि किसी को कालेज की पढ़ाई करनी है तो या तो मालदा जाना होगा या फिर जंगीपुर(प्रणव बाबू का क्षेत्र-हलांकि वहां भी कोई बढ़िया इंतजाम नहीं है) जो 2 घंटे का रास्ता है। सारे संस्थान कलकत्ता में ही सिमट गए। यानी अच्छे नामों और अच्छे शक्ल-सूरतों वाली वामपंथी सरकार ने फरक्का नामके जगह के लिए पिछले 30 सालों में एक कालेज खोलने की कोई जरुरत नहीं समझी।
ये जरुरत बिहार में नीतीश कुमार और उनसे पहले के किसी सरकार ने भी नहीं समझी। शिक्षा पर भले ही लंबी चौड़ी तकरीरें हों और तमाम योजनाओं का पिटारा खोला-दिखाया जाए लेकिन हकीकत यहीं है कि बिहार जैसे प्रान्त में हाईस्कूल कम से कम 5 किलोमीटर के दायरे में है। अगर कालेज की बात की जाए तो नजदीकी कालेज कम से 10 किलोमीटर में एक है जिसमें परंपरागत विषय ही उपलब्ध है। पता नहीं, बिहार सरकार, ईसा के किस सन में इस वैचारिक लकबे से ग्रस्त हुई। वो कौन से महानुभाव थे-उन्हे खोजकर बिहार रत्न की उपाधि देनी चाहिए-जिन्होने 5 किलोमीटर के दायरे में हाईस्कूल खोलने पर पाबंदी लगवा दी। आज हकीकत ये है कि बिहार में लड़कियां-खासकर के ग्रामीण इलाकों की लड़किया किसी तरह घिसट-2 कर हाईस्कूल की शिक्षा प्राप्त करती है। जहां तक कालेज जाने का प्रश्न है तो ज्यादातर ल़डकियों के सपने कालेज की दूरी देखकर ही दम तोड़ जाते हैं। कालेज का एजुकेशन सिर्फ शादी के लिए किया जाता है, ताकि अच्छा दूल्हा मिल सके। इसकी खानापूर्ति प्राईवेट से इक्जाम देकर किया जाता है। पता नहीं, नीतीश कुमार को ये बात मालूम है कि नहीं-कपिल सिब्बल की चिंताओं में तो इतनी दूर की बात आ भी नहीं पाएगी।
मुझे नहीं मालूम देश के दूसरे हिस्सों की हालत क्या है। जहां तक यूपी की बात है तो लगता है कि वहां बिहार से ज्यादा शिक्षण संस्थान उपलब्ध हैं-चाहे विश्वविद्यालय हों या फिर हाईस्कूल। जहां तक मैने अनुभव किया है देश के दक्षिणी राज्य बीमारू सूबों से इतर कई दूसरे राज्य भी अपने बच्चों को बेहतर पढ़ा-लिखा रहे हैं।
सर्व शिक्षा अभियान के तहत भारत सरकार बड़े पैमाने पर शिक्षा के लिए धन दे रही है। खासकर प्राईमरी शिक्षा के लिए सरकार ने लाखों पंचायत शिक्षकों को बहाल कराया है। लेकिन हमारे यहां उच्च माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है। बिहार जैसे सूबों की बात करे तो एक औसत परिवार का बच्चा दसवीं के बाद क्या करेगा-इसका कोई मुकम्मल इंतजाम न तो नीतीश कुमार के पास है न ही कपिल सिब्बल के पास। सरकार एक औसत बच्चे को उसके घर के पास-कम से कम-10 किलोमीटर के दायरे में कालेज देने में नाकाम रही है।
दूसरा तरीका ये है कि वो बच्चा 10+2 करने के बाद बंगलोर या पूना चला जाए जहां उसे लगभग 8 लाख रुपये खर्च करने के बाद इंजिनीयरिंग या दूसरी कोई पेशेवर डीग्री मिल जाएगी। ऐसे कितने परिवार है, जो इतना खर्च कर सकते हैं।
