मीडिया में दलितों के प्रवेश को लेकर काफी अच्छी बहस चल रही है। लेकिन सवाल कई हैं। एक तो मीडिया के ब्राह्मणवादी चरित्र को लेकर है जो अब उससे भी आगे गोत्रवादी और भतीजावादी या चेलावादी हो गया है। तमाम पुराने पत्रकारों के वच्चों (अगर मीडीया में ही हैं तो) या संबंधियो को कोई दिक्कत नहीं होती जॉव खोजने में। अगर आप कुछ खास नहीं हैं तो बिना पैरवी के दरबान भी पानी नहीं पूछता। या नहीं तो एक आध बरस भटकिए..कोई इंस्टीट्यूट का आपका सीनियर मिल जाएगा..और उसकी मदद से आप फिट हों जाएंगे। मतलब की जॉव के लिए एक आध साल भटकना भी एक इंटर्नशिप है। कई पुरानी कहाबते हैं मीडिया में नौकरी खोजने के बारे में-मसलन कि सीवी डालने से कॉल नहीं आता.आदि..आदि.. लेकिन जो बात महत्वपूर्ण हैं वह है सोशलाइजेशन या नेटवर्किंग। जो कुछ मुट्ठीभर दलित मीडिया में हैं भी उनमें अपने वर्गीय हितों से बहुत लगाव नहीं रह गया है, मुझे माफ कीजिए- वे मुद्दे तो दलितों के हक में उठा सकते है, भाषण भी देते हैं.. लेकिन बहुत कम हैं जो मिशनरी जील रखते हैं। उनका घुलना मिलना सवर्ण समाज में ही ज्यादा है। वजहें कई हैं-या तो वे उस पोजीशन में नहीं है या खुलकर फेवर करने में डरते हैं या अपने बगल के फ्लैट में उन्हे कोई दलित का बच्चा नही मिल पाता जो आवश्यक रुप से पत्रकारिता का ही कोर्स कर रहा हो। तो कुल मिलाकर वो एकदम सिर्फ दलित होने के नाते किसी दलित की मदद नहीं करते। तो क्या दलित पत्रकार भाई-भतीजावाद से मुक्त एकदम अादर्श व्यक्ति हैं? नहीं..ऐसी बात नहीं है।
मेरे संस्थान में (जहां से मैंने पत्रकारिता का कोर्स किया था) जो मेरे दलित साथी थे-उनका वर्गीय चरित्र एकदम से वैसा नहीं था जैसा कि दलित शव्द बोलने भर से दिमाग में आता है। वे सब दूसरी पीढी के साक्षर शहरी दलित थे और वो तेवर और आक्रोश भूल चुके थे जो कभी शायद उनके पिता ने महसूस किया होगा। समय भी बदल चुका था...शायद दलित मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति पाने के बाद वो हीनभावना से भी बहुत हद तक मुक्त थे। वो एकदम से गांव से आनेवाले पहली पीढी के दलित लड़कों के लिए अनुपलव्ध थे। कई बार तो उन्होने अपने संस्थान के ही किसी जूनियर सवर्ण छात्र की मदद भी की। ठीक ऐसा ही कई बार मेरे ब्राह्मण मित्रों ने भी किया-उन्होने भी अपने दलित जूनियरर्स की मदद की। लेकिन क्या ये कभी भी इस भावना से किया गया था कि समाज में कोई समांजस्य बनाना है? बिल्कुल नहीं..ये तो संस्थान का भाईचारा था..या एल्युमुनाई का 'पावन कर्तव्य' था जो एक नए तरह के जातिवाद की तरह उभरा है।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है वो यह कि पिछले साठ सालों में दलितो के लगभग ५० लाख परिवार या लगभग ३ करोड़ की आवादी अाज सरकारी सेवा के बदौलत ठीक-ठाक हो चुकी हैं। लेकिन कला, साहित्य या इस तरह के अन्य क्षेत्रों में उनकी नगण्य उपस्थिति कुछ और भी कहती है। पहली बात तो यह इस वर्ग के पढे लिखे लोगों को आरक्षण के कारण सरकारी नौकरी की सुलभता दूसरो के मुकाबले ज्यादा है जहां पत्रकारिता का संघर्ष लाख ग्लैमर के बावजूद अपना आकर्षण खो देता है। दूसरी बात है सोशल नेटवर्किंग की-जहां दलित पत्रकार चाहने पर भी जगह नहीं बना पाते। तीसरी बात है कि सवर्णों का तबका लगभग पूर्ण साक्षर और सभी क्षेत्रों में अपनी पीढीगत बढत के कारण-और नौकरियों के सिकुड़ते जाने के कारण भी-सभी फील्ड में बेतरह घुसपैठ किए हुआ है ।अब तो सुलभ शौचालय भी अपवाद नहीं। एक बात यह भी है कि अमूमन बौद्धिक क्षेत्रों में ऐसे ही वर्ग का दखल है जो निम्न वर्ग से मध्यम वर्ग का सफर पहले ही तय कर चुका हो, और दलितों का तो मध्यम वर्ग अभी ताजा-ताजा बना ही है। ऐसे में वो विराट दलित वर्ग पत्रकारिता में कहां 'फिट' होता है? हां, जातिवाद भी यहां एक महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन हमेशा इसकी वजह वो परंपरागत ब्राह्मणीय अहंकार और दलितों के प्रति नफरत नहीं होती-अपने सगे संवंधियों और इष्ट मित्रों के उपकार का भाव अवश्य होता है-लेकिन यही सबसे वड़ा विरोधाभासी तथ्य है कि ब्राह्मणों के इष्ट-मित्रों में आज भी ज्यादा दलित नहीं है। और यहीं बात सबसे ज्यादा परेशान करती है।
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