कोसी नदी मधुबनी-सुपौल की सीमा नहीं है, बल्कि सुपौल से ही होकर बहती है। कोसी के पश्चिम तक सुपौल जिला है। निर्मली, सुपौल जिला में ही पड़ता है, यों नदीं होने के कारण वहां के लोगों के लिए जिला मुख्यालय जाना काफी मुश्किल भरा काम था। निर्मली, कोसी के पश्चिम में है जबकि सुपौल कोसी से पूरब। उस तुलना में दूरी होने के बावजूद निर्मली से मधुबनी-दरभंगा जाना ज्यादा आसान था। अब पुल बनने के कारण सुपौल का अपने जिला मुख्यालय से जुड़ाव सही हो गया है।
हाईवे नंबर 57( ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर) से निर्मली करीब 7 किलोमीटर दक्षिण में है और वहां तक जाने के लिए अच्छी सड़क बन गई है। समय की कमी की वजह से मैं निर्मली नहीं जा पाया। वो पुरानी रेल लाईन जो सन् 1934 के भूकंप में ध्वस्त हो गई थी, निर्मली तक ही थी। उस पार भपटियाही था। इसे दरभंगा-निर्मली रेलखंड बोलते हैं, जो छोटी लाईन की है। उस पर नियमित रेलगाडिया चलती हैं। अब कोसी पर नया रेल पुल भी बन रहा है जिसके बाद से ये लाईन बड़ी लाईन हो जाएगी।
मेरे कोसी पुल तक जाने की कई वजहें थी। नदी और पुल को देखने के अलावा हाल के सालों में उधर से एक संबंध भी बना था। मेरे बहनोई का पुश्तैनी गांव उधर ही था, जिसे सन् 70 के दशक में कोसी पूरी तरह लील गई थी। उस गांव का नाम बनैनियां था(है?)। कहते हैं बनैनियां उस इलाके का एक प्रसिद्ध गांव था जहां कई नामी-गिरामी लोग पैदा हुए थे। मेरी दीदी के श्वसुर गुणानंद ठाकुर सहरसा से सांसद भी रहे। इसके अलावा हिंदी-मैथिली के साहित्यकार मायानंद मिश्र, इनकम टैक्स कमिश्नर सीताराम झा उसी गांव के थे जिनका नाम पूरे इलाके भर में था। जब कोसी ने उस गांव को लीलना शुरु किया तो वहां के लोग जहां-तहां पलायन कर गए। जिसको जहां ठिकाना मिला वहीं बस गया। सरायगढ.सहरसा, सुपौल, पटना, दिल्ली, बंबई आदि शहरों में वहां के लोग पलायन कर गए।
जब भी मैं दिल्ली में अपने बहनोई के घर जाता तो उनकी मां भाव-विह्वल होकर बनैनिया का जिक्र करती ! वे अपनी घर, आम के बगीचे, तालाब, मंदिर का जिक्र करती। उनकी बड़ी बेटी की शादी गांव से ही हुई थी। उनकी मंझली बेटी बतातीं कि कैसे उनके घर के सामने आम के पेड़ से लगा एक झूला हुआ करता था जहां बचपन में वे लोग खेलते थे! उस गांव में उनके पचासो बीघे जमीन थे, वे सब नदी के पेट में समा गए। देखते ही देखते लोग राजा से रंक हो गए। सुना की हाल के दिनों में नदी के पेट से बनैनिया के कुछ जमीन बाहर आए हैं। उनका पुराना बटाईदार कभी-2 दिल्ली आता तो बताता कि कुछ जमीन बाहर निकला हैं। उनकी आंखों में एक चमक सी आ जाती! वे फिर से कल्पना करते कि शायद कभी वे अपने पुरखों की जमीन को देख पाएंगे! उन्होंने मुझसे कहा भी था कि अगर मैं उस तरफ जाऊं तो जरा बनैनिया का थाह लूं कि क्या वो पानी से वाकई बाहर निकल आया है ?
