Tuesday, January 20, 2009

भारतीय ओबामा नामका कोई विचार है ?

ओबामा को गद्दी मिलने पर भारत में भी खुशियां मनाई जा रही है, कुछ लोग कहते हैं कि हमारा ओबामा कब आएगा ? क्या मायावती, लालू, कलाम और दूसरे कई अल्पसंख्यक चेहरे भी ओबामा के ही रुप थे या एक पूर्ण वहुमत वाले ओबामा की दरकार है? लेकिन सवाल ये भी है कि क्या एक प्रतीकात्मक रुप से राज्य प्रमुख को चुन लिया जाना समस्या का समाधान है। क्या हम अपने देश में निचले तबकों खासकर दलितों को उस मुकाम तक ले आ पाए है जहां अभी भी अमेरिका का अश्वेत समुदाय पहुंच चुका है। गौरतलब है कि अमेरिका में अश्वेतों की आबादी 10-12 फीसदी से ज्यादा नहीं-फिर भी अमेरिकी समाज ने एक अश्वेत को सबसे ऊंची कुर्सी सौंप दी है, लेकिन हमारे यहां ये उदात्त भावना नहीं आ पाई है।

हमारे यहां दलितों की आबादी 16 फीसदी से ज्यादा है और उसमें आदिवासियों को जोड़ दें तो ये 23 फीसदी से ऊपर ठहरती है। मायावती या फिर लालू इसलिए गद्दी नहीं पा गए कि समाज उदार हो गया था-बल्कि उनकी आबादी ने लोकतंत्र में अपना हिस्सा लड़कर हासिल कर लिया। दूसरी तरफ दोनों समजों की बात की जाए तो अमेरिका, भारत की तुलना में एक नौजवान देश है जहां समाजिक समिश्रण की परंपरा काफी नई लेकिन तीव्र है। इसके उलट भारत एक प्राचीन मुल्क है और यहां हजारों साल से एक धीमी रफ्तार में सभ्यता की हांडी(मेल्टिंग पाट आफ सिविलाइजेशन) पक रही है।

अमेरिका में दास प्रथा थी लेकिन हमारे यहां भी जातिप्रथा है। अमेरिका में भेदभाव का आधार त्वचा का रंग था जबकि हमारे यहां इसका आधार किसी व्यक्ति का जन्म था। और इस मामले में हम अमेरिका से इस मामले में पीछे हैं कि वो बहुत जल्दी इन सब चीजों से ऊपर उठता दिख रहा है जबकि हमारे यहां मानसिक रुप से लोग अभी तक उदार नहीं हो पाए हैं।

ऐसे में हम ये मान लें कि अमेरिका एक देश से ऊपर एक विचार बन गया है जिसने दुनिया भर से बेहतरीन दिमाग को अपने यहां आमंत्रित करने का काम किया है और उसने अपने लिए बेहतर उदारवादी और सामंजस्यकारी समाज की स्थापना की है जबकि हम एक अभी तक एक देश बनने की प्रक्रिया से ही गुजर रहे हैं। ऐसे में भारत में एक ओबामा टाइप नेता के उदय की कल्पना भले ही संभव हो जाए-लेकिन व्यापक स्तर पर समाज को सामंजस्यकारी बनने में अभी लंबा वक्त लगेगा।

Monday, January 19, 2009

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-8

आखिर पाकिस्तान से होनेवाले उत्पातों का समाधान क्या है ? कुछ लोग कहते हैं कि पाकिस्तान तो खुद आतंकवादी हमलों से त्रस्त है और ये भी कि वहां एक पावर सेंटर नहीं है, लेकिन मुझे ये समझ में नहीं आता कि इसमें हम कहां शरीक हैं। क्या इस बहाने हम लहूलुहान होते रहें कि पाकिस्तान में कई पावर सेंटर हैं। मुझे ये समझ में नहीं आता कि अगर पड़ोस में लोकतंत्र नहीं है तो हम कब तक इंतजार करें कि वहां लोकतंत्र आ जाएगा। या फिर हम इसका ठेका ही क्यों न उठा लें कि वहां लोकतंत्र आ जाए। कई बार कई लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि मानों पाकिस्तान के नेता तो दूध के धुले हुए हैं,असली बदमाश तो सेना-आईएसआई गठजोड़ है-जब वो कमजोर हो जाएगी तो अपने आप सब ठीक हो जाएगा। लेकिन ये अपने आप में एक विरोधाभाषी तथ्य है। एक लोकतांत्रिक नेता हुए थे जुल्फिकार अली भुट्टो-उन्होने कहा कि हजार साल तक घास की रोटी खाएंगे लेकिन इस्लामी बम जरुर बनाएंगे। दूसरे नेता हुए नवाज शरीफ, जिन्होने ऐसा लगता है कि वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती की कोशिश तो जरुर की लेकिन सेना ने लंगड़ी मार दी।

