पटेलों को आरक्षण मिलने से सबसे ज्यादा दिक्कत किसे होनी चाहिए? जाहिर है, वर्तमान पिछड़ों को। और जाटों को आरक्षण मिलने से? उसमें भी वर्तमान पिछड़ों को दिक्कत होनी चाहिए कि कोई मजबूत जाति उसके हिस्से में सेंधमारी करने आ रही है। लेकिन पिछड़ों का कोई मजबूत प्रतिरोध सामने नहीं है। सिवाय एकाध फेसबुकिया विचारकों के पिछड़ों को अपने हितों की कोई चिंता नहीं है! ऐसे विचारक भी सोचते हैं कि इसे संघ परिवार की साजिश बताकर वे अपने ऐतिहासिक कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जो उनके हितों की रक्षा करता है।
पिछड़ों के कुछ नेता तो पटेलों को आरक्षण में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन उसके उलट याद कीजिए गुर्जर आन्दोलन को जो अ. ज. जाति में शामिल होने की मांग कर रहा था और मीणाओं ने सड़क पर उतर कर उनका विरोध किया था। इसे कहते हैं अपने हक के लिए लड़ना। हक की लड़ाई आत्ममुग्ध होकर और सिर्फ संख्या-बल के भरोसे चैन की बांसुरी बजाकर नहीं लड़ी जाती। पिछड़ी जातियों की आत्ममुग्धता का ये हाल रहा तो किसी साल यूपी के राजपूत आरक्षण को लेकर लखनऊ घेर लेंगे। तब क्या होगा? लेकिन सवाल उससे आगे का है।
आरक्षण का मुद्दा दरअसल वोट बैंक का मुद्दा होना नहीं चाहिए, यह विवेक का मुद्दा है। मंडल कमीशन के चेयरमैन बी पी मंडल ने जब इसका मसौदा तैयार किया था तो उनके मन में जातिगत पूर्वाग्रह नहीं था। वे वैसे भी एक बड़े जमींदार परिवार से थे जिन्हें सत्ता संरचना से लेकर समाज का जमीनी ज्ञान था। उन्होंने पिछड़ी जातियों में भी अत्यंत पिछड़ी जातियों की पहचान की थी और सवर्णों में भी गरीबों की पहचान की थी। हालांकि हर रिपोर्ट में सुधार की गुजाइंश हमेशा रहेगी, लेकिन बी पी मंडल का विवेक देखिए कि उन्होंने ब्राह्मणों में भी सबसे हीन माने जानेवाले महापात्र(श्मशान घाट का पुरोहित) को ओबीसी का दर्जा दिया और कई राज्यों में गंधर्व ब्राह्मणों(संगीत और नृत्य के पेशे वाले) को भी। मेरे जिला में भांटों और तेलिया ब्राह्मण(तेलियो को पुरोहित) को भी ओबीसी का दर्जा मिला। इसी तरह से हिमाचल प्रदेश और कई पहाड़ी राज्यों में ब्राह्मण-राजपूतों को भी ऐसा दर्जा मिला। ऐसे में उचित ही मंडल कमीशन में जाटों और पटेलों को स्थान नहीं मिला, जो न तो समाजिक दृष्टि से पिछड़ी थी और न शैक्षणिक दृष्टि से। हां, ये बहस का अलग मुद्दा है कि कुछ मजबूत जातियां फिर भी ओबीसी सूची में है-जैसे दक्षिण में नायडू या रेड्डी या बिहार के वैश्यों में कई समृद्ध जातियां।
लेकिन दिक्कत ये है कि आरक्षण को वोट से जोड़ दिया गया। ऐसा मान लिया गया कि आरक्षण आखिरी उपाय है-जबकि वो तो प्राथमिक उपाय था। हालात ये है कि सरकारी नौकरियों की संख्या इतनी घट गई हैं कि कई विभागों में कर्मचारियों के लिए बनाए गए सरकारी आवास खाली रहने लगे हैं। ऐसे में आरक्षण का फायदा ज्यादातर शैक्षणिक संस्थानों के लिए रह गया है। लेकिन केक का हिस्सा इतना छोटा है कि लड़ने वालों की कमी नहीं है। वोट के लालची नेताओं से तो उम्मीद कम है, लेकिन आशा है कि सुप्रीम कोर्ट हर किसी को आरक्षण मांगने और दे दिए जाने पर फिर से फटकार लगाएगा। लेकिन देश के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से ये मांग तो की ही जानी चाहिए कि ऐसे आर्थिक म़ॉडेल पर काम करें जिससे जॉबलेस ग्रोथ न हो। देश में जितनी बेरोजगारी बढेगी, आरक्षण की मांग उतनी ही सुलगती रहेगी।