जब मैं कोसी पुल पर था तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि बनैनियां कहां हैं? नए लोगों को इसके बारे में ज्यादा पता नहीं था। एक पुराने बुजुर्ग मिले जिन्होंने इशारे से बताया कि वो पुल से उत्तर बीच पानी में कहीं होगा। वे मेरी दीदी के ससुर को जानते थे। उन्होंने कहा कि नेताजी का घर उसी जगह था। वहां कोसी का पानी हिलोड़ मार रहा था। हम पुल के पूर्वी छोड़ तक गए जहां नया तटबंध बना दिया गया है। उस पार की जमीन वर्तमान में पानी से बाहर सुरक्षित हो गई है। हाईवे के नीचे तटबंध के पूरब उस खाली जमीन पर बस्तियां पनप आई थीं। वहां सौ-दो सौ के करीब झोपड़ियां उग आई थीं। बिल्कुल नए-नए साल दो साल के बने घर। कुछ पान के खोखे..कुछ चाय की दुकानें...। उस गांव का नाम इटरही था। वह गांव पुराने बनैनियां से करीब 2-3 किलोमीटर उत्तर था। उस गांव की ये खुशनसीबी थी कि वो नए तटबंध से बाहर आ गया, लेकिन बनैनियां इतना खुशनसीब नहीं था। वो पानी के पेट में ही पड़ा रहा गया, और शायद स्थायी रुप से इतिहास और विस्मृति के गर्भ में भी।
कुल मिलाकर उस समय मुझे वो गांव कहीं नजर नहीं आया। हां, दूर पानी में कुछ जमीन उग आए थे। उस पर कुछ घर बन गए थे। जीवन का संचार दिख रहा था। लेकिन वो जमीन बिल्कुल कोसी के पेट में थी। दोनो तरफ कोसी की धाराएं और बीच में वो जमीन और उस पर कुछ घर...। तो क्या यहीं बनैनियां थी? मैं निश्चित नहीं हो पाया। दिल्ली आकर गूगल मैप पर देखा तो किसी जानकार व्यक्ति ने विकिमैपिया पर उसी उग आई आबाद जमीन को बनैनिया के नाम से चिह्नित किया था। लेकिन अथाह जलराशि के बीच में उस सौ-दो सौ एक एकड़ उथली जमीन का क्या मतलब था...? क्या कभी वो जिंदा हो पाएगा..? क्या कोसी फिर से उसे नहीं लील जाएगी..? लोगों की जीवटता देखकर आश्चर्य हुआ कि फिर भी कुछ लोगों ने उस पर अपने घर बना लिए थे। वे धारा पारकर सरायगढ या भपटियाही जाते हैं लेकिन बाढ़ के दिनों में वे क्या करते होंगे...?
दीदी की सास ने बताया कि जो लोग संपन्न थे वे लोग तो सहरसा, सुपौल या दिल्ली स्थायी रुप से पलायन कर गए, लेकिन गरीब लोगों ने कोसी के पुराने तटबंध पर ही अपना डेरा डाल लिया। उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। वे दशकों से उम्मीद में थे कि शायद कभी कोसी मैया उनके जमीन को आजाद करेगी। ज्योंही वो जमीन निकली, लोग फिर से वहां पहुंच गए। लोगों की जीवटता देखकर मैं दंग रहा गया। नदी किनारे रहनेवाले लोग कितने जीवट होते हैं, पहली बार मुझे इसका एहसास हो रहा था! हाहाकारी बाढ़ लानेवाली नदी के पेट में कोई गांव पनप सकता है, और वहां लोग दशकों-सदियों तक रह भी सकते हैं इसकी कोई कल्पना नहीं थी!
कोसी से लौटकर जब गांव आया था तो छोटी दादी ने वहां का हाल पूछा था। मैंने बनैनिया का जिक्र किया तो उन्होंने पूछा कि नकटा हुलास नामका गांव उधर ही कहीं था। वो बनैनियां से पंद्रह-बीस किलोमीटर दक्षिण था। उसे भी कोसी ने साठ के दशक में लील लिया था। दादी के रिश्ते में कोई भाई वहां से उनके गांव आकर बस गए थे। दादी के पिता ने उन्हें गांव में कुछ जमीन दे दी थी। दादी इसी तरह के कई गांवों का जिक्र कर रही थीं जो कोसी के पेट में समा गए थे। उनकी आखों में उनके रिश्तेदारों का दर्द मैं महसूस कर पा रहा था। शायद इसी तरह मुल्क के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से पंजाबी शरर्णार्थी आए थे। गुजराबालां की याद शायद ऐसी ही होगी। बंटवारे के बाद आए शरणार्थियों के लिए तो सरकार ने व्यापक पुनर्वास की योजना भी बनाई, लेकिन क्या कोसी जैसी नदियों द्वारा शरणार्थी बना दिए गए लोगों का कोई पुनर्वास हो पाया ? पता नहीं सरकार ने उनकी कितनी मदद की और उन तक कितनी मदद पहुंच पाई। यह अभी भी एक शोध का विषय है।
इधर सरकार ने कोसी को नए तटबंधों में जकड़कर समेटने की कोशिश की है। इससे पुल के नजदीक कोसी का पाट थोड़ा छोटा हो गया है। पुल की लंबाई लगभग ढ़ाई किलोमीटर ही है, जबकि कोसी का पुराना पाट करीब 6-7 किलोमीटर से कम का क्या रहा होगा। पता नहीं भविष्य में इसका क्या नतीजा होगा। क्या वो पुल और उसके नए तटबंध भविष्य में पानी के दवाब को झेल पाएंगे? कोसी का चरित्र पश्चिम की तरफ खिसकने का रहा है और इसकी वजह ये है कि उसमें सिल्टिंग काफी होती है। अगर वो नदी जिसे पुल के नजदीक समेटकर महज ढ़ाई किलोमीटर का कर दिया ग्या है, पश्चिम की तरफ दवाब बनाती है और खिसक जाती है तो पुल का क्या मतलब रह जाएगा...? यह कल्पना ही अपने आप में दिल-दहला देने वाली है। हाल ही में कोसी ने अपना रूप दिखाया था जब कुसहा के नजदीक उसके तटबंध टूटे थे।
बहरहाल, जश्न के इन पलों में इस भयानक कल्पना का जिक्र असहज बना देता है...लेकिन पुल पर खड़ा होकर मैं इस कल्पना को अपने जेहन में आने देने से रोक नहीं पा रहा हूं...। (जारी)