टीवी पर कोबाद गांधी की खबर आ रही थी। आफिस में साथ करनेवाले एक मेरे मित्र ने उसे धोखे से राहुल गांधी समझ लिया। वजह ? वजह ये कि वो गांधी भी दून और लंदन में पढ़ा था। मतलब ये कि अधिकांश लोग यहीं सोचते हैं कि एक नक्सली दून और लंदन में कैसे पढ़ सकता है ? उसे तो फटेहाल या दीनहीन होना चाहिए। पेट की भूख ही किसी को नक्सली बना सकती है ! क्या वाकई ऐसा है?
विश्वदीपक मेरे मित्र है, एक टीवी चैनल में काम करते है। हमारी सप्ताहिक मुलाकातों में अक्सर इस विषय पर गंभीर बतकुट्टौवल होती है कि वाकई नक्सलवाद या अतिवामपंथ का हमारे देश में कोई भविष्य है। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि वामपंथ ही अप्रसांगिक हो गया है। इसकी वजह वे ये गिनाते हैं कि सोबियत ढ़ह गया, चीन बदल गया और अपने यहां बंगाल में उसका किला कमजोर पड़ गया है। तो क्या यहीं वामपंथ की प्रसांगिकता या परिभाषा है। विश्वदीपक कहता है कि अगर नक्सली समस्या पर हम दिल्ली के पाश इलाके के किसी फ्लैट में बहस कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि वो हमारे ड्राईंग रुम में घुस गया है।
ये तर्क मुझे परेशान कर देता है, लेकिन वाकई इस तर्क में दम है। उसका ये भी कहना है कि वो कौन सी वजहें है जिस वजह से अचानक ग्रामीण विकास मंत्रालय पिछले कुछ सालों में ‘एलीट’ मंत्रालय बन गया है, और राहुल गांधी ‘नरेगा’ की माला जप रहे हैं? इसकी ये वजह नहीं कि देश के संभ्रान्त शासक वर्ग का हृदय परिवर्तन हो गया है, बल्कि इसकी वजह दांतेवाड़ा और लातेहार की गरजती बंदूके हैं जिससे हिंदुस्तान का सत्ताधारी एलीट घवरा गया है। ये नक्सलवाद की पहली विजय है। वो दिल्ली की सत्ता पर भले ही कब्जा न कर सके लेकिन उसके संघर्षों ने लुटियंस जोन में बैठों शासकों को प्रतीकात्मक रुप से ही बदलने को जरुर मजबूर कर दिया है।
कुछ आंकड़ों पर गौर करने की जरुरत है। देश में पिछले 60 साल में साक्षरता बढ़ी है, आमदनी बढ़ी है, लोगों का जीवनस्तर बढ़ा है। ये आंकड़े खुशफहमी पैदा करते हैं। लेकिन सवाल को जरा पटल दीजिए। क्या पिछले साठ साल में सकल निरक्षरों की तादाद में कमी आई है ? क्या गरीबों की सकल तादाद में कमी आई है, भले ही फीसदी में कमी जरुर आ गई हो ? देश की एक बड़ी आबादी निरक्षर है, गरीबी रेखा से नीचे है और स्तरीय मानकों पर उसके जीवन जीनें की दूर-2 तक अभी कोई संभावना नहीं है। हालत इतनी खराब है कि देश के उद्योगपतियों को सिर्फ जीवनयापन की कीमत पर सस्ते मजदूर मिलते हैं और देश के कई अंबानी दुनिया के रईसों में शुमार हो गए हैं। वे इसलिए अमीर नहीं हुए कि उन्होने किसी इनोवेटिव उत्पाद का आविष्कार किया हो और दुनिया के बाजारों में भर दिया हो। ये नितांत सस्ते श्रम का मायाजाल है।
ऐसी हालत में अगर 70-80 करोड़ लोग एक स्तरहीन जिंदगी जी रहे हैं और गुस्सा, खींझ, बीमारी, कुपोषण और निरक्षरता की हालात में फंसे हैं तो क्या ये हालात नक्सलवादी आंदोलन के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया नहीं कराती ? गृहमंत्रालय के आंकड़े बता रहे हैं कि देश के तकरीबन एक चौथाई जिले माओवादियों के असर में है या उनका वहां कुछ प्रभाव है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री तक बार-बार चिंता जाहिर करते हैं कि माओबादी सबसे बड़ा खतरा है तो वे मजाक नहीं कर रहे होते-उनकी जुबान से एक अज्ञात भय झलकता है। वक्त आ गया है हम इस समस्या को वास्तविकता के स्तर पर झेंले न कि सिर्फ लफ्फाजी करके। अगर हम दून और लंदन में पढ़े हर आदमी को राहुल गांधी समझने की गलती करेंगे तो नक्सली वाकई राजधानी तक आ जाएंगे।
Thursday, September 24, 2009
Wednesday, September 23, 2009
कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...
