संजीव एड एजेंसी में काम करता है। बोल रहा है कि उसका सीईओ भी कभी-कभी हिंदी बोल लेता है या अक्सर हिंग्लिश बोल रहा होता है। उस दिन रतन टाटा भी नैनो मसले पर पीसी में बोल रहे थे। लेकिन कैसे बोल रहे थे? वे अटक-अटक कर बोल रहे थे। सुना कि फिल्म जगत में अधिकांश नए कलाकारों को देवनागरी में स्क्रिप्ट पढ़ने में दिक्कत होती है, उन्हे रोमन अंग्रेजी में लिखकर दिया जाता है। शुरु में ये बाते बचकानी लगती थी, लगता था कि कोई मजाक तो नहीं रहा। लेकिन दिल्ली आने के बाद लगा कि नहीं ये हकीकत है। मेरे कई दोस्तों ने कहा कि यार हिंदी पढ़ने में दिक्कत होती है। माफ कीजिए वे उत्तरभारत के ही थे। इधर रवीशजी ने पोस्ट लिखा कि चंद्रभान प्रसाद अंग्रेजी देवी की मूर्ति लगवा रहे हैं ताकि दलित भी अंग्रेजी में पढ़कर ऊंची जगह जाए। मुझे तकनीकी तौर पर इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आती।
मैने मोहल्लालाईव(mailto:mohallalive.com/2009/10/27/sushant-jha-writeup-on-hindi-english-debate/) पर एक लंबा सा पोस्ट लिखा जिसमें कई लोगों को मेरे हिंदी विरोध या इसके प्रति हिकारत की गंध नजह आई। लेकिन सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी की तारीफ हिंदी विरोध है ?
हिंदी इस देश में क्यों नहीं रोजगार, कामकाज और रिसर्च की भाषा बन पाई और क्यो वह एक संपर्क की भाषा बनकर रह गई-ये अलग विमर्श हैं। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हिंदी प्रेम दिखाने के लिए उसे सीने में चिपकाए रखा जाए, बस, आटो, बेडरुम और वाथरुम में भी विलाप किया जाए। भाषा की चिंता और उसके लिए उपाय खोजना अलग चीज है, मौजूदा दौर में व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाना अलग चीज है। हिंदी के एक बड़े पैरोकार डा राम मनोहर लोहिया तो अंग्रेजी के बड़े विद्वान थे, उन्हे जर्मन भी उतनी ही आती थी-लेकिन सिर्फ हिंदी प्रेम की वजह से उन्होने अपने आपको हिंदी तक सीमित नहीं रखा।
हिंदी को अगर वाकई रोजगार से जोड़ना है तो जो चीजें व्यावहारिक हैं उन्हे अमल में लाना होगा। हमारे देश में कितने हिंदी प्रेमी हैं जिन्होने तकनीक, प्रबंधन, प्रशासन के किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है या मौलिक रुप से लिखा ही है? सिर्फ मन से हीन भावना हटा लेने और भाषा-संस्कृति की दुहाई देने से हिंदी कैसे अंग्रेजी के समकक्ष आ सकती है।
जो लोग चीन, कोरिया और जापान का उदाहरण देते हैं उन्हे भारत और उन देशों के हालातों को समझना होगा। उन देशों की राष्ट्रीयता का एक बड़ा आधार वहां की भाषा है जो वहुसंख्य जनता बोलती और लिखती है। क्या हिंदी के साथ ऐसी स्थिति थी या है? मौजूदा हिंदी तो सिर्फ हिंदी पट्टी में ही पिछले डेढ-दो सौ सालों में अपने असितित्व में आई है, पूरे देश की बात तो अलग है। आजादी के बाद हिंदी इस देश की संपर्क भाषा बन सकती थी लेकिन उसके लिए तत्कालीन हालात अनुकूल नहीं थे। ऐसे में वो जगह अंग्रेजी ने ले ली। अब अगर अंग्रेजी में सारे कारोबार, रिसर्च और प्रशासन का काम हो रहा है तो ये बिल्कुल उचित है कि उसके पढ़ाई की समुचित व्यवस्था की जाए। ऐसा नहीं हो सकता कि देश का एक वर्ग अंग्रेजी पढ़कर अच्छी-2 नौकरी करता रहे और दूसरा वर्ग मातृभाषा पढ़ते हुए ही जिंदगी गुजार दे। अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त करना हर देशवासी, खासकर गरीबों का मौलिक अधिकार होना चाहिए। चंद्रभान प्रसाद इस मायने में सही हैं कि दलितों को अंग्रेजी पढ़नी ही चाहिए।
5 comments:
आपके विचार इतने बेतरतीब और आंकड़े इतने थोथे हैं कि आपसे इस सम्बन्ध में तर्कपूर्ण चर्चा की उम्मीद नहीं है।
इसलिये आपसे इतना ही निवेदन कर सकता हूँ कि इस विषय में लिखने से परहेज करें।
इस पर् तर्कपूर्ण विश्लेषण की आवश्यकता है ।
अनुनादजी से आग्रह कि कुछ गैर-थोथे और तरतीब किस्म के तर्क देकर हमें अनुग्रहित करें।
लाखों-लाखों में जो जो रोज आते है उनमे एक आप भी है सायद...!
अधिक चिंता करने की जरूरत नही है क्योंकि जो महराष्ट्र और असम में हो रहा हो वो बहुत जल्दी दिल्ली में भी होनेवाला है.....!
अगर इतना ही दुख है नेता से तो आप नेता क्यों नही बनते....???
और रही बात लाखों ने कोई पटना आयेगा तो हमे गुस्सा नही आएगा क्योंकि वंहा पहले से ही लाखों मारवाडी और सरदार रहते है हमने तो कभी कोई ऐतराज नही कीया और न गुस्सा दिखाया...!
और रही ऐसे हालात की जो आज है उसका सबसे बड़ा कारन भी आप और हम जैसे लोग है...!
पढ़ते है बिहार में रहते है बिहार में पर जब नौकरी की बड़ी ई तो दिल्ली चले आये ...!
भाई जब हम जैसे सभी लोग दिल्ली आकर काम करेंगे तो बिहार का विकास कैसे होगा...???
अमीरी रेशम—ओ—कमख़्वाब में नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है
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