मेरे एक वरिष्ट फिरोज नकबी का मानना है कि देश में हिदी की दुर्दशा तभी से शुरु हुई जब आजादी के बाद इसे पवित्रतावादियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में हिंदुस्तानी का विकास हो जिसमें लिपि तो देवनागरी हो लेकिन उसमें उर्दू और दूसरी भाषाओं के शब्द भी लिए जाएं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि हिंदी को देवनागरी और फारसी दोनों ही लिपिय़ों में लिखने की आजादी दी जाए। लेकिन कुछ अति पवित्रतावादियों के चक्कर में हिंदी को वो स्वरुप नहीं मिल पाया। इसमें हिंदी भाषा के कट्टरपंथी भी थे और उर्दू के भी। हिंदी वाले अपनी संस्कृतनिष्ट पहचान के लिए मरे जा रहे थे जबकि उर्दू वालों को लग रहा था कि उनकी भाषा ही खत्म हो जाएगी। पवित्रतावादियों को ये ख्याल नहीं था कि जब भाषा ही नहीं बच पाएगी तो उसका विकास कहां से होगा।
इलाहाबाद में उस जमाने में इस उद्येश्य से एक हिंदुस्तानी अकादमी की भी स्थापना की गई जिसमें अपने जमाने के जानेमाने विद्वान प्रोफेसर जामिन अली और डा अमरनाथ झा का अहम योगदान था। इस संस्था को महात्मा गांधी का भी आशीर्वाद मिला हुआ था। लेकिन हिंदुस्तानी अकादमी अकेली क्या करती। वो भाषाई कट्टरपंथियों के सामने टिक नहीं पाई। आज हालत ये है कि हिंदुस्तानी अकादमी के साईट पर जाएं तो वहां भी संस्कृतनिष्ठ हिंदी का ही बोलवाला दिखता है।
आज अगर हिंदुस्तानी भाषा का वो प्रयोग कामयाब हो गया होता तो देश में हिंदी एक बड़े क्षेत्र की भाषा बन चुकी होती। 2001 की जनगणना के मुताबिक जो हिंदी महज 45 लोगो की जुबान है वो अपने साथ मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया और असमी को भी जोड़ सकती थी और वो तकरीबन 70 फीसदी लोगों की भाषा होती। इसका इतना बड़ा साईकोलिजकल इम्पैक्ट होता कि हिंदी-विरोधी आंदोलन की इस देश में कल्पना नहीं की जा सकती थी। गौरतलब है कि मराठी की अपनी लिपि नहीं है और वो देवनागरी में ही लिखी जाती है। इसके अलावा गुजराती भी देवनागरी से मिलती जुलती है। पंजाबी, बंगला, उडिया और असमी के इतने शब्द हिंदी से मिलते जुलते हैं कि उन्हे आसानी से हिंदी का दर्जा दिया जा सकता था-बशर्ते हम लचीला रुख अपनाते। (ये ऐसे ही होता जैसे अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा आदि हिंदी की क्षेत्रीय भाषा या बोलियां बनकर रह रही हैं-ये अलग विमर्श है कि खड़ी हिंदी के विकास ने उन भाषाओं पर क्या असर डाला है!) लेकिन अफसोस, पवित्रतावादियों ने सब गुर-गोबर कर दिया। जो हिंदी वास्तविक संपर्क की भाषा बन सकती थी वो सिर्फ आमलोगों के संपर्क की भाषा बनी-बड़े लोग, सत्ताधीश और कारोबारियों ने अंग्रेजी अपना लिया। हिंदी और गौर-हिंदी के चक्कर में अंग्रेजी दबे पांव आ गई और इसने सबको खत्म कर दिया।
यूं, ऐसा जनता के स्तर पर नहीं हुआ। आम जनता हिंदुस्तानी ही बोलती रही लेकिन ये सिस्टम उसे संस्कृतनिष्ठ हिंदी सिखाने पर अमादा थी और अभी भी है। आप सरकारी विज्ञप्तियों को ध्यान से पढ़ें तो आप माथा पीट लेंगे-शायद हजारी प्रसाद द्विवेदी भी जिंदा होते तो न पढ़ पाते।
भला हो टीवी, सिनेमा और मीडिया का जिसने आम आदमी के बीच हिंदुस्तानी का प्रचार किया। औसत हिंदुस्तानी को इस भाषा से कोई परहेज नहीं लेकिन हमारे सरकारी कूढ़मगजों के दिमाग में कौन ये बात घुसाए।
दूसरी बात ये कि आज भले ही हिंदी अपने तरीके से अपना बिस्तार और विकास कर रही है लेकिन तथाकथित हिंदीवादियों और राज ठाकरे में उस स्तर पर अभी भी कोई फर्क नहीं है। हिंदीवादियों ने कभी भी हिंदी में कायदे के अनुवाद की कोशिश नहीं की। जो लोग हिंदी की मर्सिया गाते फिरते हैं उनसे कोई पूछे कि उन्होने विज्ञान, प्रबंधन और मेडीसीन के कितने पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। आज हालत ये है कि हिंदी में ढ़ंग की किताबे उपलब्ध नहीं है जो रोजगार में सहायक हो। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? हमारी सरकार, भाषावादी या फिर ये बाजार?
