पटना में लालू प्रसाद नामका एक नेता मुख्यमंत्री बन चुका था और पिछड़ों में उन्हें लेकर एक उन्माद के हद तक आशावादिता थी। बिहार के सवर्ण उस दौर में सार्वजनिक स्थलों पर विवादों से बचने की भरसकर कोशिश करते थे। खाते- पीते लोगों ने बड़े पैमाने पर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए दिल्ली भेजना शुरु कर दिया था। बाबरी मस्जिद उस एक तबके के लिए बड़ा आश्वासन बनकर आया था जब उसे लगा कि इस बहाने कम से कम वो अपने आपको अलग-थलग होने से बचा सकता था। बाबरी ध्वंश के बाद मेरे सूबे में दंगे नहीं हुए थे, यूं तनाव जरुर था। इस दंगे के न होने में एक बड़ी भूमिका लालू प्रसाद की जरुर थी जिन्होंने पिछड़ों और दलितों को बहकने नहीं दिया था। यूं, इससे पहले बिहार, भागलपुर और सीतामढ़ी का कुख्यात दंगा झेल चुका था। लेकिन बाबरी ध्वंश के बाद ऐसी बात नहीं हुई। दो महीना बाद भोपाल से मेरे चचेरे भाई आए थे तो बिहार में आए पिछड़ा उभार पर मर्सिया गाने के बाद भोपाल में हुए हिंदू-मुस्लिम झगड़े पर जरुर सीना चौड़ी कर रहे थे।
ये वहीं दौर था जब बिहार- या यूं कहें कि पूरे उत्तर भारत- का पूरा का पूरा सवर्ण तबका कांग्रेस का दामन छोड़कर बीजेपी का मुरीद होने लगा था। उस वक्त अखबारों में नरसिंम्हा राव की तस्वीर ऐसे छपती थी जैसे वे आज के कलमाड़ी हों। वाजपेयी ने एक तबके में अपनी जगह बनानी शुरु कर दी थी। उसके बाद हम पटना आ गए थे और पढ़ाई लिखाई में व्यस्त होते गए। जब-जब बीजेपी उफान पर होती तो हमें लगता कि लालू का काट सामने आ रहा है।
वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो लोगों खासकर सवर्णों और कट्टरपंथी किस्म के हिंदिओं में उसी तरह की खुशी हुई थी जब बाबरी ढ़हाई गई थी। कुछ उदारपंथी किस्म के लोगों ने वाजपेयी में एक आश्वासन जरुर देखा था। वाजपेयी सरकार ने जब परमाणु परीक्षण करने का फैसला लिया तो लोगों ने इसे एक तरह के हिंदु उभार से कम नहीं देखा था। लेकिन बीजेपी के कोर वोटरों में तब निराशा होने लगी तब बीजेपी की सरकार ने गठबंधन को बचाने के लिए राममंदिर को किनारे करना शुरु कर दिया। इसके उलट उन वोटरों ने जब प्रमोद महाजनों, अरुण शौरियों-जेटलियों को कारोबारियों के समर्थकों की भूमिका में देखा तो शायद उन्हें लगा कि बीजेपी को तो उन्होंने इसके लिए वोट किया ही नहीं था। साल 2004 आते-आते बीजेपी विकास के नाम पर इंडिया शाईनिंग का नारा भले ही गढ़ बैठी लेकिन उसके कोर समर्थकों में कोई उत्साह बाकी नहीं था। पार्टी औंधे मुंह गिरी। लगा कि कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क ही नहीं है।
ऊपर की व्याख्या जरुर दक्षिणपंथी किस्म की लग सकती है लेकिन ये मेरे जैसे इंसान का नितांत निजी अनुभव है जो खास सामाजिक परिस्थियों में पले-बढ़े होने की वजह पैदा हुआ था।
ऊपर की व्याख्या जरुर दक्षिणपंथी किस्म की लग सकती है लेकिन ये मेरे जैसे इंसान का नितांत निजी अनुभव है जो खास सामाजिक परिस्थियों में पले-बढ़े होने की वजह पैदा हुआ था।
वाजपेयी सरकार के मध्याह्न काल तक हिंदुओं के एक वर्ग में जो उम्मीद बाकी थी वो साल 2010 तक आते-आते बिल्कुल खत्म हो चुकी है। अब जमीन पर कोई तनाव नहीं है। यूं, ये एक ऐसा मसला जरुर है जो काफी संवेदनशील है और कुछ भी भविष्यवाणी करना खतरनाक है। लेकिन साल 2010 तक आते-आते लगभग पूरा का पूरा राजनीतिक और समाजिक तबका इस बात का लगभग मुरीद हो चुका है कि जो होगा वो अब अदालत के फैसले से ही होगा।
