रथ-यात्रा मानो राष्ट्रीय पर्व होता जा रहा है। मेरे गांव का बच्चा भी रथ-यात्रा की तस्वीरें मोबाइल से शेयर कर रहा है। आज से सौ साल पहले मेरे पुरखे सिर्फ रथयात्रा के बारे में सुना करते थे-उस जमाने में कोई-कोई जाता था जगन्नाथ पुरी।
हमारे इलाके के लोग सबसे ज्यादा बाबाधाम(देवघर), काशी और प्रयाग जाते थे। नजदीक भी था। खाते-पीते या सम्पन्न लोग ही जाते थे ‘जगरनाथ’(जगन्नाथपुरी को मैथिली में ऐसे ही बोलते थे)। मेरी दादी काशी, प्रयाग और जगरनाथ गई थी। ऐसा इसलिए कि उस समय तक रेलवे की सुविधा हो गई थी। दादी काशी, प्रयाग, मथुरा, जगरनाथ और रामेश्वरम का नाम ज्यादा लेती थी। अयोध्या का कम लेती थी। रामेश्वरम तो खैर बहुत दूर था, लेकिन उसे पता था कि मेरे गांव से करीब एक हजार कोस है!
इधर जब अंग्रेजी राज स्थापित हुआ, तो लोग कलकत्ता जाने लगे और वहां से जगन्नाथ पुरी जाने का प्रचलन बढ़ने लगा। मेरे पर-बाबा के समय तक हमारे इलाके में रेल लाइन बननी शुरू हो चुकी थी (करीब 1890 ), लेकिन वे शायद उस पर चढ़े नहीं थे। पूरे गांव से एकाध आदमी गया था जगन्नाथ पुरी। इसकी वजह थी कि बीच में झारखंड का विशाल जंगल था और जो लोग वहां जाते थे वे पहले अपना अंतिम संस्कार करवाकर जाते थे! क्योंकि जीवित लौटने की गारंटी नहीं थी।
जगन्नाथ पुरी मेरे गांव से करीब एक हजार किलोमीटर था/है। बीच में विशाल जंगल था, नदी-नाले, जानवर, पहाड़ और भाषाई विभिन्नता। फिर कैसे जाते होंगे लोग? पापा के दादा बताते थे कि अकेले कोई जाता नहीं था,दस-बीस के झुंड में जाते थे। देवघर तक तो नियमित संपर्क था। संस्कृत शिक्षा के लिए नवद्वीप से भी थोड़ा सा संबंध बना हुआ था। लेकिन नवद्वीप वाली बातें कम से कम तीन-चार सौ साल पुरानी होगी।
उस जमाने में आबादी कम थी, कई-कई कोस तक बस्तियां नहीं थीं, लेकिन पगडंडी बनी हुई थी और गांव वाले अगले 100-200 किलोमीटर का रास्ता बता देते थे। बीच-बीच में सराय बने हुए थे, व्यापारियों-राजाओं ने धर्मशालाएं बनवाईं थी या किसी साधु का आश्रम उनका डेरा बनता था। अमूमन तीर्थ-यात्रियों से लूटमार कम होती थी-लेकिन मुसलमानी राज कायम हो जाने के बाद अवाध तीर्थयात्राएं जरूर कम हो गई थीं। मुगलों के पतन के बाद तो अराजकता के समय पिंडारियों की लूटमार और बढ़ गई थी। लोग अपने खोल में समाने लगे थे। सिर्फ जीवट लोग यात्रा करते थे।
जगन्नाथ जी पहुंचने पर अन्य तीर्थ स्थलों की तरह ही वहां के पंडे, लोगों के रहने-खाने का इंतजाम करते। उनके पास लोगों की वंशावली होती, अपने-अपने इलाके होते। पंडों में आज की तरह लालच नहीं था, लोग जाते भी कम थे, साधन भी नहीं था। लेकिन लोग संवाद कैसे करते होंगे? मिथिला का अंगूठा छाप आदमी(या दो-चार जमात पढ़ा व्यक्ति) उड़ीसा के लोगों से कैसे संवाद करता होगा? किसी-किसी लाल बुझक्कड़ को फारसी आती थी या थोड़ी सी संस्कृत। उसी में संवाद होता था। यहां के लोग मैथिली बोलते थे, वहां का के लोग उड़िया। लेकिन दिल की बात एक दूसरे की समझ में आ जाती थी।
ऐसे में ‘जगरनाथ जी’ हमारे इलाके के लोगों की जातीय स्मृति में ही ज्यादातर सुरक्षित थे। बाबा जगरनाथ, राष्ट्रीय नहीं हुए थे। उनको टीवी, इंटरनेट ने अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। कहते हैं अंग्रेजी का ‘जॉगरनॉट’ शब्द भी जगन्नाथ रथ-यात्रा से ही प्रेरित है!
आज फेसबुक पर रथ-यात्रा की तस्वीरों की बाढ़ सी आई हुई है। इमानदारी से कहूं तो "कुछ लोग" ईद के जवाब में भी लगा रहे हैं-मानो हम किसी से कम नहीं हैं! कुछ लोग इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें "छद्म" कम्यूनिस्टों से चिढ़ है और वे मजा ले रहे हैं। मैंने खुद ही एक बधाई में कटाक्ष किया था, लेकिन मैंने उन्हें शिवरात्रि की बधाई की याद दिलाई थी-रथयात्रा की नहीं !
