नेपाल की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है और शांति के राह में बाधाएं खत्म नहीं हुई है। माओवादियों द्वारा युद्ध विराम की घोषणा और चुनाव में भाग लेने का फैसला ही सिर्फ शांति का गारंटीकार्ड नहीं है। आज नेपाल, इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से एक तरफ स्थिरता और विकास के तमाम रास्ते खुलते हैं तो दूसरी तरफ बर्बादी का अथाह समंदर है। दरअसल नेपाल, भारत और चीन की क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओँ का शिकार हो गया है। लेकिन ये इसकी असली बीमारी नहीं है। नेपाल जैसे देशों की कोई भी समस्या भारत से ही शुरु होती है और भारत में ही जाकर खत्म भी होती है।
नेपाल के इतिहास की थोड़ी सी पड़ताल करें तो असली समस्या तब शुरु हुई जब भारत की आजादी के कुछ ही समय बाद नेपाल में वर्तमान शाह राजवंश को भारत सरकार की मदद से पुनर्स्थापित किया गया-इससे पहले लगभग सौ सालों तक वास्तविक सत्ता राणा परिवार ने हथिया रखी थी। १८४४ में महल हत्याकांड के बाद राणा जंगबहादुर ने सत्ता अपने हाथों में ले ली थीं और सन सत्तावन के भारतीय विद्रोह के समय अंग्रेजों के सबसे काबिल चमचों में उसका नाम सिंधिया और सिख रजवारों के साथ आता है। लेकिन भारत की आजादी के बाद भारत ने अपने देश में तो लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन नेपाल की ओर से आंखे मूंद ली। नेपाल में निरंकुश राजतंत्र को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया गया-एक ऐसे देश द्वारा जो खुद को लोकतंत्र का अगुआ मानता था। गौर कीजिए- भारत ने दक्षिण अफ्रिका और म्यांमार को लंवे अर्से तक इसी बिना पर वहिष्कृत किए रखा, लेकिन पड़ोस की घटनाएं भारत के लिए क्षम्य बन गई। और इस शुतुरमुर्गी रबैये का खमियाजा भारत को भुगतना ही था।
दरअसल भारत ने अपनी विग व्रदर बाली भूमिका का निर्वाह करते हुए नेपाल की छोटी-मोटी जरुरतों का तो ख्याल रखा, लेकिन अपनी सुरक्षा के नाम पर कई एकतरफा संधि भी किए जिसका नेपाल की जनता के एक छोटे से लेकिन प्रभावशाली तबके ने सदा विरोध किया। नेपाल में एक परजीवी एलीट का विकास होता रहा जिसकी फैंटेसी भारत के बड़े शहरों में बसने की होती थी और जिनके बच्चे आईआईटी में पढ़ने का ख्वाब देखते थे। और राजा इस तबके का नेता हुआ करता था। जनता को इस दर्जे तक अशिक्षित और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखा गया था कि राजा ही बिष्णु अबतार था शायद बिष्णु का ग्यारहवां अबतार। भारत का सत्ताधारी वर्ग सोंचता था कि एक कमजोर नेपाल और उसका कमजोर नेतृत्व बड़ी आसानी से काबू में रह सकता है। किसी लोकतांत्रिक नेता से बात करने की तुलना में तानाशाह या राजा टाइप के नेता से बात मनबाना बड़ी ताकतों के लिए हमेशा से आसान रहा है।
