Tuesday, May 7, 2013

वैशाली यात्रा-10


अब हमारे एजेंडे में था भगवान महावीर की जन्मस्थली को देखना जो वैशाली की शायद सबसे महत्वपूर्ण जगह है लेकिन लोगबाग अशोक स्तंभ की प्रसिद्धि के सामने अक्सर इसे भूल जाते हैं। वैशाली में जहां अशोक स्तंभ है, उससे करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क से दाईं तरफ एक पक्की सड़क निकलती है जो वासोकुंड गांव चली जाती है। इसे प्राचीन ग्रंथों में विदेहकुंड, कुंडलग्राम या कुंडग्राम भी कहा गया है। आज से करीब 2600 साल पहले जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म यहीं हुआ था।


वासोकुंड सांस्कृतिक-भौगोलिक रूप से वैशाली का ही हिस्सा है लेकिन प्रशासनिक रूप से जिला वैशाली की सीमा यहां खत्म हो जाती है और अब यह मुजफ्फरपुर का हिस्सा है। कह सकते हैं कि यह वैशाली-मुजफ्फरपुर के बिल्कुल बीच में है। वासोकुंड की तरफ जाते हुए आपको लीचियों के बागान दिखने लगते हैं और आप समझने लगते हैं कि कुछ-कुछ अलग सा है।

मैं जब वासोकुंड जा रहा था तो मेरे मन में एक गजब सा उल्लास था। मैं दुनिया में एक प्रमुख धर्म के तीर्थंकर के जन्मस्थल की तरफ जा रहा था जहां मेरी कल्पना में हजारो श्रद्धालुओं की जमघट होगी। लेकिन रास्ते में वीरानगी छाई हुई थी। इक्का दुक्का साईकिल सवार और यदा कदा गाय-भैंसों के अलावा कुछ नहीं मिला। गांव शुरू होने से पहले सड़क की दाईं तरफ एक जैन शोध संस्थान दिखा, तो लगा कि हम वासोकुंड के नजदीक हैं।

आगे चौक पर किसी से पूछने पर पता चला कि वासोकुंड यहीं है। महावीर का जन्मस्थल कहां है? ‘दाएं लीजिए, सामने बोर्ड लगा है।


वह पांचेक एकड़ में फैला हुआ एक परिसर था, जो निर्माणाधीन था। ईंट की चारदीवारी से घिरी हुई जमीन थी जहां सड़क की तरफ से एक लोह का फाटक लगा हुआ था। अंदर लीची के पेड़ और ईंट और पत्थरों के ढ़ेर। दूर-दूर तक कोई नहीं। हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ की हमारी कल्पना को गहरा धक्का लगा। वहां तो सन्नाटा पसरा हुआ था। फाटक से अंदर जाने पर एक गार्डनुमा व्यक्ति बैठा मिला जिसने बताया कि मंदिर पिछले कई सालों से निर्माणाधीन है और विस्तृत जानकारी मंदिर के मुख्य प्रबंधक जमुना प्रसाद देंगे जो मध्यप्रदेश के सागर के रहनेवाले थे।

बहरहाल, हम ईंट-पत्थरों के ढ़ेर से होकर आगे बढ़े तो एक विशालकाय निर्माणाधीन मंदिर था जिसमें जगह-जगह ऊपर से लेकर नीचे तक बांस के बल्ले लगे हुए थे। उस मंदिर में महावीर स्वामी की एक मूर्ति स्थापित थी और चबूतरे पर मंदिर का एक भव्य डिजायन था। बगल में दीवार पर एक पोस्टर टंगा था जिसमें मंदिर कमेटी के सदस्यों और उसके संरक्षक आचार्य विद्यानंदजी की तस्वीर थी। विद्यानंदजी का मंदिर निर्माण में बहुत बड़ा योगदान बताया जा रहा था और वे दिल्ली में रहते थे।


मंदिर के पहले माले से बाईं तरफ एक गेस्ट हाउस का निर्माण किया जा रहा था और दाईं तरफ एक जैन कमेटी का भोजनालय था जिसमें सस्ते दर पर भोजन की व्यवस्था थी। अलबत्ता दिन के चार बज चुके थे, तो भोजनालय बंद था।

कुर्सी पर मंदिर के प्रबंधक जमुना प्रसाद बैठे थे और सामने एक गेस्ट रजिस्टर और दानपेटी थी। उनसे बात करने पर टुकड़े-टुकड़े में जो जानकारी मिली उसके मुताबिक यह जगह 1957 तक भारत सरकार के अधीन थी और बाद में बिहार सरकार की देखरेख में आ गई। जैन कमेटी ने मुकदमा दायर किया तो सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई के बाद सन् 2007 में इसे जैन कमेटी को सुपुर्द कर दिया गया जिसने आसपास की पांचेक एकड़ जमीन खरीदकर इस पर एक भव्य मंदिर बनवाने का काम शुरू किया। मंदिर सन् 2013 में बनकर तैयार हो जाने की उम्मीद थी।हालांकि वहां काम के रफ्तार को देखकर कतई नहीं लग पा रहा था कि सन् 2013 में मंदिर बन पाएगा।

जमुना प्रसाद ज्यादा कुरेदने पर बातों को कुछ छुपाते नजर आए और बार-बार वे मंदिर के मुख्य इंजिनीयर से बात करने की सलाह देते नजर आए जो थोड़ी दूर खड़े किसी से मोबाईल पर लंबी वार्ता में तल्लीन थे।

तो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर के जन्मस्थली का ये हाल था। बिहार या भारत की सरकार ने उसे जैन कमेटी के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और जैन कमेटी वाले भी बहुत उत्साहित नहीं लग रहे थे। मुझे पिछले साल अपनी जयपुर यात्रा का स्मरण हो आया जहां शहर से बाहर पदमपुर जैन मंदिर में हजारों पर्यटकों और श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ था और उस इलाके का वह एक लैंडमार्क था। लेकिन महावीर स्वामी की जन्मस्थली की यह अवहेलना क्यों थी, मेरी समझ से बाहर थी।

Monday, May 6, 2013

वैशाली यात्रा-9


हमारे पास समय कम था और अब हम अशोक स्तंभ देखने के लिए चले जो वहां से करीब 2 किलोमीटर उत्तर की दिशा में था। उस जगह को कोल्हुआ गांव कहते हैं। अशोक स्तंभ को बचपन से हम किताबों मे देखते आ रहे थे।

हमने परिसर में जाने का टिकट लिया और बाहर ही बाईक खड़ी की। बाहर कुछ दुकानें थी जो अमूमन इस तरह के जगहों पर होती हैं। बोतलबंद पानी, कोल्डड्रिंक, बुद्ध की काष्ठ और प्रस्तर मूर्तियों के साथ गणेश और बहुत सारी आकृतियां बिक रही थीं। लेकिन वहां भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। बाहर सन्नाटा सा था और फरवरी का सूरज प्यारा लग रहा था।


अंदर जाते ही स्तूप का भग्नावशेष और स्तंभ दिखा। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिली इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। एकाश्म स्‍तंभ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से हुआ है। इस स्‍तंभ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है (लगभग १८.३ मीटर ऊंची ) जो इसको और आकर्षक बनाता है। अशोक स्तंभ को स्थानीय लोग भीमसेन की लाठी कहकर पुकारते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है, जिसको रामकुंड के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व विभाग ने इस कुण्ड की पहचान मर्कक-हद के रूप में की है। कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटाग्रशाला है जिसका जिक्र बुद्ध साहित्य में व्यापक तौर पर आता है।

 परिसर में बड़े करीने से रंग-बिरंगे गुलाब लगाए गए थे और घासों की छंटाई की गई थी। सामने स्तंभ के पास एक दक्षिण कोरियाई दल(जिसमें करीब 30 लोग थे) बैठकर कुछ मंत्रोच्चार कर रहा था जिसमें कॉरपोरेट किस्म के लोग थे और कुछ बौद्ध भिक्षु उन्हें मंत्र पढ़वा रहे थे।

उस मंत्र सभा में हम भी बैठ गए। हमें मंत्र तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था-पता नहीं वो पालि भाषा में था या कोरियन में। लेकिन उसकी धुन गजब की थी। मन के गहरे तल तक एक शांति पसर आई। हमने राजीव की तरफ देखा, वो मुस्कुरा रहा था। शायद वह सोच रहा था कि इस दल में जरूर सैमसंग या हुंडई मोटर्स का चेयरमैन बैठा होगा जिससे वह दोस्ती गांठ लेगा !


कोरियन दल के अलावा वहां कुछ हिंदुस्तानी जोड़े भी थे जो शायद बुद्ध से अपने लिए आशीर्वाद मांगने आए थे। मोबाईल और डिजिटल कैमरों के इस दौर में फोटोग्राफरों का धंधा दम तोड़ रहा था।

वैशाली में जिस जगह पर अशोक का स्तंभ है वह एक बौद्ध विहार था जिसका नाम कुटाग्रशाला विहार था और जहां महात्मा बुद्ध अक्सर ठहरा करते थे। वहां पर जिस स्तूप का भग्नावशेष है उसे आनंद स्तूप कहते हैं और इस स्तंभ का निर्माण सम्राट अशोक ने करीब 2300 साल पहले करवाया था। एक अन्य कथा के अनुसार यह बौद्धविहार और इससे लगा वन आम्रपाली ने बुद्ध को भेंट स्वरूप दी थी।

हमने स्तंभ को छुआ, स्तूप और वहां के ईंटों को छुआ मानो हम इतिहास को टटोलने की कोशिश कर रहे हों। हमने सोचा कि इन ईंटो को सम्राट अशोक ने भी जरूर छुआ होगा।

Friday, May 3, 2013

वैशाली यात्रा-8


अस्थि स्तूप या रेलिक स्तूप के सामने की सड़क पर कुछ बालक भिक्षु नजर आए। हमने उनसे बात की और पूछा कि वे कब भिक्षु बने? बातचीत से पता चला कि वे बोधगया के रहनेवाले हैं और वहीं उन्हें दीक्षा दी गई। हमने उनसे उनका नाम पूछा, तो जैसा कि भिक्षुओं का नाम होता है, उसी तरह का उनका नाम था जिसके शुरु में भंते लगा हुआ था। वे भगवा और पीले वस्त्रों में थे और उनके सिर मुंडे हुए थे।


शुरू में हमारे सवालों का जवाब देते हुए वे हिचक रहे थे। हमने उनसे पूछा कि क्या वे पढ़ते लिखते भी हैं, तो पता चला बगल के बौद्ध मठ में एक स्कूल है जहां उनके पढ़ने और रहने-खाने की व्यवस्था है। उनमें से अधिकांश या सबके सब दलित और पिछड़ी जातियों के गरीब बच्चे थे जिनमें से किसी का पिता मध्य बिहार में खेतिहर मजदूर था तो कोई गया में रिक्शा चलाता था। आसपास मूर्तियां और कैलेंडर बेचनेवाले बच्चे उन्हें छेड़ रहे थे और वे शरमाकर कर भाग रहे थे। मुझे ऐसा लगा मानो किसी नाटक में उन्हें जबरन अभिनय करने भेज दिया गया हो ! बौद्ध भिक्षु बनने-बनाने की यह भी एक कहानी थी।  

आगे चलकर सड़क बाईं और दाईं तरफ मुड़ गई है। अभिषेक पुष्करिणी के किनारे आगे से बाईं ओर मुड़ने पर खूबसूरत और विशाल सा शांति स्तूप दिखता है जो मन मोह लेता है। दूसरी तरफ कुछ होटलनुमा इमारतें दिखीं, जो शायद सरकारी थी।


वैशाली के शांति स्तूप का निर्माण जापान के निप्पोनजन मायहोजी पंथ ने राजगीर के बुद्ध विहार सोसाईसटी के साथ संयुक्त रूप से किया है। द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद से जापान के निचिदात्सु फूजिई गुरूजी ने पूरी दुनिया में शांति स्तूपों के निर्माण की शुरुआत की थी और वैशाली का शांति स्तूप भी उसी सिलसिले में एक कड़ी है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियां और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शांति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की चमकती हुई प्रतिमा दिखायी देती है। शांति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में अत्यन्त सुन्दर मूर्तियां ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं।


शांति स्तूप के सामने अभिषेक पुष्करिणी है और उसके उस पार बुद्ध का रेलिक या अस्थि स्तूप। दूसरी तरफ गेहूं के हरे-भरे खेत और सरसो के फूल। बड़ा मनमोहक दृश्य बन पड़ता है। मन करता है घंटों वहीं बैठे रहे। ढ़ेर सारे स्कूली बच्चे और स्थानीय लोग वहां फोटो खिंचवा रहे थे जिसमें से तो बहुत सारे नव-विवाहित जोड़े थे जो आसपास के गांवों से आए हुए थे।