लैंड बिल पर सरकार डिफेंसिव दिख रही है लेकिन मेरे हिसाब से एकाध संसोधनों के साथ यहीं बिल व्यवहारिक है। दरअसल जब लोग किसान की बात करते हैं तो कई बार नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं। देश में किसानों की बदहाली भूमि अधिग्रहण की वजह से नहीं है-बल्कि उपज का सही मूल्य न मिलने, जोत का आकार छोटा होने,उन्नत तकनीक न मिलने, सिंचाई और बिजली न मिलने की वजह से है। फैक्ट्री की वजह से कोई किसान गरीब नहीं होता, वो इस वजह से गरीब होता है कि पिछले 60 साल में उसकी तीन पीढियों को ठीक से पढाया नहीं गया और परिवार बढकर 44 लोगों का हो गया और जोत का आकार घट गया। वह इस वजह से गरीब होता है कि सरकार ने आसपास अस्पताल नहीं खोले और उसे दरभंगा या बनारस के डॉक्टरों ने घेरकर लूट लिया !
बात इस बिल की करें तो इस बिल में जिन पांच बिंदुओं में किसानों की सहमति न लेने की बात कही गई है उसमें सिर्फ एक पर या ज्यादा से ज्यादा डेढ पर मेरी आपत्ति है-वो भी स्पष्टता के संदर्भ में। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर खासतौर पर। मान लिया जाए कि पटना से दरभंगा इंडस्ट्रियल कॉरीडोर विकसित करने को मंजूरी दी जाती है( माफ करें संदर्भ हमेशा मैं अपने ही इलाके का सोच पाता हूं, रुस या पोलैंड जेहन में नहीं आता!) तो उस कॉरीडोर में अधिग्रहित जमीन सिर्फ सरकार उपयोग करेगी या कोई और? बाद में वह औने-पौने दाम पर औद्योगिक घरानों को तो नहीं दे देगी? तो यह एक नया SEZ टाइप मामला भी हो सकता है। सरकार को इस पर स्पष्टीकरण देने की जरूरत है।
बाकी, सुरक्षा, ग्रामीण विकास, सस्ते आवास और पीपीपी प्रोजेक्ट में आप चाहें तो पीपीपी पर आपत्ति कर लें और स्पष्टीकरण मांग ले। लेकिन पीपीपी प्रोजेक्ट भी अंतत: सरकार और समाज के लिए ही होते हैं-चाहे वो दिल्ली मेट्रो हो या कोई मेगा सड़क परियोजना। अगर अन्ना हजारे की बात मान ली जाए तो देश में नई सड़क और विद्यालय तो दूर की बात है, सरकार एक कुंआ तक नहीं खोद पाएगी और 'स्टेटस को' बना रह जाएगा।
अन्ना हजारे जो बात कर रहे हैं वो वैसी बात है कि जमीन पर किसानों का 'शाश्वत' या 'अध्यात्मिक' हक है। यह किसी पंचतंत्र की कहानी के वक्त सा लगता है, जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य में जमीन पर वास्तवकि हक 'स्टेट' का है जिसका नेतृत्व, एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है। गांधी और बिनोवा ने भी कहा था कि 'सभै भूमि गोपाल की'..यहां गोपाल का मतलब गाय चरानेवाला नहीं, गांधी का ईश्वर(या सामूहिक विवेक?) था और लोकतंत्र में 'सार्वभौम सत्ता' है। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि जमीन पर असली हक किसान का है और वो हक वो किसी कीमत पर उससे छीना नहीं जा सकता। कई बार यह बात तो परले दर्जे की पूंजीवादी सोच लगती है जिसमें जो मेरा है वो मेरा है-कोई छीन नहीं सकता। हालांकि मैं किसानों की तुलना पूंजीवादियों से यहां नहीं कर रहा।
अन्ना की बात अगर मान ली जाए तो कल को किसी चीनी हमले की सूरत में दरभंगा एयरपोर्ट में एक ईंच की बढोत्तरी नहीं की जा सकती क्योंकि वहां 70 फीसदी किसानों की सहमति चाहिए होगी ! उनकी बात अगर मान ली जाए तो मेरे गांव में सरकारी अस्पताल नहीं बन पाएगा जिसको नीतीश सरकार मंजूर कर चुकी है लेकिन उतने किसान जमीन देने को राजी नहीं है। मेरे गांव में तीन पगडंडियों को खडंजा सड़क बनाने की योजना नीतीश सरकार पास कर चुकी है लेकिन उसके लिए 1-1 किलोमीटर तक पगडंडी के दोनो तरफ 4-4 फीट जमीन लेनी होगी। अन्ना हजारे की चली तो मेरे गांव में कभी वो पगडंडी सड़क नहीं बन पाएगी-जिस वजह से बरसात के दिनों कई किसानों की पत्नियां प्रसव काल में दम तोड़ देती हैं।
