शायद लोग जल्दवाजी में भूल जाते हैं कि अमेरिका और भारत दोनों ही लोकतंत्र के आकार में बड़े जरुर हैं या बहुत हद तक सफल भी दिखते हैं फिर भी ओबामा और मायावती की तुलना करना उचित नहीं। दोनों देशों में कई समानताएं भले हों...लेकिन असमानताओं का अंबार भी है।
अमेरिका एक जवान मुल्क है,अप्रवासियों से हाल ही में बसा हुआ...जहां कि बहुसंख्यक आबादी ने उसे पिछले 400 सालो में अपना आशियाना बनाया है। एक ऐसा मुल्क जो अपार संसाधनो से लैश है और जिसकी बसावट यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद हुई है, जिसने अपने तमाम मूल्य और अपने तमाम विकास,यूरोप में सदियों तक चलने वाले आंदोलनों और विकास यात्राओं से हासिल की है और एकवारगी ही किसी शहरीकरण की प्रक्रिया जैसे उसे एक मुल्क के रुप में ढ़ाल लिया है। दूसरी तरफ भारत में एक प्राचीन सभ्यता के प्रवाह के फलस्वरुप इतने उटा-पटक हुए हैं कि शायद भारत..अमेरिका से बेहतर 'सभ्यताओं की हांडी' है-जिसमें अनेक समुदाय अपना मुकाम हासिल करने के लिए अभी तक संघर्षरत हैं। ऐसे में मायावती को भारतीय ओबामा घोषित करना प्रतीकात्मक रुप से तो सही हो सकता है, वास्तविक रुप में नहीं।
भुवन भास्कर जी ने अपने ब्लॉग पर सही लिखा-जिस तरह अमेरिकन अश्वेतों ने ओबामा की जीत का स्वागत सहज रुप से किया है क्या हमारे यहां संभव है? हमारे यहां अभी इसे दूसरों को 'पददलित' और 'उखाड़ फेंकने'के रुप में ही देखा जाएगा।
दूसरी बात ये कि जिस तरह की कामचलाऊ समरुपता अमेरिका के आर्थिक जीवन और समाज में आ चुकी है क्या हिंदुस्तान में आ पाई है? इन तमाम बातों के बावजूद की अमेरिका में लोकतांत्रिक प्रयोग हिंदुस्तान से तकरीबन पौने दो सौ साल पुराना है, अमेरिका के लोगों में अभी भी एक तरह की नस्लीय और धार्मिक भावना वद्य़मान है भले ही वह ऊपरी तौर पर न दिखाई दे। इसलिए किसी ओबामा या किसी बॉबी जिंदल को बार बार अपने इसाईयत की सबूत देनी पड़ती है।
इसकी तुलना अगर हम भारत के जातिवाद से करें तो मानसिक और व्यवहारिक धरातल पर यह अभी भी मजबूत है,भले ही उसमें गिरावट के लक्षण दिख रहे हों। मायावती का उदय एक स्वभाविक प्रक्रिया न होकर अभी भी शातिर और खतरनाक जातिवादी समझौता ही दिखता है। ओबामा जिस समुदाय में पैदा हुए है उसे नस्लीय उपेक्षा जरुर झेलनी पड़ी है लेकिन अमेरिकी समाज ने धीरे-धीरे सबको समाहित करने की कोशिश की है..और इसमें उस देश की आर्थिक समृद्धि का बड़ा योगदान है। अब अमेरिका में समाजिक बदलाव का सवाल अहम नहीं रह गया है,आर्थिक वर्चस्व को बरकरार रखने की चुनौती जरुर है और ओबामा समजिक बदलाव से कम आर्थिक तारणहार के रुप में ज्यादा चुनाव जीते हैं।
तो क्या दुनिया को पीटकर भी, सभ्यताओं का संघर्ष दिखाकर भी और एटम बम पटक कर भी अमेरिका ने बराक 'हुसैन' ओबामा को चुनकर अपनी पीठ ठोकी है और दुनिया को अपने तरीके से अंगूठा दिखाया है? क्या ओबामा की जीत का मतलब सिर्फ इसलिए खुश रहकर किया जाना चाहिए की एक काली चमड़ी वाले आदमी ने व्हाइट हाउस पर कब्जा कर लिया? या ओबामा का आगमन विराट मानवता के लिए कुछ नया लेकर के लाएगा? क्या दुनिया युद्धों, असमान आर्थिक हालात और पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद से ओबामा की अगुआई में मुक्ति पा सकेगी? ये ऐसे सवाल है जो ओबामा की शख्सियत पर दोबारा से सोचने को मजबूर करते हैं। ये याद रखने की जरुरत है कि ओबामा का इतिहास एक धुर राष्ट्रवादी(कुछ हद तक रिपब्लिकन से भी ज्यादा) का रहा है जिसने अतीत में दसियों बार पिछड़े और गरीब देशों के खिलाफ कट्टरता से अपना पक्ष रखा है।
तो फिर ओबामा की जीत के मायने क्या हैं। इसका जवाब एक बड़े ही मनोरंजक लेकिन कठोर उक्ति में छिपी है। किसी अज्ञात आदमी का कथन है कि-अमेरिका में स्लम क्यों नहीं है...इसका जवाब है कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को स्लम बना दिया है, इसलिए अमेरिका में स्लम नहीं है। और शायद इसलिए...अमेरिका ने नस्लीय विभेद मिटाकर ओबामा को तो चुन लिया, लेकिन दुनिया भर में उसकी विभेदकारी नीतियों के हटने का कोई संकेत नहीं है।
हां..इतना जरुर है कि ओबामा की जीत.. एक बड़ी प्रतीकात्मक जीत है, उस अमेरिका के लिए भी जिसने कभी किसी अश्वेत को राष्ट्रपति स्वीकार नहीं किया। रही बात मायावती के एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ओबामा बनने की...तो शायद हिंदुस्तान में वो वक्त अभी नहीं आया है। इसके लिए हिंदू समाज को उन तमाम व्यापक फेरबदल और जकड़बंदियों की मुक्ति से गुजरना होगा जो आधुनिक भारत के संस्थानों में आकार ले रही है।
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