रायबरेली के फिरोज भाई बड़े दिलदार इंसान हैं। वे गालिब से लेकर माईकेल जेक्सन तक की बात करते हैं। हाल ही में उन्होने एक हिंदी का एक गजल सुनायी। ये गजल इलाहाबाद में रहनेवाले उनके एक मित्र एहतेराम इस्लाम ने लिखी थी जिसे मैं अपने ब्लाग पर बांटने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा...
सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद सतोष की सीमाएं..
पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....
बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...
बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...
तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...
ये गजल कुछ वामपंथी तेवर लिए हुए है, लेकिन मौजूदा दौर में लोगों की छटपटाहट और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश को बखूबी बयां कर रही है। खासकर तब, जब गरीबों के लिए इंदिरा आवास की कीमत पचीस हजार रुपये आंकी जाती हो और देश के महानगरों में कोठियों की कीमत तीन सौ करोड़ तक पहुंच गई हो।
सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद सतोष की सीमाएं..
पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....
बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...
बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...
तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...
ये गजल कुछ वामपंथी तेवर लिए हुए है, लेकिन मौजूदा दौर में लोगों की छटपटाहट और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश को बखूबी बयां कर रही है। खासकर तब, जब गरीबों के लिए इंदिरा आवास की कीमत पचीस हजार रुपये आंकी जाती हो और देश के महानगरों में कोठियों की कीमत तीन सौ करोड़ तक पहुंच गई हो।
Tuesday, September 22, 2009
बिहार उपचुनाव के नतीजे और निहितार्थ
बिहार विधानसभा का हालिया उपचुनाव बहुत से लालबुझक्कड़ों के लिए नीतीश कुमार के अवसान का पैगाम लेकर आया। लेकिन लालू के चेहरे पर खुशी का अतिरेक नहीं था। लालू जानते हैं कि नीतीश, डैमेज कंट्रोल में माहिर है। इसलिए उन्होने गंभीरता से बयान दिया, कम से कम उनके चेहरे से यहीं लगा। हाल के दिनो में बिहार की जनता में ये मेसेज गया है कि नीतीश कुमार कुछ अहंकारी टाईप के हो गए है। हलांकि इस संदेश को फैलाने में जितनी विपक्ष की भूमिका नही थी उससे ज्यादा नीतीश के मंत्रियों की थी जिनका कहना था कि मुख्यमंत्री उपलब्ध ही नहीं होते। देखा जाए तो ये आरोप पूरी तरह से गलत भी नहीं है। नीतीश के समर्थकों का कहना है कि मंत्री और पार्टी के विधायक इसलिए नाराज है कि उन्हे मनमानी की छूट नही है। दूसरी तरफ विरोधियों का कहना है कि नीतीश ने सारे अधिकार अपने हाथ में रख लिए हैं। लेकिन जो भी हो अगर चुनाव किसी चीज का आईना है तो ये उपचुनाव ये साबित नहीं कर सकता कि नीतीश का जनाधार ढ़लान पर है क्योंकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की थी।
सबसे बड़ी बात ये कि ये चुनाव पटना की गद्दी के लिए नहीं था। इस चुनाव से मुख्यमंत्री का फैसला होनेवाला नही था। इसलिए स्थानीय स्तर के मुद्दे हावी हो गए और ये चुनाव पंचायत चुनाव सरीखा हो गया। ये बात लालू और पासवान भी जानते हैं कि साल भर बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में उनका मुकाबला एक व्यक्तित्व से कुशल प्रशासक बन गए नीतीश कुमार से होनेवाला है जिसके बरक्श जनता लालू-पासवान के 15 सालों की जुगलबंदी को तौलेगी।
ऊपर की पंक्तियां नीतीश कुमार का आनलाईन पीआर लग सकती है लेकिन जमीनी हकीकत यहीं है। नीतीश कुमार ने बिहार के समाजिक ‘ मेल्टिंग पाट’ में कई प्रयोग किये है। अतिपिछड़ों की गोलबंदी नीतीश के पक्ष में है(जिसकी आबादी करीब 38 फीसदी है) जबकि महादलितों के लिए कई योजनाएं बनाकर सरकार ने उन्हे अपने पक्ष में करने का कोशिश की है। लेकिन इसके नतीजे में कई जगहों पर कई मजबूत जातियों की जुगलबंदी और समीकरण पनप गए हैं जिस वजह से पिछले उपचुनाव में उनकी पार्टी को कई जगह पर नुकसान हुआ है। अतिपिछड़ाबाद और अति-महादलितवाद कई लोगों को नाराज भी कर गया है-ये बात नीतीश भी जानते हैं।
लेकिन उससे भी बड़ी बात ये कि जेडी-यू ने राजद के कई नेताओं को टिकट देकर अपने बनते हुए मजबूत वोट बैंक को नाराज कर दिया। श्याम रजक और रमई राम की हार तो यहीं कहानी कह रही है। तीसरी और अहम बात ये कि सरकार की दो समर्थक जातियां-ब्राह्मण और राजपूत- सरकार से नाराज दिखती हैं। ये नाराजगी पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त ही शुरु हुई थी-लेकिन अब जाकर आकार लेने लगी है। इसकी ऐतिहासिक-भौगोलिक वजहें भी हैं।
नीतीश कुमार से सरकारी कर्मचारी नाराज हैं। क्योंकि उन्होने हड़ताल का कड़ाई से सामना किया और काम का दवाब बढ़ गया हैं। भष्टाचार पर थोड़ा सा अंकुश लगा है, मास्टरजी को स्कूल जाना पड़ता है। इसकी वजह सिर्फ नीतीश कुमार नहीं है, केंद्र की तरफ से भी ढ़ेर सीरी योजनाओं के लिए ढ़ेर सारा पैसा आने लगा है-जिस वजह से कर्मचारियों को कम से कम आफिस में तो रहना ही पड़ता है।
ये सारी तस्वीरे क्या कहती है ? जनता को इन सब चीजों से कोई ऐतराज नहीं। वो उसके घाटे का सौदा नहीं। सामान्य तौर पर सूबे की कानून व्यवस्था ठीक हुई है, सड़के चमकने लगी है और गांवो में बिजली की तार दिखती है। लोगबाग नीतीश की आलोचना नहीं करते। एंटी इन्कम्बेंसी अभी तक नहीं है।
नीतीश, गलतियों को स्वीकार करने और उससे सबक सीखने में माहिर है। बड़ी बात ये कि जनता का बड़ा वर्ग उनके साथ है। ब्रांड नीतीश बहुत दिनों में बना है, वो इतने कम दिनों में खत्म नहीं हो सकता। इसलिए ये मानना कि उपचुनाव के नतीजे बिहार की जनता का लालू-पासवान के लिए मुहब्बत का पैगाम है-जल्दबाजी के सिवा कुछ नहीं। अगला चुनाव भी नीतीश बनाम अन्य ही होगा-जैसा बिहार में इससे पहले का दो चुनाव था। लालू बनाम अन्य तो अभी नहीं दिख रहा।
सबसे बड़ी बात ये कि ये चुनाव पटना की गद्दी के लिए नहीं था। इस चुनाव से मुख्यमंत्री का फैसला होनेवाला नही था। इसलिए स्थानीय स्तर के मुद्दे हावी हो गए और ये चुनाव पंचायत चुनाव सरीखा हो गया। ये बात लालू और पासवान भी जानते हैं कि साल भर बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में उनका मुकाबला एक व्यक्तित्व से कुशल प्रशासक बन गए नीतीश कुमार से होनेवाला है जिसके बरक्श जनता लालू-पासवान के 15 सालों की जुगलबंदी को तौलेगी।
ऊपर की पंक्तियां नीतीश कुमार का आनलाईन पीआर लग सकती है लेकिन जमीनी हकीकत यहीं है। नीतीश कुमार ने बिहार के समाजिक ‘ मेल्टिंग पाट’ में कई प्रयोग किये है। अतिपिछड़ों की गोलबंदी नीतीश के पक्ष में है(जिसकी आबादी करीब 38 फीसदी है) जबकि महादलितों के लिए कई योजनाएं बनाकर सरकार ने उन्हे अपने पक्ष में करने का कोशिश की है। लेकिन इसके नतीजे में कई जगहों पर कई मजबूत जातियों की जुगलबंदी और समीकरण पनप गए हैं जिस वजह से पिछले उपचुनाव में उनकी पार्टी को कई जगह पर नुकसान हुआ है। अतिपिछड़ाबाद और अति-महादलितवाद कई लोगों को नाराज भी कर गया है-ये बात नीतीश भी जानते हैं।
लेकिन उससे भी बड़ी बात ये कि जेडी-यू ने राजद के कई नेताओं को टिकट देकर अपने बनते हुए मजबूत वोट बैंक को नाराज कर दिया। श्याम रजक और रमई राम की हार तो यहीं कहानी कह रही है। तीसरी और अहम बात ये कि सरकार की दो समर्थक जातियां-ब्राह्मण और राजपूत- सरकार से नाराज दिखती हैं। ये नाराजगी पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त ही शुरु हुई थी-लेकिन अब जाकर आकार लेने लगी है। इसकी ऐतिहासिक-भौगोलिक वजहें भी हैं।
नीतीश कुमार से सरकारी कर्मचारी नाराज हैं। क्योंकि उन्होने हड़ताल का कड़ाई से सामना किया और काम का दवाब बढ़ गया हैं। भष्टाचार पर थोड़ा सा अंकुश लगा है, मास्टरजी को स्कूल जाना पड़ता है। इसकी वजह सिर्फ नीतीश कुमार नहीं है, केंद्र की तरफ से भी ढ़ेर सीरी योजनाओं के लिए ढ़ेर सारा पैसा आने लगा है-जिस वजह से कर्मचारियों को कम से कम आफिस में तो रहना ही पड़ता है।
ये सारी तस्वीरे क्या कहती है ? जनता को इन सब चीजों से कोई ऐतराज नहीं। वो उसके घाटे का सौदा नहीं। सामान्य तौर पर सूबे की कानून व्यवस्था ठीक हुई है, सड़के चमकने लगी है और गांवो में बिजली की तार दिखती है। लोगबाग नीतीश की आलोचना नहीं करते। एंटी इन्कम्बेंसी अभी तक नहीं है।
नीतीश, गलतियों को स्वीकार करने और उससे सबक सीखने में माहिर है। बड़ी बात ये कि जनता का बड़ा वर्ग उनके साथ है। ब्रांड नीतीश बहुत दिनों में बना है, वो इतने कम दिनों में खत्म नहीं हो सकता। इसलिए ये मानना कि उपचुनाव के नतीजे बिहार की जनता का लालू-पासवान के लिए मुहब्बत का पैगाम है-जल्दबाजी के सिवा कुछ नहीं। अगला चुनाव भी नीतीश बनाम अन्य ही होगा-जैसा बिहार में इससे पहले का दो चुनाव था। लालू बनाम अन्य तो अभी नहीं दिख रहा।
Friday, September 18, 2009
मोदी आज सठिया गए...
वैसे तो मोदी के कई फैसले पहले से ही इशारा कर रहे थे कि वे सठिया चुके हैं लेकिन आज अखबारों से पता चला कि वे वाकई सठिया गए हैं। वैसे सुना कि जब नेता सठियाता है तो क्रिकेट संस्थानों पर कब्जा कर लेता है। मोदी ये हाल ही में काम कर चुके हैं। लालू और पवार भी सठियाए थे तो उन्होने बिहार और देश स्तर के क्रिकेट संस्थाओं पर कब्जा कर लिया था।
वैसे एक थ्योरी ये भी है कि नेता सठियाता है तो दंगे करवाने लगता है। 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी सठियाए थे तो बाबरी-अयोध्या दंगा हुआ था। उससे भी पहले सुना कि आजादी से पहले एक बार जिन्ना सठियाए थे तो देश भर में यादगार दंगे हुए थे। उस हिसाब से मोदी बहुत पहले सठिया चुके हैं, वैसे सर्टिफिकेट पर आज सठियाए हैं।
बुजुर्गों का कहना है कि नेता जब सठिया जाता है तो वो संत किस्म का हो जाता है। सुना कि वो अपने पाप का घड़ा भरकर पूण्य लूटने निकल जाता है। जिन्ना भी पाकिस्तान के जन्म के बाद वहां कि नेशनल एसेंबली में उदारवादी भाषण देते हुए पाए गए। आडवाणी ने जिन्ना के मजार पर पर सजदा किया, लालू ने मांसाहार छोड़ दिया और पवार ने विदेशी मूल की महिला का विरोध करना छोड़ दिया। हो सकता है कि मोदी भी कुछ ऐसा ही करें। वैसे मोदी ने रतन टाटा से आशीर्वचन (नैनो) लेकर संत-त्व तरफ एक कदम बढ़ा ही दिया है। उनका अगला कदम देव-त्व की तरफ होगा जिसके लिए वे अपने वरिष्ठ आडवाणी की तरह बुजुर्ग नहीं होना चाहते।
वैसे एक थ्योरी ये भी है कि नेता सठियाता है तो दंगे करवाने लगता है। 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी सठियाए थे तो बाबरी-अयोध्या दंगा हुआ था। उससे भी पहले सुना कि आजादी से पहले एक बार जिन्ना सठियाए थे तो देश भर में यादगार दंगे हुए थे। उस हिसाब से मोदी बहुत पहले सठिया चुके हैं, वैसे सर्टिफिकेट पर आज सठियाए हैं।
बुजुर्गों का कहना है कि नेता जब सठिया जाता है तो वो संत किस्म का हो जाता है। सुना कि वो अपने पाप का घड़ा भरकर पूण्य लूटने निकल जाता है। जिन्ना भी पाकिस्तान के जन्म के बाद वहां कि नेशनल एसेंबली में उदारवादी भाषण देते हुए पाए गए। आडवाणी ने जिन्ना के मजार पर पर सजदा किया, लालू ने मांसाहार छोड़ दिया और पवार ने विदेशी मूल की महिला का विरोध करना छोड़ दिया। हो सकता है कि मोदी भी कुछ ऐसा ही करें। वैसे मोदी ने रतन टाटा से आशीर्वचन (नैनो) लेकर संत-त्व तरफ एक कदम बढ़ा ही दिया है। उनका अगला कदम देव-त्व की तरफ होगा जिसके लिए वे अपने वरिष्ठ आडवाणी की तरह बुजुर्ग नहीं होना चाहते।
Wednesday, September 16, 2009
एक सनसनी जो बनते-बनते रह गई...