दरअसल, किसानों को असली समस्या भूमि अधिग्रहण से नहीं-मुआवजा और पुनर्वास में भ्रष्टाचार में है। एक आकलन के अनुसार सन् 1947 से लेकर 1990 तक देश में करीब 3.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे जिनके पुनर्वास और मुआवजे में भारी गड़बड़ी हुई। बाद में भी गड़बड़ी हुई होगी, ये संदर्भ मुझे राम गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहीं मिले जिसका मैंने अनुवाद किया था। कुल मिलाकर कहें कि जनता का भरोसा सरकार पर कई कारणों से नहीं है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम 21वीं सदी में वक्त का पहिया रोक दें और वैदिक युग में प्रस्थान कर जाएं।
हालांकि इस बहस के अपने फायदे भी हैं। बहस इस पर होगी कि फिर उद्योगों के लिए जमीन कहां से आएगी? बहस का एक सिरा जनसंख्या विस्फोट की तरफ भी मुड़े कि शिक्षा बजट को बढाया जाए, लड़कियों के लिए ज्यादा मौके मुहैया करवाएं जाएं और जनसंख्या पर काबू पाया जाए।
एक प्रश्न है कि किसान एकमुश्त इतना पैसा लेकर करेंगे क्या? उन्हें शेयर बाजार में लगाना या फ्लैट खरीदना आता नहीं-उनका हाल वहीं होगा जो नोएडा वालों का हुआ। 10-12 साल में दारू पीकर फूंक देंगे। इसका उपाय ये है कि सरकार सिर्फ पैसा न दे, बल्कि परिवार में लोगों को सरकारी नौकरी भी दे। वह ज्यादा ठोस उपाय है।
सुना है कि सरकार के पास कोई बंजर जमीन को ठीक करने वाली योजना थी-पुराने जमाने से। लेकिन उसका मकसद सिर्फ खेती के लिए था। अब वक्त आ गया है कि देश के बंजर इलाकों में उद्योग के लिए माहौल बनाया जाए-हालांकि ये इतना आसान नहीं है। उसके लिए वहां बिजली और सबसे जरूरी पानी का इंतजाम करना होगा-जो कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं।
10. दरअसल हर बनिया, फरीदाबाद या नासिक के पास ही जमीन चाहता है। कोई भी भिंड मुरैना या जैसलमेर नहीं जाना चाहेगा। 21वीं सदी के हिंदुस्तान को इस पर भी सोचना होगा कि गंगा के मैदान में जहां आबादी ठुसी पड़ी है और बंगाल में कम्यूनिस्टों की खूंखार सरकार जमीन के प्रश्न पर धराशायी हो गई-वहां आखिर रास्ते क्या हैं?
लेकिन शिकारी उद्योगपतियों से इतर भी जमीन तो सरकार को चाहिए ही जन-कल्याण के लिए। ऐसे में सरकार का हाथ बिल्कुल रोक देना उचित नहीं है। बेहतर है कि सरकार इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर बात साफ कर दे, तो फिर भी यह बिल व्यावहारिकता के निकट है।
बात इस बिल की करें तो इस बिल में जिन पांच बिंदुओं में किसानों की सहमति न लेने की बात कही गई है उसमें सिर्फ एक पर या ज्यादा से ज्यादा डेढ पर मेरी आपत्ति है-वो भी स्पष्टता के संदर्भ में। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर खासतौर पर। मान लिया जाए कि पटना से दरभंगा इंडस्ट्रियल कॉरीडोर विकसित करने को मंजूरी दी जाती है( माफ करें संदर्भ हमेशा मैं अपने ही इलाके का सोच पाता हूं, रुस या पोलैंड जेहन में नहीं आता!) तो उस कॉरीडोर में अधिग्रहित जमीन सिर्फ सरकार उपयोग करेगी या कोई और? बाद में वह औने-पौने दाम पर औद्योगिक घरानों को तो नहीं दे देगी? तो यह एक नया SEZ टाइप मामला भी हो सकता है। सरकार को इस पर स्पष्टीकरण देने की जरूरत है।
बाकी, सुरक्षा, ग्रामीण विकास, सस्ते आवास और पीपीपी प्रोजेक्ट में आप चाहें तो पीपीपी पर आपत्ति कर लें और स्पष्टीकरण मांग ले। लेकिन पीपीपी प्रोजेक्ट भी अंतत: सरकार और समाज के लिए ही होते हैं-चाहे वो दिल्ली मेट्रो हो या कोई मेगा सड़क परियोजना। अगर अन्ना हजारे की बात मान ली जाए तो देश में नई सड़क और विद्यालय तो दूर की बात है, सरकार एक कुंआ तक नहीं खोद पाएगी और 'स्टेटस को' बना रह जाएगा।