पिछड़ों के कुछ नेता तो पटेलों को आरक्षण में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन उसके उलट याद कीजिए गुर्जर आन्दोलन को जो अ. ज. जाति में शामिल होने की मांग कर रहा था और मीणाओं ने सड़क पर उतर कर उनका विरोध किया था। इसे कहते हैं अपने हक के लिए लड़ना। हक की लड़ाई आत्ममुग्ध होकर और सिर्फ संख्या-बल के भरोसे चैन की बांसुरी बजाकर नहीं लड़ी जाती। पिछड़ी जातियों की आत्ममुग्धता का ये हाल रहा तो किसी साल यूपी के राजपूत आरक्षण को लेकर लखनऊ घेर लेंगे। तब क्या होगा? लेकिन सवाल उससे आगे का है।
आरक्षण का मुद्दा दरअसल वोट बैंक का मुद्दा होना नहीं चाहिए, यह विवेक का मुद्दा है। मंडल कमीशन के चेयरमैन बी पी मंडल ने जब इसका मसौदा तैयार किया था तो उनके मन में जातिगत पूर्वाग्रह नहीं था। वे वैसे भी एक बड़े जमींदार परिवार से थे जिन्हें सत्ता संरचना से लेकर समाज का जमीनी ज्ञान था। उन्होंने पिछड़ी जातियों में भी अत्यंत पिछड़ी जातियों की पहचान की थी और सवर्णों में भी गरीबों की पहचान की थी। हालांकि हर रिपोर्ट में सुधार की गुजाइंश हमेशा रहेगी, लेकिन बी पी मंडल का विवेक देखिए कि उन्होंने ब्राह्मणों में भी सबसे हीन माने जानेवाले महापात्र(श्मशान घाट का पुरोहित) को ओबीसी का दर्जा दिया और कई राज्यों में गंधर्व ब्राह्मणों(संगीत और नृत्य के पेशे वाले) को भी। मेरे जिला में भांटों और तेलिया ब्राह्मण(तेलियो को पुरोहित) को भी ओबीसी का दर्जा मिला। इसी तरह से हिमाचल प्रदेश और कई पहाड़ी राज्यों में ब्राह्मण-राजपूतों को भी ऐसा दर्जा मिला। ऐसे में उचित ही मंडल कमीशन में जाटों और पटेलों को स्थान नहीं मिला, जो न तो समाजिक दृष्टि से पिछड़ी थी और न शैक्षणिक दृष्टि से। हां, ये बहस का अलग मुद्दा है कि कुछ मजबूत जातियां फिर भी ओबीसी सूची में है-जैसे दक्षिण में नायडू या रेड्डी या बिहार के वैश्यों में कई समृद्ध जातियां।
लेकिन दिक्कत ये है कि आरक्षण को वोट से जोड़ दिया गया। ऐसा मान लिया गया कि आरक्षण आखिरी उपाय है-जबकि वो तो प्राथमिक उपाय था। हालात ये है कि सरकारी नौकरियों की संख्या इतनी घट गई हैं कि कई विभागों में कर्मचारियों के लिए बनाए गए सरकारी आवास खाली रहने लगे हैं। ऐसे में आरक्षण का फायदा ज्यादातर शैक्षणिक संस्थानों के लिए रह गया है। लेकिन केक का हिस्सा इतना छोटा है कि लड़ने वालों की कमी नहीं है। वोट के लालची नेताओं से तो उम्मीद कम है, लेकिन आशा है कि सुप्रीम कोर्ट हर किसी को आरक्षण मांगने और दे दिए जाने पर फिर से फटकार लगाएगा। लेकिन देश के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से ये मांग तो की ही जानी चाहिए कि ऐसे आर्थिक म़ॉडेल पर काम करें जिससे जॉबलेस ग्रोथ न हो। देश में जितनी बेरोजगारी बढेगी, आरक्षण की मांग उतनी ही सुलगती रहेगी।
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