दरअसल पाकिस्तान को हमलोग अभीतक समझ नहीं पाए है। पाकिस्तान का मतलब हमारे लिए क्या है ? क्या वो एक ऐसा मुल्क है जिसकी धड़कनों में तो हिंदुस्तान बसा हुआ है लेकिन वो ऊपरी तौर पर अरबों का नकल करना चाहता है। क्या ये वहीं सास-बहू पर झूमने वाली जनता है जो खुलेआम लश्कर और जैश को झोली भरकर चंदा देती है ? या फिर उसमें आसमां जहांगीर और सज्जाद मीर जैसे लोग भी है, अगर हैं तो उनकी तादाद और उनका असर कितना है ? ‘खुदा के लिए’ जैसी फिल्में देखता हूं दिल खुश हो जाता है, लेकिन पाकिस्तानी हुक्मरानों की बातें सुनता हूं तो तो दिमाग चकरा जाता है। दरअसल पाकिस्तान की कई सच्चाईयां हैं। यहां के उच्च वर्ग ने कभी लोकतंत्र को पनपने नहीं दिया-जिसका मतलब आम जनता का शासन था। सेना और कट्टरपंथियों के बहाने सत्ता नीचे के वर्ग तक जाने नहीं दी गई और इसके लिए हिंदुस्तान का खौफ खड़ा गया।

आज भी जो पाकिस्तान के सियासतदां हैं उनमें तकरीबन सारे के सारे बड़े जमींदार या बड़े व्यवसायी हैं। भारत की तरह मायावती या लालू वहां अभी भी दूर की कौड़ी है। सुना कि भुट्टो खानदान के पास चालीस हजार एकड़ जमीन है, और जरदारी भी पांच हजार एकड़ के मालिक हैं। उधर नवाज शरीफ हजारों करोड़ की कंपनी के मालिक हैं। जाहिर है इसी वर्ग के लोग सेना में ऊंचे पदों पर भी है तो फिर लोकतंत्र लाए कौन ? पाकिस्तान का उच्च वर्ग अपनी सत्ता बचाने के लिए बंदर जैसा नौटंकी कर रहा है और लहूलुहान हम हो रहें हैं। अब तो पाकिस्तान के पास एटम बम भी है जो इस बात की गारंटी दे रहा है कि भारत कभी उस पर बड़ा हमला करने की जुर्रत नहीं करेगा। फिर उपाय क्या है ?

पाकिस्तान की इस बीमारी का एक ही इलाज है, और वो है उसके उच्च वर्ग के रिहाईश पर उसी अंदाज में ताबड़तोड़ हमले करना जैसा उसने मुम्बई में किया है। माफ कीजिए, हम सैनिक हमले की बात नहीं कर रहे-हम तो पाकिस्तान में आतंकवादी कार्रवाई कर उसे तहस नहस करने की बात कर रहे हैं। भारत की जीडीपी इतनी बड़ी है कि अगर हमने अपने सैनिक बजट का एक फीसदी भी गुप्त रुप से इस काम में लगा दिया तो पाकिस्तान के हुक्मरान साल भर में घुटने के बल रेंगते नई दिल्ली आएंगे। पाकिस्तान को जवाब उसी के अंदाज में देना होगा। भारत का सैन्य बज़ट एक लाख करोड़ से ऊपर का है, हमें कम से कम 10 हजार करोड़ रुपया पाकिस्तान की बर्बादी के नाम करना होगा। इसके अलावा हमारे पास फिलवक्त कोई चारा नहीं-क्योंकि पाकिस्तान के अकड़ू नेता एटम बम के गुरुर में हमारी बात सुनने वाले नहीं-इतना तय है।

Wednesday, January 14, 2009

पाकिस्तान का भी इलाज है...

