Tuesday, September 22, 2009

बिहार उपचुनाव के नतीजे और निहितार्थ


बिहार विधानसभा का हालिया उपचुनाव बहुत से लालबुझक्कड़ों के लिए नीतीश कुमार के अवसान का पैगाम लेकर आया। लेकिन लालू के चेहरे पर खुशी का अतिरेक नहीं था। लालू जानते हैं कि नीतीश, डैमेज कंट्रोल में माहिर है। इसलिए उन्होने गंभीरता से बयान दिया, कम से कम उनके चेहरे से यहीं लगा। हाल के दिनो में बिहार की जनता में ये मेसेज गया है कि नीतीश कुमार कुछ अहंकारी टाईप के हो गए है। हलांकि इस संदेश को फैलाने में जितनी विपक्ष की भूमिका नही थी उससे ज्यादा नीतीश के मंत्रियों की थी जिनका कहना था कि मुख्यमंत्री उपलब्ध ही नहीं होते। देखा जाए तो ये आरोप पूरी तरह से गलत भी नहीं है। नीतीश के समर्थकों का कहना है कि मंत्री और पार्टी के विधायक इसलिए नाराज है कि उन्हे मनमानी की छूट नही है। दूसरी तरफ विरोधियों का कहना है कि नीतीश ने सारे अधिकार अपने हाथ में रख लिए हैं। लेकिन जो भी हो अगर चुनाव किसी चीज का आईना है तो ये उपचुनाव ये साबित नहीं कर सकता कि नीतीश का जनाधार ढ़लान पर है क्योंकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की थी।

सबसे बड़ी बात ये कि ये चुनाव पटना की गद्दी के लिए नहीं था। इस चुनाव से मुख्यमंत्री का फैसला होनेवाला नही था। इसलिए स्थानीय स्तर के मुद्दे हावी हो गए और ये चुनाव पंचायत चुनाव सरीखा हो गया। ये बात लालू और पासवान भी जानते हैं कि साल भर बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में उनका मुकाबला एक व्यक्तित्व से कुशल प्रशासक बन गए नीतीश कुमार से होनेवाला है जिसके बरक्श जनता लालू-पासवान के 15 सालों की जुगलबंदी को तौलेगी।

ऊपर की पंक्तियां नीतीश कुमार का आनलाईन पीआर लग सकती है लेकिन जमीनी हकीकत यहीं है। नीतीश कुमार ने बिहार के समाजिक ‘ मेल्टिंग पाट’ में कई प्रयोग किये है। अतिपिछड़ों की गोलबंदी नीतीश के पक्ष में है(जिसकी आबादी करीब 38 फीसदी है) जबकि महादलितों के लिए कई योजनाएं बनाकर सरकार ने उन्हे अपने पक्ष में करने का कोशिश की है। लेकिन इसके नतीजे में कई जगहों पर कई मजबूत जातियों की जुगलबंदी और समीकरण पनप गए हैं जिस वजह से पिछले उपचुनाव में उनकी पार्टी को कई जगह पर नुकसान हुआ है। अतिपिछड़ाबाद और अति-महादलितवाद कई लोगों को नाराज भी कर गया है-ये बात नीतीश भी जानते हैं।

लेकिन उससे भी बड़ी बात ये कि जेडी-यू ने राजद के कई नेताओं को टिकट देकर अपने बनते हुए मजबूत वोट बैंक को नाराज कर दिया। श्याम रजक और रमई राम की हार तो यहीं कहानी कह रही है। तीसरी और अहम बात ये कि सरकार की दो समर्थक जातियां-ब्राह्मण और राजपूत- सरकार से नाराज दिखती हैं। ये नाराजगी पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त ही शुरु हुई थी-लेकिन अब जाकर आकार लेने लगी है। इसकी ऐतिहासिक-भौगोलिक वजहें भी हैं।

नीतीश कुमार से सरकारी कर्मचारी नाराज हैं। क्योंकि उन्होने हड़ताल का कड़ाई से सामना किया और काम का दवाब बढ़ गया हैं। भष्टाचार पर थोड़ा सा अंकुश लगा है, मास्टरजी को स्कूल जाना पड़ता है। इसकी वजह सिर्फ नीतीश कुमार नहीं है, केंद्र की तरफ से भी ढ़ेर सीरी योजनाओं के लिए ढ़ेर सारा पैसा आने लगा है-जिस वजह से कर्मचारियों को कम से कम आफिस में तो रहना ही पड़ता है।

ये सारी तस्वीरे क्या कहती है ? जनता को इन सब चीजों से कोई ऐतराज नहीं। वो उसके घाटे का सौदा नहीं। सामान्य तौर पर सूबे की कानून व्यवस्था ठीक हुई है, सड़के चमकने लगी है और गांवो में बिजली की तार दिखती है। लोगबाग नीतीश की आलोचना नहीं करते। एंटी इन्कम्बेंसी अभी तक नहीं है।

नीतीश, गलतियों को स्वीकार करने और उससे सबक सीखने में माहिर है। बड़ी बात ये कि जनता का बड़ा वर्ग उनके साथ है। ब्रांड नीतीश बहुत दिनों में बना है, वो इतने कम दिनों में खत्म नहीं हो सकता। इसलिए ये मानना कि उपचुनाव के नतीजे बिहार की जनता का लालू-पासवान के लिए मुहब्बत का पैगाम है-जल्दबाजी के सिवा कुछ नहीं। अगला चुनाव भी नीतीश बनाम अन्य ही होगा-जैसा बिहार में इससे पहले का दो चुनाव था। लालू बनाम अन्य तो अभी नहीं दिख रहा।