मुझे अपनी दादी की बात याद आती है। वो एक धार्मिक महिला थी जो रह-रह कर प्रयाग, बनारस, मथुरा-बृंदावन और जगन्नाथजी की चर्चा करती थी। लेकिन अयोध्या का जिक्र उसमें शायद ही आता था। पता नहीं या मेरी दादी की ही बात थी या शायद मेरे पूरे इलाके में ही ऐसी बात थी। अयोध्या को लेकर कभी कोई फेसिनेशन नहीं था। कुछ बुजुर्ग कहते हैं कि मिथिला के लोगों में वैसे भी अयोध्या को लेकर कोई बहुत लगाव नहीं था जहां सीता के साथ ऐसा बुरा बर्ताव हुआ था ! यहां मैं थोड़ा क्षेत्रीय हो रहा हूं। पता नहीं मामला क्या है। बाबरी जब ध्वंश हुआ था तो ऐसा लगता है कि मेरे गांव के लोगों में खासकर ब्राह्मणों में वो तात्कालिक उन्माद ही था जो लालू यादव के गद्दीनशीं होने की स्थिति में खुशी का कोई क्षण खोजने के लिए भी आया था। बाद में सारी बातें हवा हो गई। आज मेरे गांव में लोग उसी तरह उदासीन है। कुछ लोग जो उत्साहित लगते हैं वे शहरों में ही लगते हैं जहां टीवी चैनल और मीडिया के दूसरे माध्यम उन्हें रह-रह कर इस बात की याद दिला ही देते हैं।
अपने देश में दलितों का मसला अंबेदकर और गांधी ने मिल-बैठकर सुलझाया था। पिछड़ा आरक्षण का मसला संसद और अदालत ने सुलझाया था। पता नहीं अयोध्या का क्या होगा। लोग तो कह रहे हैं कि अदालत का फैसला मान लेंगे। अच्छी बात है। लेकिन अगर समाजिक रुप से सर्वसम्मत फैसला हो तो शायद हल और भी मजबूत हो। लेकिन दिक्कत ये है कि गांधी और अंबेदकर जैसे कद्दावर हमारे बीच फिलहाल तो नहीं है। फिर भी हम उम्मीद क्यों छोड़ें ?
मुझे अपनी दादी की बात याद आती है। वो एक धार्मिक महिला थी जो रह-रह कर प्रयाग, बनारस, मथुरा-बृंदावन और जगन्नाथजी की चर्चा करती थी। लेकिन अयोध्या का जिक्र उसमें शायद ही आता था। पता नहीं या मेरी दादी की ही बात थी या शायद मेरे पूरे इलाके में ही ऐसी बात थी। अयोध्या को लेकर कभी कोई फेसिनेशन नहीं था। कुछ बुजुर्ग कहते हैं कि मिथिला के लोगों में वैसे भी अयोध्या को लेकर कोई बहुत लगाव नहीं था जहां सीता के साथ ऐसा बुरा बर्ताव हुआ था ! यहां मैं थोड़ा क्षेत्रीय हो रहा हूं। पता नहीं मामला क्या है। बाबरी जब ध्वंश हुआ था तो ऐसा लगता है कि मेरे गांव के लोगों में खासकर ब्राह्मणों में वो तात्कालिक उन्माद ही था जो लालू यादव के गद्दीनशीं होने की स्थिति में खुशी का कोई क्षण खोजने के लिए भी आया था। बाद में सारी बातें हवा हो गई। आज मेरे गांव में लोग उसी तरह उदासीन है। कुछ लोग जो उत्साहित लगते हैं वे शहरों में ही लगते हैं जहां टीवी चैनल और मीडिया के दूसरे माध्यम उन्हें रह-रह कर इस बात की याद दिला ही देते हैं।
अपने देश में दलितों का मसला अंबेदकर और गांधी ने मिल-बैठकर सुलझाया था। पिछड़ा आरक्षण का मसला संसद और अदालत ने सुलझाया था। पता नहीं अयोध्या का क्या होगा। लोग तो कह रहे हैं कि अदालत का फैसला मान लेंगे। अच्छी बात है। लेकिन अगर समाजिक रुप से सर्वसम्मत फैसला हो तो शायद हल और भी मजबूत हो। लेकिन दिक्कत ये है कि गांधी और अंबेदकर जैसे कद्दावर हमारे बीच फिलहाल तो नहीं है। फिर भी हम उम्मीद क्यों छोड़ें ?
5 comments:
nice memory to cherish
सुन्दर व विमर्श पूर्ण लेखन सुशान्त जी!
बहुत विस्तार से लिखा है आपने अच्छा लगा ।
बिगड़ी फ़िजां मे सीधी बात सुन्दर लेख
Hi sushant kar bar ki tarah tumne ek sasakt lekh lika hai. keep it up
Post a Comment