Thursday, August 28, 2008

बिहार में प्रलय...लेकिन क्या है उपाय?

बिहार में बाढ़ इस बार कयामत बनकर आयी है। ये वो बाढ़ नहीं है जो साल-दर साल आती थी और दस-पांच दिन रहकर चली जाती थी। इस बार नेपाल में कोसी नदी का पूर्वी तटबंध टूट गया और बिहार के आधा दर्जन से ज्यादा जिले पानी में डूब गए। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस बाढ़ से उबरने का कोई उपाय है या फिर बिहार के ये जिले काल के थपेड़ों से घायल होकर धीरे-धीरे बीरान बनते जाएंगे। इतिहासकारों का अनुमान है कि सिंधु घाटी सभ्यता के खत्म होने की एक वजह इसी तरह की कुछ बाढ़ थी जिससे एक उन्नत सभ्यता तबाह हो गई। बहुत पहले जनसत्ता में जल संरक्षण और नदियों के प्रख्याद जानकार अनुपम मिश्र का एक लेख पढ़ा था। प्रो मिश्र का कहना था कि हम नदियों पर बांध बनाकर जबर्दस्ती बाढ़ का समाधान नहीं निकाल सकते। हमें नदियों के साथ जीना सीखना होगा। हमें नदियों के पानी को बिना किसी छेड़छाड़ के पहाड़ से समंदर तक जाने देना होगा। अगर हमने इसमें बाधा डाली तो प्रकृति का कोप हमें झेलना ही होगा। और अगर गौर से देखें तो पिछले सौ सालों में यहीं हुआ है।

बाढ़ की सबसे बड़ी वजह है नदियों की सिल्टींग। जब तक नदियों की सिल्टींग नहीं हटाई जाएगी, बाढ़ पर प्रभावकारी ढ़ंग से रोक लगाना नामुमकिन है। इसकी वजह ये है कि जब-जब पानी को समंदर तक जाने में अवरोध पैदा हुआ है, उसका पानी किनारे में फैल जाता है। अगर देखा जाए सिल्टींग हटाना मुश्किल नहीं है और ये बिहार जैसे प्रान्त में बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकता है।खासकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस तरफ मोड़ा जा सकता है। दूसरी बात ये कि नदियों के किनारे सिल्ट का ऊंचा तटबंध सड़क बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और तमाम दूसरे तरह के उपयोगी कामों को करने के लिए किया जा सकता है।

बिहार से बहनेवाली नदियों का स्रोत नेपाल में है। और उस पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और उस पानी को नेपाल में रोका भी नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात ये कि अतीत में कभी नेपाल की तराई में और पहाड़ी ढ़लानों पर घने जंगल हुआ करते थे जिस वजह से पानी धीरे-धीरे बह कर मैदानों में आती थी। लेकिन पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के दौरान नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगल की लूट हुई है, साथ ही हमारे यहां भी आवादी बेतहाशा बढ़ी है। बिहार की सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती सिवाय केन्द्र पर दबाव देने के। हां, भारत सरकार नेपाल सरकार के साथ मिलकर छोटे-2 बांध बनाने के और वनीकरण की एक दीर्घकालीन नीति बना सकती है। इसके लिए हमें नेपाल में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने पड़ सकते हैं और दोनों देशों के हित के लिए आपसी विश्वास का माहौल बनाकर इसकाम को वाकई अंजाम दिया जा सकता है।

अहम बात ये भी है कि हमने छोटी-छोटी धाराओं को भरकर खेत और मकान बना लिए है। वो जमीन जो रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के नाम से दर्ज हैं, उसकी बड़े पैमाने पर लूट हुई है। हमें कड़े कानून बना कर उसे रोकना होगा। हमें पानी की छेड़छाड़ को जघन्य अपराध घोषित करना होगा। इधर, विकास की ऐसी योजनाएं बनी हैं जो पानी की धारा के बिपरीत है। उत्तर बिहार में जमीन का ढ़लान उत्तर से दक्षिण की तरफ है और दक्षिण बिहार में दक्षिण से उत्तर की तरफ, लेकिन कई ऐसी सड़के है जो पूरब से पश्चिम बनाई गई है और पानी के बहाव को रोकती है। मोकामा में टाल का इलाका शायद इन्ही कुछ वजहों से बना है जब पटना-कलकत्ता रेलवे लाईन ने पानी को गंगा की तरफ जाने में अवरोध पैदा किया।पानी कि निकासी के उपयुक्त रास्ते नहीं छोड़े गए। दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाईवे, दरभंगा-निर्मली रेलवे लाईन इसके कुछेक उदाहरण हैं-यहां ये बात कहने का मतलब विकास का विरोध नहीं है। हां, विकास ऐसा हो ताकि उसका प्रकृति के साथ तारतम्य हो।

