एक जमाना था जब दोनों इलाके रेललाईन से जुड़े हुए थे। निर्मली से भपटियाही रेललाईन थी। लेकिन सन् 1934 के भूंकंप में वो पुल भी टूट गया। फिर तो सारा कुछ बर्बाद हो गया। तमाम पुराने संबंध खत्म होते गए। दरभंगा-मधुबनी वालों के लिए सहरसा-पूर्णिया की चर्चा दंतकथा जैसी हो गई। मेरी दादी बताती थी कि उस पार परसरमां की एक काकी थीं, उधर चैनपुर नामका कोई गांव था। हम गौर से उन गावों का नाम सुनते और कल्पना करते कि वे गांव कहां होंगे। हम बनगांव-महिषी का नाम सुनते और वहां की प्रसिद्ध उग्रतारा भगवती की कहांनियां सुनते। कोई दूर के संबंधी उधर से आते तो बनगांव के संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं की कहानी सुनाते। हवा का कोई ताजा सा झोंका आता।
लेकिन हम चाहकर भी उस पार आसानी से नहीं जा पाते। सहरसा या पूर्णिया जाने का मतलब था पांच जिला पार कर के जाना। ट्रेन या बस से जाने का मतलब था लगभग 18-20 घंटे का सफर। ऐसा ही उस पार के लोगों के लिए भी था। दिल्ली जाना आसान लगता था, लेकिन पुर्णिया जाना दुरुह। हम रेणु का मैला आंचल पढ़कर अंदाज लगाते कि फारबिसगंज कैसा होगा। पुरनिया कैसा होगा। श्रीनगर, चंपानगर स्टेट, गढ़बनैली स्टेट, कुमार गंगानंद सिंह...सिंहेश्वर स्थान.. मैथिली-हिंदी के ढ़ेरों प्रसिद्ध साहित्यकार उधर से हुए। हिंदी-मैथिली के प्रसिद्ध साहित्यकार राजकमल चौधरी महिषी के ही थे।
पिताजी की एक बुआ उधर ही ब्याही थी, परिहारी गांव में। शायद अब अररिया में है। दादाजी अक्सर उस पार जाते, बताते कि उधर पटुआ(पटसन) की खेती बहुत होती है। किसानों के पास बहुत जमीन हैं। बड़े जमींदार हैं, लेकिन साथ ही ये भी बताते कि इलाका ‘थोड़ा पिछड़ा’ हुआ है। सड़के खराब हैं...और लोग ‘मोटा खाते-पहनते’ हैं ! ये बातें उस वक्त समझ में नहीं आती थी। हम मधुबनी-दरभंगा के लोग अपने आपको थोड़ा ऊंचा समझते! अकड़ में रहते! कोसी के इलाके को हमारे इलाके के लोगों ने ‘कोसिकंधा’ बना दिया!
दरभंगा वालों ने उन्हें हमेशा कम करके आंका। एक श्रेष्टतावोध उन पर हमेशा हावी रहा!शायद ऐसा मैथिली साहित्य में भी हुआ। दरभंगा और सहरसा वालों में अक्सर शीतयुद्ध चलता रहता। दरभंगा वाले अक्सर अपनी मैथिली को मानक मैथिली साबित करने की कोशिश करते। वे उधर की मैथिली पर नाक-भौं सिकोरते। दुर्भाग्यवश कमोवेश अभी भी वैसी ही मानसिकता है।
ये बातें बचपन में भेजे में अंटती नहीं थी। हमें क्या पता था कि कोसी ने बीती सदियों में उस इलाके का ये हाल कर दिया है कि हमारे इलाके के लोग उसे ‘कोसिकंधा’ कहने लगे।पिछली ढ़ाई शताब्दियों में कोसी करीब 120 किलोमीटर खिसक कर पश्चिम आ गई।पिछली बार यह चालीस के दशक में पश्चिम की तरफ खिसकी थी। यानी इसने करीब 8 बार अपनी धारा बदली। सैकड़ों गांव, हजारों-लाखों लोग बेघर हो गए।जमीन रेत से पट गई। तो फिर उस इलाके का क्या हाल हुआ होगा...?
आजादी के बाद कुछ कोशिशें हुई, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई। पचास के दशक में नेपाल के साथ एक समझौता करके कोसी पर तटबंध बनाने की शुरुआत हुई। कोसी की भुजाओं में मानो हथकड़ी डाल दिया गया। साठ के दशक में प्रसिद्ध नदी घाटी परियोजना कोसी प्रोजेक्ट शुरु हुई। मेरे गांव से होकर पश्चिमी कोसी नहर की मुख्य शाखा जाती है। इसे सन् 1983 में पूरा हो जाना था। तीस साल होने को आए, लेकिन वो आज तक नहीं बन पाई। सुना कि पूर्वी कोसी नहर लगभग
लेकिन लाख प्रयासों के बावजूद कोसी पर फिर से पुल नहीं बनाया जा सका। न तो रेल पुल, न ही सड़क पुल। इस तथ्य के बावजूद कि सूबे पर लंबे समय तक राज करनेवाला और राजनीति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख परिवार उसी इलाके से आता था। पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र को इलाके में काफी प्रतिष्ठा मिली-खासकर मधुबनी-दरभंगा में। कहते है कि उन्होंने कोसी पर फिर से रेल पुल बनवाने की कोशिश भी की थी। लेकिन इसमें वे कामयाब हो पाते, इससे पहले ही वे दुनिया से कूच कर गए। उनके मुख्यमंत्री भाई ने फिर उस इलाके की तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया।