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Monday, May 6, 2013

वैशाली यात्रा-9


हमारे पास समय कम था और अब हम अशोक स्तंभ देखने के लिए चले जो वहां से करीब 2 किलोमीटर उत्तर की दिशा में था। उस जगह को कोल्हुआ गांव कहते हैं। अशोक स्तंभ को बचपन से हम किताबों मे देखते आ रहे थे।

हमने परिसर में जाने का टिकट लिया और बाहर ही बाईक खड़ी की। बाहर कुछ दुकानें थी जो अमूमन इस तरह के जगहों पर होती हैं। बोतलबंद पानी, कोल्डड्रिंक, बुद्ध की काष्ठ और प्रस्तर मूर्तियों के साथ गणेश और बहुत सारी आकृतियां बिक रही थीं। लेकिन वहां भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। बाहर सन्नाटा सा था और फरवरी का सूरज प्यारा लग रहा था।


अंदर जाते ही स्तूप का भग्नावशेष और स्तंभ दिखा। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिली इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। एकाश्म स्‍तंभ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से हुआ है। इस स्‍तंभ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है (लगभग १८.३ मीटर ऊंची ) जो इसको और आकर्षक बनाता है। अशोक स्तंभ को स्थानीय लोग भीमसेन की लाठी कहकर पुकारते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है, जिसको रामकुंड के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व विभाग ने इस कुण्ड की पहचान मर्कक-हद के रूप में की है। कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटाग्रशाला है जिसका जिक्र बुद्ध साहित्य में व्यापक तौर पर आता है।

 परिसर में बड़े करीने से रंग-बिरंगे गुलाब लगाए गए थे और घासों की छंटाई की गई थी। सामने स्तंभ के पास एक दक्षिण कोरियाई दल(जिसमें करीब 30 लोग थे) बैठकर कुछ मंत्रोच्चार कर रहा था जिसमें कॉरपोरेट किस्म के लोग थे और कुछ बौद्ध भिक्षु उन्हें मंत्र पढ़वा रहे थे।

उस मंत्र सभा में हम भी बैठ गए। हमें मंत्र तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था-पता नहीं वो पालि भाषा में था या कोरियन में। लेकिन उसकी धुन गजब की थी। मन के गहरे तल तक एक शांति पसर आई। हमने राजीव की तरफ देखा, वो मुस्कुरा रहा था। शायद वह सोच रहा था कि इस दल में जरूर सैमसंग या हुंडई मोटर्स का चेयरमैन बैठा होगा जिससे वह दोस्ती गांठ लेगा !


कोरियन दल के अलावा वहां कुछ हिंदुस्तानी जोड़े भी थे जो शायद बुद्ध से अपने लिए आशीर्वाद मांगने आए थे। मोबाईल और डिजिटल कैमरों के इस दौर में फोटोग्राफरों का धंधा दम तोड़ रहा था।

वैशाली में जिस जगह पर अशोक का स्तंभ है वह एक बौद्ध विहार था जिसका नाम कुटाग्रशाला विहार था और जहां महात्मा बुद्ध अक्सर ठहरा करते थे। वहां पर जिस स्तूप का भग्नावशेष है उसे आनंद स्तूप कहते हैं और इस स्तंभ का निर्माण सम्राट अशोक ने करीब 2300 साल पहले करवाया था। एक अन्य कथा के अनुसार यह बौद्धविहार और इससे लगा वन आम्रपाली ने बुद्ध को भेंट स्वरूप दी थी।

हमने स्तंभ को छुआ, स्तूप और वहां के ईंटों को छुआ मानो हम इतिहास को टटोलने की कोशिश कर रहे हों। हमने सोचा कि इन ईंटो को सम्राट अशोक ने भी जरूर छुआ होगा।

Friday, May 3, 2013

वैशाली यात्रा-8


अस्थि स्तूप या रेलिक स्तूप के सामने की सड़क पर कुछ बालक भिक्षु नजर आए। हमने उनसे बात की और पूछा कि वे कब भिक्षु बने? बातचीत से पता चला कि वे बोधगया के रहनेवाले हैं और वहीं उन्हें दीक्षा दी गई। हमने उनसे उनका नाम पूछा, तो जैसा कि भिक्षुओं का नाम होता है, उसी तरह का उनका नाम था जिसके शुरु में भंते लगा हुआ था। वे भगवा और पीले वस्त्रों में थे और उनके सिर मुंडे हुए थे।


शुरू में हमारे सवालों का जवाब देते हुए वे हिचक रहे थे। हमने उनसे पूछा कि क्या वे पढ़ते लिखते भी हैं, तो पता चला बगल के बौद्ध मठ में एक स्कूल है जहां उनके पढ़ने और रहने-खाने की व्यवस्था है। उनमें से अधिकांश या सबके सब दलित और पिछड़ी जातियों के गरीब बच्चे थे जिनमें से किसी का पिता मध्य बिहार में खेतिहर मजदूर था तो कोई गया में रिक्शा चलाता था। आसपास मूर्तियां और कैलेंडर बेचनेवाले बच्चे उन्हें छेड़ रहे थे और वे शरमाकर कर भाग रहे थे। मुझे ऐसा लगा मानो किसी नाटक में उन्हें जबरन अभिनय करने भेज दिया गया हो ! बौद्ध भिक्षु बनने-बनाने की यह भी एक कहानी थी।  

आगे चलकर सड़क बाईं और दाईं तरफ मुड़ गई है। अभिषेक पुष्करिणी के किनारे आगे से बाईं ओर मुड़ने पर खूबसूरत और विशाल सा शांति स्तूप दिखता है जो मन मोह लेता है। दूसरी तरफ कुछ होटलनुमा इमारतें दिखीं, जो शायद सरकारी थी।


वैशाली के शांति स्तूप का निर्माण जापान के निप्पोनजन मायहोजी पंथ ने राजगीर के बुद्ध विहार सोसाईसटी के साथ संयुक्त रूप से किया है। द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद से जापान के निचिदात्सु फूजिई गुरूजी ने पूरी दुनिया में शांति स्तूपों के निर्माण की शुरुआत की थी और वैशाली का शांति स्तूप भी उसी सिलसिले में एक कड़ी है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियां और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शांति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की चमकती हुई प्रतिमा दिखायी देती है। शांति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में अत्यन्त सुन्दर मूर्तियां ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं।


शांति स्तूप के सामने अभिषेक पुष्करिणी है और उसके उस पार बुद्ध का रेलिक या अस्थि स्तूप। दूसरी तरफ गेहूं के हरे-भरे खेत और सरसो के फूल। बड़ा मनमोहक दृश्य बन पड़ता है। मन करता है घंटों वहीं बैठे रहे। ढ़ेर सारे स्कूली बच्चे और स्थानीय लोग वहां फोटो खिंचवा रहे थे जिसमें से तो बहुत सारे नव-विवाहित जोड़े थे जो आसपास के गांवों से आए हुए थे।