तो हम कर क्या रहे हैं। हम लाखों बच्चों को स्कूल से निकाल कर दिल्ली-मुम्बई की सड़कों पर फैक्ट्री, दूकानों और घरों में नौकर बनने के लिए भेज रहे हैं-जहां कोई न कोई राज ठाकरे उसे गाली देने के लिए तैयार बैठा है।
ये जरुरत बिहार में नीतीश कुमार और उनसे पहले के किसी सरकार ने भी नहीं समझी। शिक्षा पर भले ही लंबी चौड़ी तकरीरें हों और तमाम योजनाओं का पिटारा खोला-दिखाया जाए लेकिन हकीकत यहीं है कि बिहार जैसे प्रान्त में हाईस्कूल कम से कम 5 किलोमीटर के दायरे में है। अगर कालेज की बात की जाए तो नजदीकी कालेज कम से 10 किलोमीटर में एक है जिसमें परंपरागत विषय ही उपलब्ध है। पता नहीं, बिहार सरकार, ईसा के किस सन में इस वैचारिक लकबे से ग्रस्त हुई। वो कौन से महानुभाव थे-उन्हे खोजकर बिहार रत्न की उपाधि देनी चाहिए-जिन्होने 5 किलोमीटर के दायरे में हाईस्कूल खोलने पर पाबंदी लगवा दी। आज हकीकत ये है कि बिहार में लड़कियां-खासकर के ग्रामीण इलाकों की लड़किया किसी तरह घिसट-2 कर हाईस्कूल की शिक्षा प्राप्त करती है। जहां तक कालेज जाने का प्रश्न है तो ज्यादातर ल़डकियों के सपने कालेज की दूरी देखकर ही दम तोड़ जाते हैं। कालेज का एजुकेशन सिर्फ शादी के लिए किया जाता है, ताकि अच्छा दूल्हा मिल सके। इसकी खानापूर्ति प्राईवेट से इक्जाम देकर किया जाता है। पता नहीं, नीतीश कुमार को ये बात मालूम है कि नहीं-कपिल सिब्बल की चिंताओं में तो इतनी दूर की बात आ भी नहीं पाएगी।
मुझे नहीं मालूम देश के दूसरे हिस्सों की हालत क्या है। जहां तक यूपी की बात है तो लगता है कि वहां बिहार से ज्यादा शिक्षण संस्थान उपलब्ध हैं-चाहे विश्वविद्यालय हों या फिर हाईस्कूल। जहां तक मैने अनुभव किया है देश के दक्षिणी राज्य बीमारू सूबों से इतर कई दूसरे राज्य भी अपने बच्चों को बेहतर पढ़ा-लिखा रहे हैं।
सर्व शिक्षा अभियान के तहत भारत सरकार बड़े पैमाने पर शिक्षा के लिए धन दे रही है। खासकर प्राईमरी शिक्षा के लिए सरकार ने लाखों पंचायत शिक्षकों को बहाल कराया है। लेकिन हमारे यहां उच्च माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है। बिहार जैसे सूबों की बात करे तो एक औसत परिवार का बच्चा दसवीं के बाद क्या करेगा-इसका कोई मुकम्मल इंतजाम न तो नीतीश कुमार के पास है न ही कपिल सिब्बल के पास। सरकार एक औसत बच्चे को उसके घर के पास-कम से कम-10 किलोमीटर के दायरे में कालेज देने में नाकाम रही है।
दूसरा तरीका ये है कि वो बच्चा 10+2 करने के बाद बंगलोर या पूना चला जाए जहां उसे लगभग 8 लाख रुपये खर्च करने के बाद इंजिनीयरिंग या दूसरी कोई पेशेवर डीग्री मिल जाएगी। ऐसे कितने परिवार है, जो इतना खर्च कर सकते हैं।
तो हम कर क्या रहे हैं। हम लाखों बच्चों को स्कूल से निकाल कर दिल्ली-मुम्बई की सड़कों पर फैक्ट्री, दूकानों और घरों में नौकर बनने के लिए भेज रहे हैं-जहां कोई न कोई राज ठाकरे उसे गाली देने के लिए तैयार बैठा है।
Subscribe to:
Posts (Atom)