हमारे इलाके के लोग सबसे ज्यादा बाबाधाम(देवघर), काशी और प्रयाग जाते थे। नजदीक भी था। खाते-पीते या सम्पन्न लोग ही जाते थे ‘जगरनाथ’(जगन्नाथपुरी को मैथिली में ऐसे ही बोलते थे)। मेरी दादी काशी, प्रयाग और जगरनाथ गई थी। ऐसा इसलिए कि उस समय तक रेलवे की सुविधा हो गई थी। दादी काशी, प्रयाग, मथुरा, जगरनाथ और रामेश्वरम का नाम ज्यादा लेती थी। अयोध्या का कम लेती थी। रामेश्वरम तो खैर बहुत दूर था, लेकिन उसे पता था कि मेरे गांव से करीब एक हजार कोस है!
इधर जब अंग्रेजी राज स्थापित हुआ, तो लोग कलकत्ता जाने लगे और वहां से जगन्नाथ पुरी जाने का प्रचलन बढ़ने लगा। मेरे पर-बाबा के समय तक हमारे इलाके में रेल लाइन बननी शुरू हो चुकी थी (करीब 1890 ), लेकिन वे शायद उस पर चढ़े नहीं थे। पूरे गांव से एकाध आदमी गया था जगन्नाथ पुरी। इसकी वजह थी कि बीच में झारखंड का विशाल जंगल था और जो लोग वहां जाते थे वे पहले अपना अंतिम संस्कार करवाकर जाते थे! क्योंकि जीवित लौटने की गारंटी नहीं थी।
जगन्नाथ पुरी मेरे गांव से करीब एक हजार किलोमीटर था/है। बीच में विशाल जंगल था, नदी-नाले, जानवर, पहाड़ और भाषाई विभिन्नता। फिर कैसे जाते होंगे लोग? पापा के दादा बताते थे कि अकेले कोई जाता नहीं था,दस-बीस के झुंड में जाते थे। देवघर तक तो नियमित संपर्क था। संस्कृत शिक्षा के लिए नवद्वीप से भी थोड़ा सा संबंध बना हुआ था। लेकिन नवद्वीप वाली बातें कम से कम तीन-चार सौ साल पुरानी होगी।
उस जमाने में आबादी कम थी, कई-कई कोस तक बस्तियां नहीं थीं, लेकिन पगडंडी बनी हुई थी और गांव वाले अगले 100-200 किलोमीटर का रास्ता बता देते थे। बीच-बीच में सराय बने हुए थे, व्यापारियों-राजाओं ने धर्मशालाएं बनवाईं थी या किसी साधु का आश्रम उनका डेरा बनता था। अमूमन तीर्थ-यात्रियों से लूटमार कम होती थी-लेकिन मुसलमानी राज कायम हो जाने के बाद अवाध तीर्थयात्राएं जरूर कम हो गई थीं। मुगलों के पतन के बाद तो अराजकता के समय पिंडारियों की लूटमार और बढ़ गई थी। लोग अपने खोल में समाने लगे थे। सिर्फ जीवट लोग यात्रा करते थे।
जगन्नाथ जी पहुंचने पर अन्य तीर्थ स्थलों की तरह ही वहां के पंडे, लोगों के रहने-खाने का इंतजाम करते। उनके पास लोगों की वंशावली होती, अपने-अपने इलाके होते। पंडों में आज की तरह लालच नहीं था, लोग जाते भी कम थे, साधन भी नहीं था। लेकिन लोग संवाद कैसे करते होंगे? मिथिला का अंगूठा छाप आदमी(या दो-चार जमात पढ़ा व्यक्ति) उड़ीसा के लोगों से कैसे संवाद करता होगा? किसी-किसी लाल बुझक्कड़ को फारसी आती थी या थोड़ी सी संस्कृत। उसी में संवाद होता था। यहां के लोग मैथिली बोलते थे, वहां का के लोग उड़िया। लेकिन दिल की बात एक दूसरे की समझ में आ जाती थी।
ऐसे में ‘जगरनाथ जी’ हमारे इलाके के लोगों की जातीय स्मृति में ही ज्यादातर सुरक्षित थे। बाबा जगरनाथ, राष्ट्रीय नहीं हुए थे। उनको टीवी, इंटरनेट ने अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। कहते हैं अंग्रेजी का ‘जॉगरनॉट’ शब्द भी जगन्नाथ रथ-यात्रा से ही प्रेरित है!
आज फेसबुक पर रथ-यात्रा की तस्वीरों की बाढ़ सी आई हुई है। इमानदारी से कहूं तो "कुछ लोग" ईद के जवाब में भी लगा रहे हैं-मानो हम किसी से कम नहीं हैं! कुछ लोग इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें "छद्म" कम्यूनिस्टों से चिढ़ है और वे मजा ले रहे हैं। मैंने खुद ही एक बधाई में कटाक्ष किया था, लेकिन मैंने उन्हें शिवरात्रि की बधाई की याद दिलाई थी-रथयात्रा की नहीं !
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