अन्ना हजारे जो बात कर रहे हैं वो वैसी बात है कि जमीन पर किसानों का 'शाश्वत' या 'अध्यात्मिक' हक है। यह किसी पंचतंत्र की कहानी के वक्त सा लगता है, जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य में जमीन पर वास्तवकि हक 'स्टेट' का है जिसका नेतृत्व, एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है। गांधी और बिनोवा ने भी कहा था कि 'सभै भूमि गोपाल की'..यहां गोपाल का मतलब गाय चरानेवाला नहीं, गांधी का ईश्वर(या सामूहिक विवेक?) था और लोकतंत्र में 'सार्वभौम सत्ता' है। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि जमीन पर असली हक किसान का है और वो हक वो किसी कीमत पर उससे छीना नहीं जा सकता। कई बार यह बात तो परले दर्जे की पूंजीवादी सोच लगती है जिसमें जो मेरा है वो मेरा है-कोई छीन नहीं सकता। हालांकि मैं किसानों की तुलना पूंजीवादियों से यहां नहीं कर रहा।
अन्ना की बात अगर मान ली जाए तो कल को किसी चीनी हमले की सूरत में दरभंगा एयरपोर्ट में एक ईंच की बढोत्तरी नहीं की जा सकती क्योंकि वहां 70 फीसदी किसानों की सहमति चाहिए होगी ! उनकी बात अगर मान ली जाए तो मेरे गांव में सरकारी अस्पताल नहीं बन पाएगा जिसको नीतीश सरकार मंजूर कर चुकी है लेकिन उतने किसान जमीन देने को राजी नहीं है। मेरे गांव में तीन पगडंडियों को खडंजा सड़क बनाने की योजना नीतीश सरकार पास कर चुकी है लेकिन उसके लिए 1-1 किलोमीटर तक पगडंडी के दोनो तरफ 4-4 फीट जमीन लेनी होगी। अन्ना हजारे की चली तो मेरे गांव में कभी वो पगडंडी सड़क नहीं बन पाएगी-जिस वजह से बरसात के दिनों कई किसानों की पत्नियां प्रसव काल में दम तोड़ देती हैं।
दरअसल, किसानों को असली समस्या भूमि अधिग्रहण से नहीं-मुआवजा और पुनर्वास में भ्रष्टाचार में है। एक आकलन के अनुसार सन् 1947 से लेकर 1990 तक देश में करीब 3.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे जिनके पुनर्वास और मुआवजे में भारी गड़बड़ी हुई। बाद में भी गड़बड़ी हुई होगी, ये संदर्भ मुझे राम गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहीं मिले जिसका मैंने अनुवाद किया था। कुल मिलाकर कहें कि जनता का भरोसा सरकार पर कई कारणों से नहीं है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम 21वीं सदी में वक्त का पहिया रोक दें और वैदिक युग में प्रस्थान कर जाएं।
हालांकि इस बहस के अपने फायदे भी हैं। बहस इस पर होगी कि फिर उद्योगों के लिए जमीन कहां से आएगी? बहस का एक सिरा जनसंख्या विस्फोट की तरफ भी मुड़े कि शिक्षा बजट को बढाया जाए, लड़कियों के लिए ज्यादा मौके मुहैया करवाएं जाएं और जनसंख्या पर काबू पाया जाए।
एक प्रश्न है कि किसान एकमुश्त इतना पैसा लेकर करेंगे क्या? उन्हें शेयर बाजार में लगाना या फ्लैट खरीदना आता नहीं-उनका हाल वहीं होगा जो नोएडा वालों का हुआ। 10-12 साल में दारू पीकर फूंक देंगे। इसका उपाय ये है कि सरकार सिर्फ पैसा न दे, बल्कि परिवार में लोगों को सरकारी नौकरी भी दे। वह ज्यादा ठोस उपाय है।
सुना है कि सरकार के पास कोई बंजर जमीन को ठीक करने वाली योजना थी-पुराने जमाने से। लेकिन उसका मकसद सिर्फ खेती के लिए था। अब वक्त आ गया है कि देश के बंजर इलाकों में उद्योग के लिए माहौल बनाया जाए-हालांकि ये इतना आसान नहीं है। उसके लिए वहां बिजली और सबसे जरूरी पानी का इंतजाम करना होगा-जो कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं।
10. दरअसल हर बनिया, फरीदाबाद या नासिक के पास ही जमीन चाहता है। कोई भी भिंड मुरैना या जैसलमेर नहीं जाना चाहेगा। 21वीं सदी के हिंदुस्तान को इस पर भी सोचना होगा कि गंगा के मैदान में जहां आबादी ठुसी पड़ी है और बंगाल में कम्यूनिस्टों की खूंखार सरकार जमीन के प्रश्न पर धराशायी हो गई-वहां आखिर रास्ते क्या हैं?
लेकिन शिकारी उद्योगपतियों से इतर भी जमीन तो सरकार को चाहिए ही जन-कल्याण के लिए। ऐसे में सरकार का हाथ बिल्कुल रोक देना उचित नहीं है। बेहतर है कि सरकार इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर बात साफ कर दे, तो फिर भी यह बिल व्यावहारिकता के निकट है।
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