नवाज शरीफ और जरदारी के गठबंधन टूटने की उम्मीद पहले से थी। मुशर्रफ के जाते ही दोनों की एकता ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। लेकिन अहम बात ये है कि गिलानी सरकार के गिरने से सबसे तगड़ा झटका अमेरिका को लगेगा। अमेरिका ने बड़ी होशियारी से मुशर्रफ के अलोकप्रिय होते जाने की सूरत में भुट्टो परिवार को पाकिस्तान की कमान सौंपने के लिए जमीन तैयार की थी जिसे पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका भांफ गया था। नतीजा बेनजीर की हत्या में सामने आया। हत्या के बाद अमेरिका ने जरदारी पर दांव लगाया, लेकिन शरीफ, जरदारी को तभीतक बर्दाश्त करते रहे जबतक की उनके राह से मुशर्रफ का कांटा दूर न हो गया। अब, जबकि शरीफ, जजों की बहाली के मामले पर अड़ गए और दूसरी तरफ जरदारी ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने नाम की उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मामला खतरनाक हो गया।
नवाज शरीफ जजों की बहाली इसलिए चाहते थे कि इससे उनके कई हित सधते थे। पहला तो ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन आते ही मुशर्रफ पर मुकदमा चलाते कि उन्होने 1973 के संविधान के साथ छेड़खानी की, जिसके लिए मौत की सजा तक का प्रावधान है।दूसरी बात ये थी कि जरदारी पर जो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे उसे मुशर्रफ ने एक विशेष आदेश के जरिए हटा दिया था। अगर चौधरी इफ्तिकार हुसैन बहाल हो जाते हैं और मुशर्ऱफ पर गैरकानूनी ढंग से सत्ता हथियाकर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगता है तो फिर जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जिंदा हो जाएंगे और उन के खिलाफ मुकदमे फिर खुल जाएंगे। तीसरी बात ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन ने उस मकदमें की भी सुनवाई की थी जिसके तहत मुशर्रफ सरकार ने 300 कट्टपंथियों को पकड़कर अमेरिकी खुफिया एजेंसी को सौंप दिया था।अगर चौधरी की फिर से बहाली हो जाती है तो उन 300 आदमियों की लिस्ट फिर सरकार से मांगी जाएगी। अमेरिका की पाकिस्तान में बची खुची छवि तार-तार हो जाएगी, लोग अमेरिकी दूतावास पर पथराव करेंगे और अमेरिका का पाकिस्तान में जमे रहना मुहाल हो जाएगा। जाहिर है अमेरिका अंतिम वक्त तक कोशिश करेगा कि जजों की बहाली न हो-भले ही इसके लिए सीआईए को बड़े पैमाने पर खून-खरावा ही क्यो न करवाना पड़े।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है-जरदारी भले ही पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हों, वो जमीन के नेता नहीं है। अव्वल तो बनजीर की हत्या के बाद उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई है, दूसरी बात ये कि पाकिस्तानी समाज का क्षेत्रीय अतर्विरोध ऐसा है जिसमे पंजाबी समुदाय इतना उदार नहीं है कि किसी सिंधी को ज्यादा दिन तक सत्ता में बर्दाश्त कर सके। ये अलग बात है कि समय-समय पर गैर-पंजाबी हुक्मरान भी पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज रहें है लेकिन प्रभावी सत्ता पंजाबियों के पास ही रही है। और यहीं वो बिन्दु है जहां नवाज शरीफ, जरदारी पर भारी पर जाते हैं। देखा जाए तो पिछले दिनो जितने भी सियासी नाटक पाकिस्तान में हुए हैं उसमें मुद्दे की लड़ाई नवाज ने ही लड़ी है-चाहे वो लोकतंत्र की बात हो, मुशर्रफ को हटाना हो या जजों की बहाली हो। जरदारी तो मुशर्रफ के पिछलग्गू ही दिखे हैं और उन्होने यथास्थिति ही कायम रखने का प्रयास किया है। और इसीलिए तो मुशर्रफ ने बेनजीर को पाकिस्तान आने भी दिया था ताकि सत्ता का हस्तांतरण बिना विवाद के हो जाए। लेकिन अब के हालात में नवाज नहीं चाहेंगे कि गिलानी सरकार एक दिन भी कायम रहे-क्योंकि नए चुनाव में उनकी पार्टी को जाहिरन ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।