लेकिन एक ऐसे देश में, जो दुरुह घाटियों से भरा पड़ा हो और जिसके दोनों तरफ दो विशाल विकासशील और गतिशील देश हों, यह लगभग असंभव ही है कि ज्यादा दिन तक उस देश में युग-सत्य न पहुंचे। कायदे से भारत को पचास के दशक से ही नेपाल में एक स्वस्थ और गतिशील लोकतंत्र के प्रयास करना चाहिए था और ऐसा न करके भारत ने राजनीति की लगभग सारी जमीन ही किसी बैकल्पिक ताकत के खाली छोड़ दी और माओवादियों ने इसे सिर्फ दस सालों में भर दिया। लेकिन सवाल सिर्फ राजशाही के खात्मे और बैकल्पिक शासन व्यवस्था की नहीं है- नेपाल में कई अन्य विवाद भी हैं। नेपाल की आवादी में भारत से गये लोगों या भारतवंशियों की संख्या उसकी कुल आवादी का लगभग ४८ प्रतिशत है औप पहाड़ी लोगों की जनसंख्यया ५२ फीसदी है। जबकि प्रशासन में मधेशी १० फीसदी भी नहीं है। नेपाल का राज परिवार मधेशी मूल का है और अपनी सत्ता बचाने के लिए उसने शताव्दियों से पहाड़ियो का तुष्टीकरण किया है। मधेशी अभी तक राजा को अपना मानते थे-पहाड़ी इसलिए शान्त थे क्योंकि सत्ता में उनका सीधा दखल था। आश्चर्य की बात तो यह है कि धुर कम्युनिस्ट माओवादियों के दल में भी मधेशी बहुत कम हैं। नेपाल के सभी दलों में पहाड़ियों का दबदबा है। तो ऐसे में चुनाव होता भी है तो मधेशियों के साथ कितना न्याय हो पाएगा? क्या उन्हे युगों तक फिर अपने अधिकारों के संघर्ष नहीं करना पड़ेगा?
यहीं वह बिन्दु है जहां राजा अपने को फिर से मजबूत पाता है और उसने अपने पत्ते चल भी दिए हैं। तराई में मधेशियों का अांदोलन शुरु हो गया हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाली सेना, भारत और अमरीका पहले से ही राजा के समर्थक हैं-कम से कम सांविधानिक राजतंत्र तक तो जरुर ही।अगर मधेशी आंदोलन जोर पकड़ता है जिसकी संभावना ज्यादा है( उनकी संख्या को देखते हुए) तो ये माओवादियों के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा और शोषितों व दलितों के बीच बहुत मेहनत से बनाया गया उनका आधार दो फाड़ हो जाएगा। दरअसल तब राजा नाम की संस्था ही वो विकल्प रह जाएगी जिस पर पहाड़ी और मधेशी दोनों ही भरोसा कर सकते हैं। और यहीं नेपाल नरेश की दिली इच्छा है और भारत -अमरीका की भी। भारत के हित में चीन को नेपाल की राजनीति से बाहर रखने का अभी यहीं एकमात्र उपाय है जिसपर अमल होना चाहिए, हलांकि भारत काफी देर से जागा है। चीन की विराट सैन्य और आर्थिक ताकत नेपाल में इतनी जल्दी शांति होने देगी, मानना मुश्किल है। लेकिन भारत अगर अभी भी नेपाल नरेश को काबू में रखकर दृढ़ता और इमानदारी से नेपाल में लोकतंत्र बहाल करवाए- तो बाजीं अभी भी अपने हाथ में है।
Wednesday, February 20, 2008
Sunday, February 10, 2008
ब्राह्मणों के आंगन में तुम्हारा क्या काम है... बनाम सोशल नेटवर्किंग
मीडिया में दलितों के प्रवेश को लेकर काफी अच्छी बहस चल रही है। लेकिन सवाल कई हैं। एक तो मीडिया के ब्राह्मणवादी चरित्र को लेकर है जो अब उससे भी आगे गोत्रवादी और भतीजावादी या चेलावादी हो गया है। तमाम पुराने पत्रकारों के वच्चों (अगर मीडीया में ही हैं तो) या संबंधियो को कोई दिक्कत नहीं होती जॉव खोजने में। अगर आप कुछ खास नहीं हैं तो बिना पैरवी के दरबान भी पानी नहीं पूछता। या नहीं तो एक आध बरस भटकिए..कोई इंस्टीट्यूट का आपका सीनियर मिल जाएगा..और उसकी मदद से आप फिट हों जाएंगे। मतलब की जॉव के लिए एक आध साल भटकना भी एक इंटर्नशिप है। कई पुरानी कहाबते हैं मीडिया में नौकरी खोजने के बारे में-मसलन कि सीवी डालने से कॉल नहीं आता.