पाकिस्तान की लफ्फाजी का कोई जवाब नहीं, न ही उस मुल्क के नेताओं के गैरजिम्मेवराना रवैये की कोई सीमा है। कुल मिलाकर पाकिस्तान ढ़ीठ बन गया है, उसे ये बखूबी मालूम है कि उसके हाथ में एटम बम रहते भारत उस पर हमला करने की जुर्रत सात जनम में नहीं जुटा पाएगा। पाकिस्तान के लिए राजनय और अंतरार्ष्ट्रीय समझौतों की तमाम बंदिशें मजाक से ज्यादा कुछ नहीं-वो भारत के तमाम विकास के दावों, उसके आईटी और दूसरे आर्थिक क्षेत्र में हुए तरक्कियों और लोकतांत्रिक मूल्यों को महज एक एटम बम से तौल देना चाहता है। और पश्चिमी ताकतें इस काम में बखूबी उसका मदद कर रही हैं।अब तो अमेरिका और इंग्लैंड के हुक्मरान ये तक कहने लगे हैं कि मुम्बई हमलों में पाकिस्तानी एजेंसी का कोई हाथ नहीं- जरदारी के नान स्टेट एक्टर का फार्मूला हिट हो ही गया। हद तो ये है कि भारत के नेता भी अब नरम जुबान में बोलने लगे हैं। प्रणव दा का कहना है कि अगर पाकिस्तान आतंकियों पर ठोस कार्रवाई करे तो वो अपनी पुरानी मांगों पर विचार करने को तैयार हैं। तो क्या हम ये बाजी भी हार गए...बिना इस गारंटी के कि फिर से कोई हमला नहीं होगा ? अब सवाल ये है कि पाकिस्तान को काबू में रखने का कोई इलाज हमारे पास है भी या नहीं...क्या हमारे तरकश के सारे तीर चुक गए हैं ?

नहीं, भारत के सारे तीर चूके नहीं है। हमारे पास अभी भी अमोघ अस्त्र मौजूद है। ये सच है कि अभी पाकिस्तान के साथ लड़ाई में उलझना ठीक नहीं है। लेकिन पाकिस्तान को कड़वी दवा पिलाना भी जरुरी है। कुछ लोग कहते हैं कि गुजराल के समय में वहुप्रचारित गुजराल डाक्ट्रिन के तहत भारतीय खुफिया वलों के आक्रामक नेटवर्क को खत्म कर दिया गया था जिसने पाकिस्तान में जिला और ब्लाक स्तर पर अपने एजेंटों का जाल फैला रखा था। इस नेटवर्क को तैयार करने में दसियों साल लगे थे। अब वक्त आ गया है कि उस नेटवर्क को फिर से जिंदा किया जाए। वैसे भी भारत की सेना का बजट 1 लाख करोड़ से ऊपर का है। हमें 10 हजार करोड़ रुपये सिर्फ पाकिस्तान में तोड़फोड़ मचाने के लिए रखना चाहिए। बिना इस बात की परवाह किए कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी उस पैसे को लेकर हल्ला मचाएंगे, उसे स्कूल-कालेजों के लिए खर्च करने की बात करेंगे-हमें रक्षामंत्रालय के अधीन एक गुप्त मिशन बनाना चाहिए, जो सिर्फ पाकिस्तान में तोड़फोड़ के काम में लगा रहे।

हमारे यहां एक धमाका होने की सूरत में हमें पाकिस्तान में पांच धमाके करवाने चाहिए। तभी जरदारी एंड कंपनी के होश ठिकाने आएंगे। पाकिस्तान में भ्रष्ट लोगों की कोई कमी नहीं-वे इस काम में बखूबी हमारे काम आ सकते हैं, वहां पैसे के लिए कोई भी बिक सकता है और जरुरत पड़ने पर हमारे देश के लोग भी इस काम के लिए जान दे सकते हैं। हमें इस बात की चिंता बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा, बल्कि हमें अपने घर में लोकतंत्र की हिफाजत पर ध्यान देना चाहिए। ये काम इतना सस्ता है कि इसका कोई बाई-प्रोडक्ट भी नहीं है। पाकिस्तान अपनी औकात भूल गया है, और बिना किसी लड़ाई के उसे सही रास्ते पर लाने का शायद यहीं एकमात्र तरीका बचा है।