यहां एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि पाकिस्तानी सेना..वहां की राजनीति में एक बड़ी ताकत है। जब मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद छोड़ने के मजबूर किया गया तो बड़ी चालाकी से ऐसे आदमी को कमान सौंपी गई जो अमेरिका के साथ-साथ बेनजीर भुट्टो का भी करीबी था। जनरल कयानी वहीं आदमी है जो बेनजीर के प्रधानमंत्री रहते उनके सैन्य सलाहकार थे, साथ ही कयानी अमेरिका में सेनाधिकारियों के उस बैच में ट्रनिंग ले चुके हैं जिसमें कॉलिन पॉवेल हुआ करते थे। कयानी की तार अमेरिका और भुट्टो परिवार में गहरे जुडी है। अगर नवाज के राह में कोई बड़ा कांटा हो सकता है तो वो जनरल कयानी हो सकते हैं-ये बात ध्यान में रखनी होगी। अभी तक नवाज का जो क्रियाकलाप रहा है वो यहीं इशारा करता है कि वो जरदारी और मुशर्रफ को अपने रास्ते से हटाने के लिए कट्टरपंथियों से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे। इसके लिए वो जनता में अमेरिका विरोधी भावना का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे।
यहीं वो बात है जो भारत के लिए चिंता का सबब हो सकता है। भारत के हित की जहां तक बात है, जरदारी और अमेरिका समर्थक एक जनरल से 'डील' करना आसान है। कम से कम ऐसे लोग पाकिस्तान की कट्टरपंथियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, न ही जरदारी जैसे लोगों को पाकिस्तान के 'हितों' से बहुत सरोकार है। ये राजनीतिक बनिए हैं-लेकिन नवाज शरीफ जैसे नेता अपने आपको जनता की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानते हैं। गिलानी सरकार से समर्थन वापसी के बाद ऐसे हालात में अगर नवाज शरीफ किसी तरह से सत्ता मे आ जाते हैं तो ये कहना मुश्किल है कि क्या वो वहीं नवाज शरीफ होगें जिन्होने वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था...या वो पाकिस्तान की सनातन भारत विरोधी विचारों की अगुआई करने लगेंगे...?
5 comments:
अब देखिए ..... आगे आगे क्या होता है ?
वो तो होना ही था. पाकिस्तान का कोई भी शासक भारत विरोध के बगैर अपने यहाँ के विद्रोहों को शांत रख ही नहीं सकता. और शरीफ के लिए तो ये और भी जरुरी है ताकि वो अपने यहाँ के लोगों की निगाह भारत पर टिकाकर अपना आर्थिक हित आराम से पूरा कर सकते हैं. रही बात सबसे बड़े बढ़ा मुशर्रफ़ की तो उन्हें तो शरीफ ने बड़ी चतुराई से किनारे कर दिया...
ये तो होना ही था!!! सही लिखा है!
जिस देश का जन्म ही भारत विरोध और अलगाववाद की राजनीति पर हुआ हो वहां इससे ज्यादा अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। इस को रोकने के लिए कडी राजनीति की जरुरत है जिसमें भारत कभी कामयाब नहीं हो पाया है।
सुशांत भाई, आलेख अच्छा है लेकिन एक बात... भारत के लिए कौन अच्छा होगा ये बता दें। नेपाल में क्या प्रचंड भारत के पक्ष में हैं? श्रीलंका के लोग हमारा समर्थन करेगे? बांगलादेश ने कैसी उंगली की है ये तो आप जानते ही हैं। एक भूटान को छोड़ दें तो सारे पड़ोसी हमसे खार खाए बैठे हैं। दांतो के बीच ज़बान जैसी हैसियत है हमारी.. और एक बात अपना पीएम मनमोन है अपने साथ?
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