आदि..आदि.. लेकिन जो बात महत्वपूर्ण हैं वह है सोशलाइजेशन या नेटवर्किंग। जो कुछ मुट्ठीभर दलित मीडिया में हैं भी उनमें अपने वर्गीय हितों से बहुत लगाव नहीं रह गया है, मुझे माफ कीजिए- वे मुद्दे तो दलितों के हक में उठा सकते है, भाषण भी देते हैं.. लेकिन बहुत कम हैं जो मिशनरी जील रखते हैं। उनका घुलना मिलना सवर्ण समाज में ही ज्यादा है। वजहें कई हैं-या तो वे उस पोजीशन में नहीं है या खुलकर फेवर करने में डरते हैं या अपने बगल के फ्लैट में उन्हे कोई दलित का बच्चा नही मिल पाता जो आवश्यक रुप से पत्रकारिता का ही कोर्स कर रहा हो। तो कुल मिलाकर वो एकदम सिर्फ दलित होने के नाते किसी दलित की मदद नहीं करते। तो क्या दलित पत्रकार भाई-भतीजावाद से मुक्त एकदम अादर्श व्यक्ति हैं? नहीं..ऐसी बात नहीं है।
मेरे संस्थान में (जहां से मैंने पत्रकारिता का कोर्स किया था) जो मेरे दलित साथी थे-उनका वर्गीय चरित्र एकदम से वैसा नहीं था जैसा कि दलित शव्द बोलने भर से दिमाग में आता है। वे सब दूसरी पीढी के साक्षर शहरी दलित थे और वो तेवर और आक्रोश भूल चुके थे जो कभी शायद उनके पिता ने महसूस किया होगा। समय भी बदल चुका था...शायद दलित मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति पाने के बाद वो हीनभावना से भी बहुत हद तक मुक्त थे। वो एकदम से गांव से आनेवाले पहली पीढी के दलित लड़कों के लिए अनुपलव्ध थे। कई बार तो उन्होने अपने संस्थान के ही किसी जूनियर सवर्ण छात्र की मदद भी की। ठीक ऐसा ही कई बार मेरे ब्राह्मण मित्रों ने भी किया-उन्होने भी अपने दलित जूनियरर्स की मदद की। लेकिन क्या ये कभी भी इस भावना से किया गया था कि समाज में कोई समांजस्य बनाना है? बिल्कुल नहीं..ये तो संस्थान का भाईचारा था..या एल्युमुनाई का 'पावन कर्तव्य' था जो एक नए तरह के जातिवाद की तरह उभरा है।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है वो यह कि पिछले साठ सालों में दलितो के लगभग ५० लाख परिवार या लगभग ३ करोड़ की आवादी अाज सरकारी सेवा के बदौलत ठीक-ठाक हो चुकी हैं। लेकिन कला, साहित्य या इस तरह के अन्य क्षेत्रों में उनकी नगण्य उपस्थिति कुछ और भी कहती है। पहली बात तो यह इस वर्ग के पढे लिखे लोगों को आरक्षण के कारण सरकारी नौकरी की सुलभता दूसरो के मुकाबले ज्यादा है जहां पत्रकारिता का संघर्ष लाख ग्लैमर के बावजूद अपना आकर्षण खो देता है। दूसरी बात है सोशल नेटवर्किंग की-जहां दलित पत्रकार चाहने पर भी जगह नहीं बना पाते। तीसरी बात है कि सवर्णों का तबका लगभग पूर्ण साक्षर और सभी क्षेत्रों में अपनी पीढीगत बढत के कारण-और नौकरियों के सिकुड़ते जाने के कारण भी-सभी फील्ड में बेतरह घुसपैठ किए हुआ है ।अब तो सुलभ शौचालय भी अपवाद नहीं। एक बात यह भी है कि अमूमन बौद्धिक क्षेत्रों में ऐसे ही वर्ग का दखल है जो निम्न वर्ग से मध्यम वर्ग का सफर पहले ही तय कर चुका हो, और दलितों का तो मध्यम वर्ग अभी ताजा-ताजा बना ही है। ऐसे में वो विराट दलित वर्ग पत्रकारिता में कहां 'फिट' होता है? हां, जातिवाद भी यहां एक महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन हमेशा इसकी वजह वो परंपरागत ब्राह्मणीय अहंकार और दलितों के प्रति नफरत नहीं होती-अपने सगे संवंधियों और इष्ट मित्रों के उपकार का भाव अवश्य होता है-लेकिन यही सबसे वड़ा विरोधाभासी तथ्य है कि ब्राह्मणों के इष्ट-मित्रों में आज भी ज्यादा दलित नहीं है। और यहीं बात सबसे ज्यादा परेशान करती है।
