Monday, February 9, 2015

ठिठकी हुई दलित राजनीति के लिए ऐेसा झटका जरूरी है !

मांझी नेता नहीं हैं, प्रतीक भर हैं। लेकिन राजनीति में प्रतीक बड़े काम का होता है। कई बार प्रतीक ऐसा काम कर देता है जैसा बड़े-बड़े हाकिम नहीं कर पाते हैं। जैसे यूपी में जब पहली दफा मायावती आईँ थीं तो ET ने लिखा कि दलितों में बीए-एमए करने की होड़ लग गई। एक दशक में दलितों की साक्षरता दर पूरे देश के मुकाबले दोगुनी हो गई। मुझे याद है जब लालू यादव बिहार के CM बने तो मेरे कई यादव दोस्तों ने कहा कि वह सिर्फ इसलिए पढता है कि शायद उसकी शादी मीसा भारती से हो सकती है। शादी तो नहीं हुई, लेकिन ढेर सारे यादव ग्रेजुएट जरूर हो गए!
मांझी ने विद्रोह कर अच्छा किया। हार-जीत अलग बात है लेकिन उनका यह विद्रोह उनके समुदाय को अतिरिक्त ऊर्जा देगा। मैं सलमान खान होता तो कहता कि इस विद्रोह में एक 'किक' है! यह विद्रोह दलितों को भविष्य में बेहतर लडाई के लिए प्रेरित करेगा। 

बाबा साहेब ने जाति-विहीन राजनीति की बात की थी, दलित राजनेता दूसरों की तरह ही जाति से चिपकने लगे। हालांकि दलित राजनीति, मंडल राजनीति की तुलना में ज्यादा गतिशील है और प्रगतिशील भी। वह शून्य से शुरू होकर डिक्की तक पहुंची है। पहले उसमें सरकारी मध्यमवर्ग का जन्म हुआ, फिर उसने राजनीति पर दावा ठोका। इसके उलट पिछड़ों ने पहले राजनीति पर दावा ठोका,उसके बाद वहां मध्यमवर्ग पैदा होना शुरू हुआ। उस हिसाब से पिछड़ा राजनीति कूपमंडूक है और सिर्फ संख्याबल पर ही इतराती है। वह हमेशा क्षत्रिय बनने का ख्वाब देखती रहती है जैसे कोई हिंदी का लेखक अंग्रेजी में छपने का ख्वाब देखता रहता है। इस मामले में वह प्रयोगधर्मी नहीं है। दलित ज्यादा साहसी हैं, कम संख्या-बल पर भी उन्होंने अपने हिसाब से मोल-भाव किया है और जगह बनाई है।

भारत का दलित, पिछड़ों की आक्रामकता और सवर्णों की राजनीतिक कुशलता की वजह से बीजेपी की गोद में जा बैठा है। देखा जाए तो उस हिसाब से पिछड़ा वर्ग ज्यादा सनातन-वादी है। बाबा साहब ने कहीं लिखा है कि ये मंझोली जातियां ब्राह्मणों की समाजिक पुलिस है, जब सवर्ण गांव छोड़कर शहर में बस जाएंगे तो ये जातियां सवर्णों से भी ज्यादा आक्रामकता से दलितों पर हमला करेंगी। लगता है कि लिटरली तो नहीं लेकिन क्लासिकल रूप से ऐसा ही हो रहा है।

बाबा साहब ग्राम्य-व्यवस्था के भी एक हद तक आलोचक थे। उनके हिसाब से गांव दलितों का कब्रगाह है। आज की तारीख में वहां पर सवर्णों की जायदाद भी सुरक्षित नहीं है। यानी शहर दलितों के लिए गतिशीलता देता है और सवर्णों को तो मानो पंख ही दे देता है। तो गांव किसके लिए सुरक्षित है? पिछड़ो के लिए? शायद ये भी पूरा सच नहीं है। वे गांव में सुरक्षित रहकर भी क्या कर पाएंगे जहां विकास की धारा ही सूख गई है। गांधी ने अलग अर्थों में ग्राम-स्वराज्य की बात की थी। वह विकेंद्रीकरण का मॉडेल था। हूबहू गांव न सही तो छोटे-छोटे 100-500 कस्बे-शहर जिसकी बात मोदी भी कर रहे हैं। तो ऐसे में बापू का विकेंद्रीकरण और अम्बेदकर के नगरीय व्यवस्था की तरफ झुकाव को मिला दिया जाए तो दलितों का कुछ हो सकता है। 

लेकिन सावधान। कहीं ऐसा न हो कि गांव से उठकर शहरी दलित, मजदूर का मजदूर बना रह जाए। इसके लिए कौन उपाय करेगा? सरकार? वह सिर्फ हिंदी पढाएगी, कुछेक नौकरियां दे देगी। समाज? समाज तो दलितों के लिए उपेक्षा का भाव रखता है और नीतीश कुमार की तरह इस्तेमाल भी करता है। दलितों का समाज सक्षम नहीं है-जो सक्षम हैं वे नव-ब्राह्मण बन गए हैं ! ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनसे दलितों को और पूरे समाज को टकराना होगा और मांझी जैसे प्रकरण उन्हें बार-बार अपनी हकीकत की याद दिलाते रहेंगे।

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