पिछले महीने झांसी जाना हुआ। ऋषि की छुट्टी थी, वो गाड़ी से जा रहा था, उसी के साथ हो लिया। दिल्ली से तकरीबन साढें चार सौ किलोमीटर की दूरी हमने 8 घंटे में पूरी कर ली। रास्ते भर खाते पीते गए। सिकंदरा में अकबर का मकबरा, दूर से ही ताज देखा, आगरे का पेठा खाया फिर चंबल में चाय पी। डर भी लग रहा था कि डाकू न घेर ले। मगर कुछ नहीं हुआ। पता नहीं डाकू कहां गए। चार लेन वाली स्वर्णिम चतुर्भुज पर इतनी लंबी यात्रा पहली बार कर रहा था। मैं इसलिए भी झांसी जा रहा था कि कुछ नया देखने का मौका मिले-ऑफिस के बंद माहौल में मन उकता गया था। मैं देश के अदरुनी हिस्सों में हो रहे बदलावों को अपने आंख से देखना चाहता था। एनसीआर से बाहर निकलते ही मैने देखा कि हाईवे इलाके को कैसे बदल रही है। सड़क के दोनों ओर फैक्ट्रियां और प्रोफेशनल कॉलेज बड़ी तादाद में खुल गए थे।
ऋषि के घरवाले अब नए घर में शिफ्ट हो गए थे। ऋषि भी पहली बार इस घर में आया था। उसके मम्मी-पापा झांसी मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे, हाल ही में रिटायर हुए हैं। वे लोग तकरीबन 35 साल तक उस सरकारी क्वार्टर में रहे थे। ऋषि और उसके भैया का जन्म वहीं हुआ था..उसकी दादी का स्वर्गवास वहीं हुआ था। न जाने कितनी यादें जुड़ी थी। लेकिन एक न एक दिन सरकारी मकान छोड़ना ही था, और वो छोड़ना ही पड़ा।
हमलोग रात को लगभग 11 बजे हमलोग झांसी शहर में दाखिल हो गए थे। ऋषि ने सबसे पहले गाड़ी अपने पुराने मकान की तरफ मोड़ी। वो गमगीन सा हो गया। बचपन की एक-एक यादें उसके आंखों के सामने नाच उठी। हमलोग लगभग 15 मिनट वहां रहकर वापस उसके नए मकान की तरफ चले, जो कि उसके नर्सिंग होम के ऊपर बना हुआ था। अगले दिन ऋषि ने अपना फार्म हाउस दिखाया जो कि हाईवे पर ही था। ऋषि के फार्म के बगल में एक फार्मेसी कॉलेज खुला था, ऋषि ने भी फार्मेसी कॉलेज खोलने की जिद पाल ली है।
हमने देखा कि कैसे झांसी के चारो तरफ इंजिनीयरिंग और दूसरे प्रोफेशनल कॉलेज खुल रहे हैं। दरअसल, यूपी में होने की वजह से जो इमेज मैं मन ही मन झांसी की बना रहा था, झांसी उससे कहीं ज्यादा विकास कर गया था। हाईवे और रेलवे के मुख्य रुट पर होने की वजह से भी ज्यादा तरक्की दिखाई दे रही थी। सड़के ठीक ठाक थीं, और उन पर चलने वाली गाड़ियों में कारों की तादाद भी ठीकठाक थी। मैं सोच रहा था कि झांसी के विकास को क्या नाम दूं। तभी किसी ने रेलवे स्टेशन पर कहा कि भाईसाब...ये एक उठता हुआ शहर है।
मैंने वहां से पीताम्वरा पीठ जाने का भी प्लान बनाया जो कि नजदीक ही दतिया में है। कहीं पढ़ा था कि नेहरु जी भी सन '62 की लड़ाई के वक्त वहां गए थे। इसबार मेरे लिए मातारानी का बुलावा नहीं आया था। एक ही दिन की छुट्टी थी, दिन आलस में ही बीत गया। बस शहर के बीच पहाड़ी के चोटी पर एक प्राचीन काली माई के मंदिर जाने का मौका मिल गया। जगह का नाम भूल रहा हूं, लेकिन मंदिर किसी चंदेल राजा ने 10 वीं सदी में बनाई थी। उस पहाड़ी से झांसी की रानी का महल दिखता था, हम वहां जा नहीं पाए। वहां बगल में ही आर्मी का शूटिंग रेंज था..और पहाड़ी की चोटी से दूर-दूर तक बुंदेलखंड के जंगल और उसके बीच-बीच में गांव दिखाई पड़ रहे थे। बचपन से मैदानी इलाकों में रहा हूं, इसलिए पहाड़ और जंगल देखकर मन करता है देखता ही रहूं...। हां..एक बात जो मैनें नोट की वो ये कि झांसी और आसपास के इलाकों में संतों के काफी आश्रम हैं और इलाके में इनकी बड़ी श्रद्धा है।
हमलोग ग्वालियर होकर झांसी गए थे। ग्वालियर शहर में 4-5 किलोमीटर का नजारा देखने को मिला। मैं ग्लालियर को देखकर दंग रह गया। सुना था कि सिंधिया परिवार ने इसका काफी विकास किया है, वो साफ दिखाई दे रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि उत्तर भारत में भी ऐसे साफ सुथरे शहर हो सकते हैं-अमूमन मैं बिहार-यूपी के शहरों में कचरों और गंदगी के ढ़ेर ही देखने का आदी था।
2 comments:
चलिए, सुशांत आपके बहाने हम भी घूम आए झांसी.......
... रोचक लेख है।
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