मेरे संस्थान में (जहां से मैंने पत्रकारिता का कोर्स किया था) जो मेरे दलित साथी थे-उनका वर्गीय चरित्र एकदम से वैसा नहीं था जैसा कि दलित शव्द बोलने भर से दिमाग में आता है। वे सब दूसरी पीढी के साक्षर शहरी दलित थे और वो तेवर और आक्रोश भूल चुके थे जो कभी शायद उनके पिता ने महसूस किया होगा। समय भी बदल चुका था...शायद दलित मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति पाने के बाद वो हीनभावना से भी बहुत हद तक मुक्त थे। वो एकदम से गांव से आनेवाले पहली पीढी के दलित लड़कों के लिए अनुपलव्ध थे। कई बार तो उन्होने अपने संस्थान के ही किसी जूनियर सवर्ण छात्र की मदद भी की। ठीक ऐसा ही कई बार मेरे ब्राह्मण मित्रों ने भी किया-उन्होने भी अपने दलित जूनियरर्स की मदद की। लेकिन क्या ये कभी भी इस भावना से किया गया था कि समाज में कोई समांजस्य बनाना है? बिल्कुल नहीं..ये तो संस्थान का भाईचारा था..या एल्युमुनाई का 'पावन कर्तव्य' था जो एक नए तरह के जातिवाद की तरह उभरा है।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है वो यह कि पिछले साठ सालों में दलितो के लगभग ५० लाख परिवार या लगभग ३ करोड़ की आवादी अाज सरकारी सेवा के बदौलत ठीक-ठाक हो चुकी हैं। लेकिन कला, साहित्य या इस तरह के अन्य क्षेत्रों में उनकी नगण्य उपस्थिति कुछ और भी कहती है। पहली बात तो यह इस वर्ग के पढे लिखे लोगों को आरक्षण के कारण सरकारी नौकरी की सुलभता दूसरो के मुकाबले ज्यादा है जहां पत्रकारिता का संघर्ष लाख ग्लैमर के बावजूद अपना आकर्षण खो देता है। दूसरी बात है सोशल नेटवर्किंग की-जहां दलित पत्रकार चाहने पर भी जगह नहीं बना पाते। तीसरी बात है कि सवर्णों का तबका लगभग पूर्ण साक्षर और सभी क्षेत्रों में अपनी पीढीगत बढत के कारण-और नौकरियों के सिकुड़ते जाने के कारण भी-सभी फील्ड में बेतरह घुसपैठ किए हुआ है ।अब तो सुलभ शौचालय भी अपवाद नहीं। एक बात यह भी है कि अमूमन बौद्धिक क्षेत्रों में ऐसे ही वर्ग का दखल है जो निम्न वर्ग से मध्यम वर्ग का सफर पहले ही तय कर चुका हो, और दलितों का तो मध्यम वर्ग अभी ताजा-ताजा बना ही है। ऐसे में वो विराट दलित वर्ग पत्रकारिता में कहां 'फिट' होता है? हां, जातिवाद भी यहां एक महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन हमेशा इसकी वजह वो परंपरागत ब्राह्मणीय अहंकार और दलितों के प्रति नफरत नहीं होती-अपने सगे संवंधियों और इष्ट मित्रों के उपकार का भाव अवश्य होता है-लेकिन यही सबसे वड़ा विरोधाभासी तथ्य है कि ब्राह्मणों के इष्ट-मित्रों में आज भी ज्यादा दलित नहीं है। और यहीं बात सबसे ज्यादा परेशान करती है।
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