दूसरी तरफ पिछले पचास साल में नदी परियोजनाओं में जो सरकारी लूट हुई है उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनना चाहिए। अतिरिक्त पानी को रोकने के लिए और सिंचाई के लिए कई नदी परियोजनाएं बनी है। लेकिन बिहार में उनमें से बहुत कम सफल हुई है। कोसी परियोजना की बात करें तो पश्चिमी कोसी नहर जो मेरे गांव के बीच से होकर गुजरती है-उसे 1983 में ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो आज तक पूरी नहीं हुई। शायद ये दुनिया के सबसे बड़े घोटालों में से एक है। मुझे लगता है कि अगर नदी परियोजनाओं को ही ठीक से लागू किया जाता तो बाढ़ की पूरी नहीं तो आधी समस्या का समाधान तो जरुर हो जाता। शायद अभी भी पूरी बर्बादी नहीं हुई है। इसबार के जलप्रलय ने हमें सोते से जगाया है। कुलमिलाकर जब तक बाढ़, राजनेताओं और जनता के एजेंडे में नहीं आएगा,तब तक इससे निजात पाना मुश्किल है।

Tuesday, August 26, 2008

भारत के लिए खतरनाक हो सकते हैं शरीफ़

नवाज शरीफ और जरदारी के गठबंधन टूटने की उम्मीद पहले से थी। मुशर्रफ के जाते ही दोनों की एकता ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। लेकिन अहम बात ये है कि गिलानी सरकार के गिरने से सबसे तगड़ा झटका अमेरिका को लगेगा। अमेरिका ने बड़ी होशियारी से मुशर्रफ के अलोकप्रिय होते जाने की सूरत में भुट्टो परिवार को पाकिस्तान की कमान सौंपने के लिए जमीन तैयार की थी जिसे पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका भांफ गया था। नतीजा बेनजीर की हत्या में सामने आया। हत्या के बाद अमेरिका ने जरदारी पर दांव लगाया, लेकिन शरीफ, जरदारी को तभीतक बर्दाश्त करते रहे जबतक की उनके राह से मुशर्रफ का कांटा दूर न हो गया। अब, जबकि शरीफ, जजों की बहाली के मामले पर अड़ गए और दूसरी तरफ जरदारी ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने नाम की उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मामला खतरनाक हो गया।
नवाज शरीफ जजों की बहाली इसलिए चाहते थे कि इससे उनके कई हित सधते थे। पहला तो ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन आते ही मुशर्रफ पर मुकदमा चलाते कि उन्होने 1973 के संविधान के साथ छेड़खानी की, जिसके लिए मौत की सजा तक का प्रावधान है।दूसरी बात ये थी कि जरदारी पर जो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे उसे मुशर्रफ ने एक विशेष आदेश के जरिए हटा दिया था। अगर चौधरी इफ्तिकार हुसैन बहाल हो जाते हैं और मुशर्ऱफ पर गैरकानूनी ढंग से सत्ता हथियाकर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगता है तो फिर जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जिंदा हो जाएंगे और उन के खिलाफ मुकदमे फिर खुल जाएंगे। तीसरी बात ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन ने उस मकदमें की भी सुनवाई की थी जिसके तहत मुशर्रफ सरकार ने 300 कट्टपंथियों को पकड़कर अमेरिकी खुफिया एजेंसी को सौंप दिया था।अगर चौधरी की फिर से बहाली हो जाती है तो उन 300 आदमियों की लिस्ट फिर सरकार से मांगी जाएगी। अमेरिका की पाकिस्तान में बची खुची छवि तार-तार हो जाएगी, लोग अमेरिकी दूतावास पर पथराव करेंगे और अमेरिका का पाकिस्तान में जमे रहना मुहाल हो जाएगा। जाहिर है अमेरिका अंतिम वक्त तक कोशिश करेगा कि जजों की बहाली न हो-भले ही इसके लिए सीआईए को बड़े पैमाने पर खून-खरावा ही क्यो न करवाना पड़े।

दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है-जरदारी भले ही पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हों, वो जमीन के नेता नहीं है। अव्वल तो बनजीर की हत्या के बाद उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई है, दूसरी बात ये कि पाकिस्तानी समाज का क्षेत्रीय अतर्विरोध ऐसा है जिसमे पंजाबी समुदाय इतना उदार नहीं है कि किसी सिंधी को ज्यादा दिन तक सत्ता में बर्दाश्त कर सके। ये अलग बात है कि समय-समय पर गैर-पंजाबी हुक्मरान भी पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज रहें है लेकिन प्रभावी सत्ता पंजाबियों के पास ही रही है। और यहीं वो बिन्दु है जहां नवाज शरीफ, जरदारी पर भारी पर जाते हैं। देखा जाए तो पिछले दिनो जितने भी सियासी नाटक पाकिस्तान में हुए हैं उसमें मुद्दे की लड़ाई नवाज ने ही लड़ी है-चाहे वो लोकतंत्र की बात हो, मुशर्रफ को हटाना हो या जजों की बहाली हो। जरदारी तो मुशर्रफ के पिछलग्गू ही दिखे हैं और उन्होने यथास्थिति ही कायम रखने का प्रयास किया है। और इसीलिए तो मुशर्रफ ने बेनजीर को पाकिस्तान आने भी दिया था ताकि सत्ता का हस्तांतरण बिना विवाद के हो जाए। लेकिन अब के हालात में नवाज नहीं चाहेंगे कि गिलानी सरकार एक दिन भी कायम रहे-क्योंकि नए चुनाव में उनकी पार्टी को जाहिरन ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।

यहां एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि पाकिस्तानी सेना..वहां की राजनीति में एक बड़ी ताकत है। जब मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद छोड़ने के मजबूर किया गया तो बड़ी चालाकी से ऐसे आदमी को कमान सौंपी गई जो अमेरिका के साथ-साथ बेनजीर भुट्टो का भी करीबी था। जनरल कयानी वहीं आदमी है जो बेनजीर के प्रधानमंत्री रहते उनके सैन्य सलाहकार थे, साथ ही कयानी अमेरिका में सेनाधिकारियों के उस बैच में ट्रनिंग ले चुके हैं जिसमें कॉलिन पॉवेल हुआ करते थे। कयानी की तार अमेरिका और भुट्टो परिवार में गहरे जुडी है। अगर नवाज के राह में कोई बड़ा कांटा हो सकता है तो वो जनरल कयानी हो सकते हैं-ये बात ध्यान में रखनी होगी। अभी तक नवाज का जो क्रियाकलाप रहा है वो यहीं इशारा करता है कि वो जरदारी और मुशर्रफ को अपने रास्ते से हटाने के लिए कट्टरपंथियों से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे। इसके लिए वो जनता में अमेरिका विरोधी भावना का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे।

यहीं वो बात है जो भारत के लिए चिंता का सबब हो सकता है। भारत के हित की जहां तक बात है, जरदारी और अमेरिका समर्थक एक जनरल से 'डील' करना आसान है। कम से कम ऐसे लोग पाकिस्तान की कट्टरपंथियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, न ही जरदारी जैसे लोगों को पाकिस्तान के 'हितों' से बहुत सरोकार है। ये राजनीतिक बनिए हैं-लेकिन नवाज शरीफ जैसे नेता अपने आपको जनता की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानते हैं। गिलानी सरकार से समर्थन वापसी के बाद ऐसे हालात में अगर नवाज शरीफ किसी तरह से सत्ता मे आ जाते हैं तो ये कहना मुश्किल है कि क्या वो वहीं नवाज शरीफ होगें जिन्होने वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था...या वो पाकिस्तान की सनातन भारत विरोधी विचारों की अगुआई करने लगेंगे...?