“लाख अन्यायपूर्ण और अनुचित आलोचनाओं के बावजूद सोनिया गांधी ने जिस गरिमा और गंभीरता के साथ सत्ता की कामना का वलिदान किया वो अपने आप में एक मिसाल है। वो एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिज्ञ हैं जिन्हे ग्रामीण और शहरी संभ्रान्त वर्ग समान रुप से पसंद करता है। हमारे देश में ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होने महाद्वीपों, सभ्यताओं और भाषाओं के बंधन को इतनी आसानी से पार किया है और जिनको दुनिया गंभीरता से सुनती है। सोनिया गांधी का दिल हमेशा गरीबों, कमजोरों और सुविधाविहीन लोगों की भलाई के लिए धड़कता है”
पाठक इन शब्दों को पढ़कर परेशान या गुमराह न हों, न ही इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेसीकरण हो गया है। ये शब्द हैं इनफोसिस के अध्यक्ष नारायण मूर्ति के। अपने पाठकों की याददाश्त के लिए बताते चलें कि ये वहीं नारायण मूर्ति हैं जिनका नाम एक दौर में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए लंबे समय तक हवा में रहा था। माफ कीजिएगा, जरा हिंदी कठिन लिखी हुई है, क्योंकि ये पीटीआई की खबर का शब्दश: अनुवाद है जो नारायणमूर्ति की पांडित्यपूर्ण अंग्रेजी में दिया गया था। मौका था 15 सितंबर 2009 को मैसूर में इनफोसिस के दूसरे ग्लोबल एजुकेशन सेंटर के उद्धाटन का जो सोनिया गांधी के हाथों संपन्न हुआ था। लेकिन खबर ये नहीं है।
ठीक उसी दिन मैसूर से तकरीबन 2500 किलोमीटर उत्तर में पंजाब के शहर लुधियाना में सोनिया गांधी के बेटे और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी यूथ कांग्रेस के एक ट्रेंनिंग कैम्प का उद्धाटन करते हैं। इस कैम्प में य़ुवा कांग्रेसियों को चार दिन का ट्रेनिंग दिया जाना है कि तृणमूल जनता(ग्रासरुट मासेज) तक कैसे पहुंचा जाए और कांग्रेस को कैसे सत्ता की स्वभाविक पार्टी बनाए रखा जाए। इस कैम्प को साफ्ट स्किल का ट्रेंनिंग देने के लिए बंगलूरु से एक कंसलटेंसी को बुलाया जाता है जिसका नाम है- इस्टिट्यूट आफ लीडरशिप एंड इस्टिट्यूशनल डेवलपमेंट। इस फर्म के साईट पर जाएं तो पता चलता है कि इसके डाईरेक्टर का नाम है- डा जी के जयराम। डा जयराम इंफोसिस लीडरशिप इस्टिट्ट्यूट के प्रमुख रहे हैं। इस फर्म को एक ट्रस्ट चलाती है जिसकी एक ट्रस्टी है रोहिणी निलकेणी। रोहिणी निलकेणी, नंदन निलकेणी की पत्नी है। अब ये बताना कोई जरुरी नहीं है कि ये वहीं नंदन निलकेणी हैं जिन्हे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार ने अपने सबसे बड़ी महात्वाकांक्षी परियोजना यूनिक आईडेंटीफिकेशन कार्ड का अध्यक्ष बनाया हुआ है।
अब यहां दो अनुमान तो लगाए ही जा सकते हैं। अगर बीजेपी के धुरंधर, डा कलाम जैसे वैज्ञानिक को राष्ट्रपति बनाकर ‘सेक्युलर’ होने का भी तमगा हासिल कर सकते हैं तो भला कांग्रेस क्यों नहीं डा नारायण मूर्ति को राष्ट्रपति बनाकर अपना आधुनिकतावादी चेहरा दिखा सकती ? बिल्कुल दिखा सकती है, माना कि पिछले बार वाम एक महिला के नाम पर अड़ गया था-अब क्या परेशानी है ? नारायणमूर्ति ने अपने आपको निष्ठावान तो कमसे कम साबित कर ही दिया है !
