बहरहाल,
कोसी पुल पर जब हम पहुंचे थे तो दिन के बारह बज चुके थे। जनवरी का सूरज माथे पर
सबार होने के बावजूद प्यारा लग रहा था। हमारे पास तीन-चार घंटे थे और जाने के लिए
दो गंतव्य। एक विचार यह था कि सहरसा में महिषी जाकर मैया उग्रतारा का दर्शन किया
जाए और मंडन मिश्र की कर्मस्थली की कुछ हवा अपने फेफड़े में भर लिया जाए। दूसरा विचार
यह था नेपाल में सखरा देवी जाया जाए जो वहां से बीसेक किलोमीटर दूर था। गूगल पर
हमने पहले ही अंदाज लगा लिया था कि सहरसा जाने का मतलब है करीब 70 किलोमीटर जाना
और फिर आगे सड़क का अंदाज भी नहीं था। लोगों ने कहा कि सखरा तक की सड़क भारतीय
सीमा में शानदार बन चुकी है, बस नेपाल में दो-चार किलोमीटर खराब है। हमने सखरा
जाने का फैसला किया।
कोसी
पुल से थोड़ा पीछे होने पर(पश्चिम यानी मेरे घर की तरफ ही) भुतहा चौक पड़ता है
जहां से कोसी के सामान्तार एक नई सड़क बन चुकी थी। हमने वो सड़क ली और करीब 20
किलोमीटर चले। बीच में छोटे-छोटे गांव, कच्चे मकान, कहीं-2 डीटीएच और थ्रेसर। भैंस
का झुंड...बांस के पेड़ और अमराई। सड़क के पूरब इतराती हुई कोसी थी जिसने सड़क के
साथ करीब 10 किलोमीटर तक हमारा साथ दिया। पानी काम था, बीच-बीच में बालू के टीले,
किनारे से नकलती धारा, पलटी हुईं डोंगिया, मछली मारने के जाल और बालू निकालते
ट्रैक्टर। कोसी का पूर्वी तट साफ दिख रहा था जहां इक्का-दुक्का जानवर चर रहे थे।
कहीं-2 मीलों तक नदी के किनारे अथाह बालुका राशि...जिनपर तिनके भी बमुश्किल उगे
थे। परती जमीन.. शायद मैला आंचल की जमीन सी।
फिजां
में गुलाबी ठंढ़क तैर रही थी। मन में था कि बीच में कहीं चाय पी लेंगे। लेकिन मीलों
तक कहीं चाय की दुकान नहीं दिखी। हमने बच्चों से गांव का नाम पूछा तो कई बच्चों ने
तो जवाब ही नहीं दिया। एकाध बच्चे स्कूल से लौट रहे थे, उन्होंने जो नाम बताया वो
दिमाग से विस्मृत हो गए। मैंने अपने दोस्त से पूछा, ‘यार बीस किलोमीटर में हजारों की आबादी तो
फिर भी है लेकिन चाय की दुकान क्यों नहीं है?’ उसका
जवाब था, ‘शायद यहां के लोग इतने गरीब हैं कि चाय
पीने की आदत नहीं है। हां, उन्होंने गुटखा खाना जरूर सीख लिया है इसलिए कहीं-कहीं
परचून की छोटी सी दुकान में गुटखा मिल जाता है।’
भारत-नेपाल
सीमा के नजदीक कोसी हमसे छिटक कर उत्तर-पूरब की तरफ मुड़ गई थी और हम उत्तर-पश्चिम
की तरफ चल रहे थे। इलाका बेतरतीब हो गया था। पता नहीं चला कि सरहद कहां है।
उबर-खाबड़ जमीन थी, छोटे-छोटे पानी के नाले थे जो कोसी में मिलने जा रहे थे। काठ
का एक पुल था जिसे सावधानी से पार करना था। तभी दूसरी तरफ मेरी निगाह गई। पुल के
उस पार बांस के एक ऊंचे मचान पर एसएसबी का एक हथियारबंद जवान दूरबीन लिए दूर कुछ
देख रहा था। हमें एहसास हो गया कि हम सरहद के आसपास हैं। हमने मचान के पास जाकर
अपनी बाईक धीमी कर दी। उसने हमें हाथ से जाने का इशारा किया। फिर हमने एक साईकिल
वाले से पूछा, ‘नेपाल कहां है।’ उसने कहा, ‘पांच सौ मीटर दूर।’
अब
सड़क बहुत खराब हो गई थी। नेपाल-भारत की सीमा बहुत खुली हुई है। हाल ही में आतंकी
गतिविधियों के मद्देनजर एसएसबी की तैनाती की गई है जिनके कारनामों का विरोध यदाकदा
गांववाले करते रहते हैं। सुना कि एक बार नगालैंड के जवानों की बहाली कर दी गई।
उसके बाद इलाके से कुत्ते गायब हो गए। गांव वालों ने जबर्दस्त विरोध किया था। फिर
उन्हें वहां से हटाना पड़ा।
बहरहाल, हम आगे बढ़ते गए। एक जगह तालाब के
किनारे तीन-चार जवान हाथ में वाकी-टाकी लिए पेड़ के नीचे बैठे थे। ये भारतीय जवान
थे। उन्होंने हमें जाने दिया। आगे नेपाली चेकपोस्ट था। गोरखा जवान बैडमिंटन खेल
रहे थे। किसी ने हमें नहीं रोका। वे एक तरह से बेफिक्र थे कि उनका काम भारतीय ही
कर रहे हैं। हमने एक बुजुर्ग से मैथिली में पूछा जो तालाब से नहाकर आ रहे थे, ‘ये नेपाल है या भारत।’ उन्होंने कहा, ‘बाबू अब आप नेपाल में हैं।’ हमने पूछा कि सखरा देवी का मंदिर कितना दूर है तो उन्होंने
बताया कि बस आ ही गए हैं।(जारी)