Tuesday, August 12, 2008

आईएसआई, मुशर्रफ और भारत

हाल ही में काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद बुश साहब ने कहा कि अगर आगे से आईएसआई की हरकत को काबू में नहीं किया गया तो पाकिस्तान को इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेगें। उधर पाक की नई सरकार अपना जड़ जमाने की भरपूर कोशिश कर ही रही थी, उसने इसे एक मौके के रुप में लपका और आनन फानन में आईएसआई को रक्षा मंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय में लाने की घोषणा कर दी। लेकिन आईएसआई की ताकत को भांफने में गिलानी साहब से थोड़ी चूक हो गई। वो उधर अमेरिका उड़े-खबर आई कि 'गड़बड़' हो गई हैं। तुरंत फैसले को रोलबैक कर दिया।

उधर, जान बचाने का मौका खोज रहे मुशर्रफ साहब ने मानो इसे आईएसआई की निगाहों में आने का एक और मौका समझा। तुरंत गोला दागा- आईएसआई तो पाकिस्तान की फर्स्ट लाईन ऑफ डिफेन्स है और इसे कमजोर करने की साजिश दुश्मनों ने रची है।लेकिन सेना है कि मुशर्रफ के पक्ष में खुल कर कुछ बोल नहीं रही है। वैसे भी सेना के मुखिया जनरल कयानी एक जमाने में भुट्टो परिवार के नजदीकी रहे हैं। ये बनजीर ही थी जिसने कयानी को अपना सैन्य सलाहकार बनाया था। उससे पहले कयानी साहब ने कॉलिन पावेल के साथ अमरीका में ट्रेनिंग भी ली थी । जाहिर है उनके तार अमरीका में भी गहरे जुडे़ हैं। ऐसे में अगर पीपीपी और पीएमएल उनके खिलाफ महाभियोग ला रही है तो सेना उनका कितना साथ देगी, कहना मुश्किल है।

इधर, अपने यहां नए सीबीआई डाईरेक्टर ने पद संभालते ही घोषणा कर दी कि दाऊद को दबोचना उनका मुख्य एजेंडा है। ये वहीं अश्वनी कुमार हैं जो अबू सलेम को पकड़ कर लाए थे। तो क्या कुमार को इस बात का पहले से एहसास था कि पाकिस्तान में कुछ खिचड़ी पकने वाली है। लोग कहते हैं कि अगर मुशर्रफ की बिदाई हुई तो फिर पहला काम आईएसआई का पर कतरना होगा-और ऐसी हालत में पाकिस्तान की सरकार अमरीकी दबाव में दाऊद को पकड़ कर भारत को सौंप देगी। वैसे भी ये गुडविल गेस्चर के लिए जरुरी है क्योंकि पाकिस्तान का ये भस्मासुर संस्थान काबुल और हिंदुस्तान में बम धमाके करवा कर काफी किरकिरी कर चुका है।

तो क्या ये माना जाए कि इन्ही बातों से ध्यान हटाने के लिए आईएसआई और सेना के कुछ कट्टरपंथियों ने हाल में पहले सीमा पर गड़बड़ी और बाद में घाटी में अमरनाथ मुद्दे को गरमाया है। जानकारों का कहना है कि आनेवाले दिनों में कुछ भी हो सकता है। सत्ता के सौदागर अपनी गद्दी बचाने के लिए दोनों देशों बीच जंग भी छेड़ सकते हैं।

Friday, August 8, 2008

शर्म तो करो मुफ्ती...