बाजार को दोष देना बेवकूफी है। बाजार ने कभी भाषा का विरोध नहीं किया। बल्कि उसने माल बेचने के लिए हमेशा उसका उपयोग ही किया है। आज हिंदी सीखने के लिए अगर दूसरे प्रदेशों के लोगों में भी इच्छा जगी है तो इसके पीछे भी बाजार ही है। आज कारपोरेट बोर्ड रुम में भी हिंदी घुस गई है तो जाहिर है इसके पीछे बाजार है। मूल गलती हिंदी-वादियों की जो हिंदी को गाय, गंगा और ब्राह्मण की तरह पवित्र बनाए रखना चाहते हैं।
9 comments:
बात तो आपने बिल्कुल सही कहा , सहमत हूँ।
आपका विश्लेषण अत्यन्त तर्कहीन है।
हिन्दी की दुर्दशा (यदि है) तो वह है कि भारत में अंग्रेजी अघोषित रूप से अनिवार्य है (नौकरी आदि के लिये) । इसके बारे में कुछ अन्य कारण देना ऐसे ही है जैसे मंगल ग्रह का आदमी हिन्दी के बारे में अपनी राय दे रहा हो।
हमारी समस्या यह है कि हम भाषा और जानवर को धर्म और आस्था से जोड़कर देखते हैं। यह गलत है।
अनुनाद जी, आमीन! आपको तर्कशिरोमणि की उपाधि अभी तक क्यों नहीं दी गई-यहीं ताज्जुब है। लेकिन आपकी टिप्पणी पर जवाब देकर मैं अपना वक्त क्यों बर्बाद कर रहा हूं?
सही कह रहे हैं आप! पवित्रता तो वाहियात चीज है, अपवित्र ही रहना चाहिये। इन पवित्रतावादियों ने तो कबाड़ा ही कर दिया नहीं तो आज भी स्कूलों में गांधी वाली हिन्दुस्तानी में "साहब राम" और "बेगम सीता" पढ़ाया जाया करता। कितना सरल होता यह सबके लिये और आपके अनुसार भाषा का झगड़ा भी खत्म हो गया होता।
हिन्दी भाषा की भी कोई औकात है? जो भी चाहे दो लात मार दे इसे। गांधी इस भाषा पर उर्दू का वर्चस्व चाहते थे और टीवी, सिनेमा और मीडिया वाले इस पर अंग्रेजी का वर्चस्व चाहते हैं। हिन्दी भाषा के पास अपना शब्दभंडार तो है ही नहीं। तो बिना उर्दू, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के शब्दों को लिये बिना उसका काम कैसे चलेगा?
बहुत अच्छा किया आपने इस लेख के द्वारा पवित्रतावादियों को उनकी औकात बताकर!
मैं अनुनादजी से सहमत हूँ , और आपकी अभद्र भाषा को जानकर दुखी हूँ | आदमी को अपनी आलोचनाओं के लिए भी जगह देनी चाहिए | पूरा किया कराया पर खुद ही पानी फेंर दिया |
हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाकर थोपने से पहले सरकार को इसे समृद्ध बनाना चाहिये था, भैया हम उत्तर भारत वाले तो इस हिन्दी के विकास के चक्कर में अपनी अवधी और ब्रज़ भाषा को खा गये, जिसमें दुनिया का बेहतरीन काव्य गढ़ा गया है।
उपरोक्त सभी आदरणीय जनों से मैं कहना चाहूंगा कि हमारी हिन्दी जिसका वजूद १००-२०० साल का है और इसकी उत्पत्ति भी उर्दू की तरह हुई, लेकिन चलिये कोई बात नही अग्रेजी का भी इतिहास उज्ज्वल नही रहा किन्तु उन्होने इसे पूरी दुनिया की भाषा बना डाली पर हम क्यो नही ऐसा कर पाये, क्योकि हमने हिन्दी में कविता-कहानी और अब ब्लाग.... के अलावा कुछ लिखने की कोशिश ही नही की या लिख ही नही पाये..........चलो कुछ इतिहास भूगोल और विज्ञान लिखा जाय मगर अबकी बार अंग्रेजी की किताबों की नकल न करके,
शायद कुछ बेहतर हो जाये। पहले भाषा संमृद्ध करे लोग खुद आकर पढ़ने लगेंगे, यकीन मानिये फ़िर हमें गोष्ठिया, वगैरह और ब्लाग पर चिल्लाने की जरूरत नही पड़ेगी।
गाय गंगा और ब्राह्मण ही अब कहाँ पवित्र रह गये हैं । भाषा तो अपने स्वरूप में मूलत: पवित्र ही होती है , सवाल शुद्धता या अशुद्धता का होना चाहिये । इसका यह रूप तो परिवर्तंशील ही होता है , आज से 100 साल बाद की हिन्दी की कल्पना करें ।
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