अभिषेक पुष्करिणी की दाईं तरफ वैशाली म्यूजियम, सरकारी
इस्पेक्शन बंग्लो और बुद्ध के अस्थि स्तूप हैं लेकिन उस दिन म्यूजियम बंद था और
लोगों ने कहा कि वहां देखने को बहुत कुछ है भी नहीं। सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो दूर
से ही चमक रहा था और ऐसा लग रहा था कि अधिकारियों ने अपने रहने-खाने का शानदार
इंतजाम किया था।
हम वहां से बुद्ध के अस्थि स्तूप देखने गए जिसे
अपेक्षाकृत ठीकठाक तरीके से संरक्षित किया गया है। दसेक एकड़ जमीन को दीवारों से
घेर दिया गया था और पुरातत्व विभाग ने नाम पट्टिका लगा रखी थी। अंदर मैदान में
रंग-बिरंगे फूल खिले था जहां पचास के करीब देशी-विदेशी पर्यटक थे। मजे की बात ये
उस जगह के बारे में तो कि नाम पट्टिका थोड़ा भीतर लगाई गई थी, लेकिन आदेशात्मक
लहजे में ‘क्या
करें और क्या नहीं करें’ कई
जगह लिखा हुआ था। ऐसा वैशाली में कई जगह मिला। पता नहीं पुरातत्व विभाग इतना
गुरुत्व का भाव क्यों पाले हुआ था।
बुद्ध की अस्थि जहां रखी हुई थी उस जगह को लोहे से घेर
कर स्तूपनुमा बना दिया गया था। ऊपर एस्बेस्टस या टीन की छत थी। बीच में पत्थर की
आकृति थी और हमें बताया गया कि बुद्ध के अस्थि अवशेष के कुछ अंश यहां जमीन के अंदर
रखे गए थे। बौद्ध श्रद्धालू उस जगह की परिक्रमा कर रहे थे। वहां हमें एक बौद्ध
भिक्षु भंते
बुद्धवरण मिले जो तफ्सील से लोगों को उस जगह के बारे में बता रहे थे।
भंते बुद्धवरण ने हमें बताया, ‘अपनी मृत्यु(महापरिनिर्वाण) से पहले बुद्ध वैशाली आए थे
और उसके बाद वे कुशीनारा चले गए जहां उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनके
अस्थि अवशेष को आठ भागों में बांटा गया जिसका एक हिस्सा वैशाली गणतंत्र को मिला
था। वहीं वो अस्थि अवशेष है जिसे यहां रखा गया है और बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए यह
जगह अत्यंत ही पवित्र है।’
भंते बुद्धवरण से हमने पूछा कि वो कब से बौद्ध भिक्षु हैं? उनका
कहना था कि उनका जन्म नेपाल के लुंबिनी में(महात्मा बुद्ध का जन्मस्थल) हुआ था और
उनके माता-पिता भी बौद्ध थे। उसके बाद वहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हासिल
की और बाद में नालंदा चले आए। वहां उन्होंने पालि और बौद्ध साहित्य में डॉक्टरेट
की डिग्री हासिल की और एक बौद्ध भिक्षु का जीवन जी रहे हैं और जगह-जगह घूमते रहते
हैं। मैंने उनसे पूछा कि उनका खर्च कैसे चलता है? वे
मुस्कराने लगे। उनके चेहरे पर एक अपूर्व शांति थी। उन्होंने कहा, ‘बौद्ध भिक्षुओं का जीवन सदा से भिक्षा पर आधारित रहा
है। आप जैसे लोग कुछ न कुछ दे देते हैं जो जीवन जीने के लिए काफी होता है।’
बुद्ध के अस्थि स्तूप परिसर में काफी लोग हिमाचल प्रदेश
के भी मिले जो अपने आराध्य के स्थल को देखने आए थे। बाहर बौद्ध साहित्य, माला,
काष्ठ प्रतिमाएं और कैलेंडर बिक रहे थे। हम स्तूप से बाहर आए तो अभिषेक पुष्करिणी
के किनारे सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे बैठकर पूरी जलेबी और सब्जी का भोज
खा रहे थे। पता चला एक सरकारी स्कूल का ट्रिप है जिसे वैशाली घुमाने लाया गया है।
हमें ये तो पता था कि बिहार सरकार आजकल इस तरह का ट्रिप करवा रही है, लेकिन बच्चों
को पूरी जलेबी खिलाया जाता होगा, इसकी कल्पना नहीं थी !
हमने स्कूल के एक शिक्षक से पूछा तो उन्होंने कहा कि
सरकारी फंड तो पांच हजार का ही था, लेकिन शिक्षकों ने अपने वेतन से पैसा जमाकर बच्चों को ये ट्रिप करवाया जिसका कुल खर्च
करीब बीस हजार का आया था। सुनकर अच्छा लगा कि कुछ शिक्षकों में जरूर इतिहासबोध
बाकी है। बदलते बिहार का यह एक नमूना था।
3 comments:
ब्लॉग में थोड़ा तकनीकी सुधार हो, तो मस्त हो गया है मामला। बाकी, बुद्ध के चरणों के छाप वैशाली छोड़कर बाकी जगहों पर हमने खोज ही निकाला है। तुम्हारे विवरण वाकई बारीक होते जा रहे हैं, और तुम्हारी दृष्टि कथित पत्रकारों के बनिस्बत ज्यादा विस्तृत और व्यापक है।
धन्यवाद मंजीत। तुम्हारी प्रतिक्रियाएं हमेशा मेरा उत्साहवर्धन करती हैं।
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