जम्मू-कश्मीर में मौजूदा आग मुफ्ती मोहम्मद सईद ने लगाई है। गौरतलब है कि ये वहीं मुफ्ती है जिसने पिछले दिनों पीडीपी-कांग्रेस की सरकार इस बात पर गिरा दी थी कि सरकार ने अमरनाथ यात्रियों के सुविधाओं के लिए 40 हेक्टेयर यानी तकरीबन100 एकड़ जमीन अमरनाथ श्राईन बोर्ड को क्यों बेच दी। मजे की बात ये कि उस सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी यानी पीडीपी भी शामिल थी और पीडीपी के मंत्री ने भी उस फैसले पर दस्तखत कये थे। लेकिन जब मुफ्ती ने देखा कि घाटी के कट्टरपंथी मुसलमान इस बात का विरोध कर रहे हैं तो आनन-फानन में अपना सुर बदल लिया। उसके बाद तो मुफ्ती और उनकी बेटी ने सारी सीमा ही पार कर दी। आप उनके बयानों को आतंकवादियों के बयानों से मिलाकर देखिये...थोड़ा नरम आंतकवादी ही दिखेंगे।

मुफ्ती को ये गवारा नहीं कि 100 एकड़ जमीन हिंदुओं के नाम की जाए। और इसे कश्मीरियत की हिफाजत का नाम दिया जा रहा है।एक दफा 90 के दशक के शुरुआत में भी कश्मीरियत की नई परिभाषा पंडितो को भगाकर लिखी गई थी। अब ये कश्मीरियत-2 है, जिसे दुनिया भर में बेचने की कोशिश की जा रही है। मजे की बात ये है कि खुद को अपेक्षाकृत सेकुलर कहनेवाली नेशनल कांफ्रेस भी इस बहती गंगा में हाथ धोना चाहती है। संसद में विश्वासमत के वक्त भाषण देते हुए यूं तो नेशनल कांफ्रेन्स के सदर उमर अब्दुल्ला के भावप्रणव भाषण की काफी तारीफ हुई, लेकिन उमर भी बोल रहे थे कि हम 'अपनी' जमीन के लिए लड़े।पता नहीं उनके 'अपनी' का क्या मतलब है।

दूसरी तरफ बात करें बात करें मुफ्ती की, तो मुफ्ती का इतिहास ही ऐसे कामों से भरा पड़ा है। मुफ्ती को कश्मीरियत का नाम लेते हुए तनिक भी शर्म नहीं आई-विशेषकर तब जब वो खुद बिहार के कटिहार से जीत कर संसद पहुंचे थे। मुफ्ती तो शक्ल से उदारपंथी दिखते हैं लेकिन उस चोले के पीछे एक कट्टर मौलाना छुपा हुआ है। याद कीजिए-मुफ्ती जब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तब उन्होने पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की मांग की थी। उस समय लगा कि यह आदमी दोनों देशों के बीच दोस्ती बढ़ाना चाहता है। बाद में उन्होने अातंकवादियों को छोड़ने में कुछ ज्यादा ही उदारता दिखा दी। अब तो ये भी शक होता है कि बीपी सिंह सरकार के समय उनकी बेटी का अपहरण कहीं नाटक तो नहीं था..?

बुधवार को जब प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई तो महबूबा ने क्या कहा जानते हैं आप ? महबूबा ने कहा कि अगर जम्मू हाईवे नहीं खोला गया तो हमें पाकिस्तान से सहायता लेने में कोई गुरेज नहीं। सब जानते हैं कि भारत सरकार प्राणपण से इस समस्या को सुलझाने में लगी हुई है और एक ऑल पार्टी डेलिगेशन भी शनिवार को जम्मू जानेवाला है। लेकिन मुफ्ती और उनकी बेटी को लगता है कि इसबार की जंग मानो कश्मीर की आजादी की ही जंग है।

उधर फारुख साहब भी कम नहीं। उनका कहना है कि अगर जम्मू में हिंदुओं ने आन्दोलन बंद नहीं किया तो वे अपने अब्बा जान की कब्र पर जा कर पूछेंगे कि क्या 1948 में उनका भारत के साथ रहने का फैसला सही था...??

लेकिन इस तमाम खेल में जो पार्टी सबसे फायदे में दिखती है वो बीजेपी है। बीजेपी को उम्मीद है कि इसका चुनावी लाभ उसे जरुर मिलेगा। और शायद संघ परिवार ये मान रहा है कि पिछले दो दशक में ऐसा पहली बार हुआ है कि अयोध्या आन्दोलन के बाद हिंदुओं ने किसी मुद्दे पर इतने आक्रामक ढ़ंग से एकजुटता दिखाई है। लेकिन इससे मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है?