Monday, August 24, 2015

जयपाल सिंह मुंडा, आदिवासी हितों के प्रथम प्रवक्ता

इस किताब का बहुत दिनों से इंतजार था। हालांकि ये किताब अभी मेरी निगाहों से नहीं गुजरी है कि इसके कंटेंट पर कुछ लिख सकूं। रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ का जब मैं अनुवाद कर रहा था तो पहली बार जयपाल सिंह मुंडा के बारे में कुछ विस्तार से पढने को मिला था। गुहा साहब ने लिखा कि भारत में ऐसे कई नायक, कई घटनाएं या कई महत्वपूर्ण लोग हुए जिन्हें आज तक उनका जीवनीकार नसीब नहीं हुआ। उसमें से एक आदिवासी अधिकारों के प्रथम प्रवक्ता, झारखंड आन्दोलन के जनक, संविधान सभा के सदस्य और मशहूर हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह मुंडा भी थे। ऐसे लोगों ने इस देश की समाजिक-राजनीतिक संरचना को बदलने में अमूल्य योगदान दिया।
जयपाल सिंह मुंडा की शिक्षा-दीक्षा इसाई मिशन की वजह से हुई और मिशन की मदद से ही वे उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए ऑक्सफोर्ड गए। वहां वे ऑक्सफोर्ड की हॉकी टीम में मशहूर खिलाड़ी के तौर पर उभरे और ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ हासिल किया। उनकी मशहूरियत की एक वजह भारतीय हॉकी टीम के कप्तानी भी थी जिसने 1928 के ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल किया था। हालांकि वो उनकी शख्सियत का एक छोटा सा हिस्सा था, उनको तो अभी बड़े-बड़े काम करने थे।
भारत आने के बाद इसाई मिशन उन्हें धर्म प्रचार के कार्य में लगाना चाहता था जिससे जयपाल ने विनम्रता से इनकार कर दिया। उन्होंने झारखंड पार्टी की स्थापना की जिसने केंद्रीय-पूर्वी भारत में एक अलग आदिवासी राज्य की मांग की। उस प्रांत में वर्तमान झारखंड, बंगाल का कुछ हिस्सा, उड़ीसा का उत्तरी भाग और छत्तीसगढ के कई इलाके शामिल होने थे। हालांकि वो मांग मानी नहीं गई और उनके आन्दोलन के करीब साठ साल बाद एक छोटा सा झारखंड राज्य कथित तौर पर आदिवासियों के लिए बनाया गया जिसमें उस समय तक आदिवासियों की संख्या घटकर 26 फीसदी हो गई थी, जो सन् 1951 में करीब 51 फीसदी थी!

लेकिन जयपाल सिंह मुंडा का योगदान उससे कहीं बढकर है। उनका वो योगदान आदिवासी हितों की रक्षा को लेकर है। जब आजाद भारत के लिए संविधान सभा का गठन किया जा रहा था तो जयपाल सिंह मुंडा को भी उसका सदस्य बनाया गया। लेकिन अगस्त 1947 में जब अल्पसंख्यकों-वंचितों के अधिकारों पर पहली रपट प्रकाशित हुई तो उसमें सिर्फ दलितों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। दलित अधिकारों को लेकर डॉ अम्बेदकर का एक मजबूत आन्दोलन रहा था और तत्कालीन नेतृत्व में उस पर सहमति बन चुकी थी। खुद अम्बेदकर अब संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उधर देश के बंटवारे के बाद अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के हित में बोलने वालों में खुद पंडित नेहरु और गांधी थे। अल्पसंख्यक अधिकारों से संबंधित प्रस्ताव खुद सरदार पटेल ने संविधान सभा में प्रस्तुत किए थे। भाषाई आन्दोलनकारी भी सक्रिय थे। लेकिन आदिवासी हितों पर बोलनेवाला कोई नहीं था। सरकारी नौकरियों और विधायिका में तो दलितों के लिए 15 फीसदी आरक्षण की बात मान ली गई लेकिन आदिवासियों को सब भूल गए। ऐसे में जयपाल सिंह मुंडा ने ये कमान संभाली और संविधान सभा में एक ओजपूर्ण भाषण दिया-
“एक जंगली और आदिवासी के तौर पर मैं कानूनी बारीकियों को नहीं जानता लेकिन मेरा अंतर्मन कहता है कि आजादी की इस लड़ाई में हम सब को एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और उन्हें हर तरह से प्रताड़ित किया गया। लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए और मैं चाहता हूं कि पंडित जवाहर लाल नेहरु की बातों पर भरोसा करुं कि उन्होने जो शब्द कहे हैं उसे सही तरीके से लागू किया जाएगा।”
उसके बाद संविधान सभा ने आदिवासियों की समस्या को स्वीकार करते हुए 400 आदिवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जो आबादी की करीब 7 फीसदी थी। उन्हें नौकरियों और विधायिया में 7.5 आरक्षण प्रदान किया गया।
उसके बाद केंद्रीय-पूर्वी भारत में एक अलग आदिवासी राज्य हासिल करने के लिए जयपाल सिंह ने एक आदिवासी महासभा का गठन किया जो बाद में झारखंड पार्टी बन गई और आज की झारखंड मुक्ति मोर्चा किस्म की पार्टियां उसी पार्टी की मानस-संतानें हैं। सन् 1952 के चुनाव में झारखंड पार्टी के तीन सांसद और तेइस विधायक जीत गए और आदिवासी राज्य का मुद्दा देश के पटल पर स्थापित हो गया। दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह उसी पार्टी के समर्थन से चुनाव जीतकर राज्यसभा के सदस्य बने थे।
अभी जिस नगा शांति वार्ता के मुकाम पर पहुंचने की बात हो रही है उसके जनक अनगामी जापू पिजो को जयपाल सिंह मुंडा ने अलगाववाद छोड़ने के लिए काफी समझाया था। जयपाल का कहना था कि पिजो को भी उसी तरह से पूर्वोत्तर में एक राज्य की मांग करनी चाहिए जिस तरह की मांग जयपाल कर रहे थे। लेकिन पिजो नहीं माने और नगालैंड करीब 50 साल तक अशांति के गर्त में डूबा रहा।
आज जयपाल सिंह मुंडा को बहुत से लोग नहीं जानते। आदिवासियों के नाम पर झारखंड में बनी एक के बाद एक सरकारों ने भी मुंडा के लिए कुछ नहीं किया। शायद रांची में उनके नाम पर कोई स्टेडियम भर है। उन पर रांची के किसी सज्जन ने एक गुटखा किस्म की कितबिया लिखी थी जो बहुत प्रचारित नहीं हो पाई। उम्मीद है कि अब इस किताब में हमें जयपाल सिंह मुंडा के बारे में कई अनजानी बातें पढने को मिलेंगी। इस किताब के लिए लेखक ए के पंकज को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं।

1 comment:

Unknown said...

हम शुक्रगुजार है जयपाल सिंह जी मुंडा के।और जो प्रसिद्धि इन्हें नही मिल पाई इस दिशा मे भरसक प्रयास करेंगे।
जोहार।