इस खबर का मकसद न तो नारायण मूर्ति की पहुंच का मर्सिया पढ़ना है न ही उनकी गरिमा और अहमियत को ठेस पहुंचाना। इस खबर का मकसद सनसनीखेज पत्रकारिता करनेवाले भाई बंधुओं को आईना दिखाना है कि असल सनसनी तो यहां थी जिसमें वे चूक गए। खैर, हमारे देश में लकीर पीटने का भी रिवाज रहा है, सो वो अभी भी इस पर अमल कर सकते हैं।
पाठक इन शब्दों को पढ़कर परेशान या गुमराह न हों, न ही इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेसीकरण हो गया है। ये शब्द हैं इनफोसिस के अध्यक्ष नारायण मूर्ति के। अपने पाठकों की याददाश्त के लिए बताते चलें कि ये वहीं नारायण मूर्ति हैं जिनका नाम एक दौर में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए लंबे समय तक हवा में रहा था। माफ कीजिएगा, जरा हिंदी कठिन लिखी हुई है, क्योंकि ये पीटीआई की खबर का शब्दश: अनुवाद है जो नारायणमूर्ति की पांडित्यपूर्ण अंग्रेजी में दिया गया था। मौका था 15 सितंबर 2009 को मैसूर में इनफोसिस के दूसरे ग्लोबल एजुकेशन सेंटर के उद्धाटन का जो सोनिया गांधी के हाथों संपन्न हुआ था। लेकिन खबर ये नहीं है।
ठीक उसी दिन मैसूर से तकरीबन 2500 किलोमीटर उत्तर में पंजाब के शहर लुधियाना में सोनिया गांधी के बेटे और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी यूथ कांग्रेस के एक ट्रेंनिंग कैम्प का उद्धाटन करते हैं। इस कैम्प में य़ुवा कांग्रेसियों को चार दिन का ट्रेनिंग दिया जाना है कि तृणमूल जनता(ग्रासरुट मासेज) तक कैसे पहुंचा जाए और कांग्रेस को कैसे सत्ता की स्वभाविक पार्टी बनाए रखा जाए। इस कैम्प को साफ्ट स्किल का ट्रेंनिंग देने के लिए बंगलूरु से एक कंसलटेंसी को बुलाया जाता है जिसका नाम है- इस्टिट्यूट आफ लीडरशिप एंड इस्टिट्यूशनल डेवलपमेंट। इस फर्म के साईट पर जाएं तो पता चलता है कि इसके डाईरेक्टर का नाम है- डा जी के जयराम। डा जयराम इंफोसिस लीडरशिप इस्टिट्ट्यूट के प्रमुख रहे हैं। इस फर्म को एक ट्रस्ट चलाती है जिसकी एक ट्रस्टी है रोहिणी निलकेणी। रोहिणी निलकेणी, नंदन निलकेणी की पत्नी है। अब ये बताना कोई जरुरी नहीं है कि ये वहीं नंदन निलकेणी हैं जिन्हे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार ने अपने सबसे बड़ी महात्वाकांक्षी परियोजना यूनिक आईडेंटीफिकेशन कार्ड का अध्यक्ष बनाया हुआ है।
अब यहां दो अनुमान तो लगाए ही जा सकते हैं। अगर बीजेपी के धुरंधर, डा कलाम जैसे वैज्ञानिक को राष्ट्रपति बनाकर ‘सेक्युलर’ होने का भी तमगा हासिल कर सकते हैं तो भला कांग्रेस क्यों नहीं डा नारायण मूर्ति को राष्ट्रपति बनाकर अपना आधुनिकतावादी चेहरा दिखा सकती ? बिल्कुल दिखा सकती है, माना कि पिछले बार वाम एक महिला के नाम पर अड़ गया था-अब क्या परेशानी है ? नारायणमूर्ति ने अपने आपको निष्ठावान तो कमसे कम साबित कर ही दिया है !
इस खबर का मकसद न तो नारायण मूर्ति की पहुंच का मर्सिया पढ़ना है न ही उनकी गरिमा और अहमियत को ठेस पहुंचाना। इस खबर का मकसद सनसनीखेज पत्रकारिता करनेवाले भाई बंधुओं को आईना दिखाना है कि असल सनसनी तो यहां थी जिसमें वे चूक गए। खैर, हमारे देश में लकीर पीटने का भी रिवाज रहा है, सो वो अभी भी इस पर अमल कर सकते हैं।
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