मुम्बई में हुए आतंकी हमलों के तुरंत बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा था कि वे आईएसआई के चीफ को भारत भेजेंगे, लेकिन कुछ ही देर बाद वो इससे मुकर गए। पाकिस्तान के अंदुरुनी हलकों में इसका इतना विरोध हुआ कि जरदारी, आईएसआई के मुखिया के बदले एक डेलिगेशन भेजने की बात करने लगे। भारत ने जब इधर कड़े संकेत देने की तैयारी की तो आनन फानन में पाकिस्तान ने इसे भुनाने की कोशिश शुरु की, और पश्चिमी सीमावर्ती कबीलाई इलाके से फौज को हटाकर पूर्वी सीमा पर भेजने की बात करने लगा। ये मूलत: अमेरिका को ब्लैकमेल करने की कोशिश थी कि वो भारत पर दबाव डाले और भारत को सीमा पर सेना का जमावड़ा करने से रोके। इसका फायदा भी मिला,अमेरिका अफगानिस्तान में फंसे होने की वजह से पाकिस्तान फौज का संभावित असहयोग नहीं झेल पाया और अगले ही दिन कोंडलिजा राइस दिल्ली में दिखी। वो नपेतुले और सधे लहजे में पाकिस्तान को हड़काकर वापस जाएंगी लेकिन उनका मूल मकसद भारत को सेना का जमावड़ा करने से रोकना होगा।
दूसरी तरफ पाकिस्तान पहले की तरह ही आतंकियों को सौंपने से साफ मुकर गया। उसने कहा पहले सबूत दो,फिर मुकदमा हमारे यहां ही चलाया जाएगा। दरअसल ये पाकिस्तान लोकतांत्रिक नेताओं की बेबशी से ज्यादा कुछ नहीं है कि वो चाहकर भी कट्टरपंथी तत्व और सेना-आईएसआई के गठजोड़ के सामने लाचार हैं। याद कीजिए, कुछ ही महीने पहले जब पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार ने सत्ता संभाला ही था, आईएसआई को रक्षामंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय के अधीन करने का फैसला लिया गया था, लेकिन महज 24 घंटे में उसे बदलना पड़ा।
मुझे लगता है कि दोष जरदारी का नहीं है। जरदारी तो भारत से शांति चाहते हैं, जरदारी उसी कड़ी के नेता हैं जिस कड़ी में धीरे-धीरे मुशर्रफ बाद में अमेरिकी दबाव में ढ़ल गए थे। जरदारी अभी भी पाकिस्तान की विषाक्त हो चुकी मुख्यधारा से अलग थलग हैं और उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। देश के कट्टरपंथी,सेना- आईएसआई और विशाल अतंर्राष्ट्रीय इस्लामी अराजकतावादी गठजोड़(कह सकते हैं अलकायदा) के सामने वो एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनकी जान भी जा सकती है। ये कोशिश बाद में मुशरर्फ ने भी की थी, उन पर कई जानलेवा हमला भी हुआ और अंतत:उन्हे गद्दी छोड़नी पड़ी। अमेरिका के सामने जरदारी से ज्यादा लचीला,कामचलाऊ,भरोसेमंद और मौजूदा हालात में आधुनिक नेता कोई नहीं था-इसलिए एक जमाने के मिस्टर 10% को कुर्सी सौंप दी गई।
जरदारी के बयानों पर अगर गौर किया जाए तो वो एक भविष्य की सोच रखने वाले जिम्मेदार नेता दिखते रहे हैं जिसने भारत के साथ शांति के कई संकेत अतीत में दिए। लेकिन जब पिछले दिनों मुम्बई हमलों के बाद पाकिस्तान में सर्वदलीय बैठक हुई तो जरदारी अकेले पड़ गए। सभी ने भारत के सामने घुटने न टेकने की बात की और वो बैठक दरअसल कट्टरपंथी तत्वो के समर्थन का बैठक बन गया। जरदारी ने जब आईएसआई के चीफ को भारत भेजने की बात की तो उसकी अगली कड़ी दाऊद और अजहर मसूद को भारत सौंप देने की होनेवाली थी। लेकिन पाकिस्तान में आईएसआई का कद इतना सम्मानीय और राष्ट्रीय प्रतीक का है कि ये बात वहां के जनमानस को हजम नहीं हुई और जरदारी झख मार कर पलट गए। लोगों का मूड भांफकर जरदारी के हाथ पैर फूल गए,और वो पुराने जमाने के बोल बोलने लगे।
तो फिर भारत के सामने उपाय क्या हैं? फिलहाल हम ज्यादा चौकसी और सतकर्ता बढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। हमें उन छेदों को पाटना होगा जिससे आतंकवाद रिस-रिसकर हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। बीमारी, हमारी अंदुरुनी सियासत में हैं। हम कोई भी नियम कायदा नहीं बनाते, न ही आतंकवाद को रोकने के लिए साहसिक पहल करते हैं। अगर सारे राजनीतिक दल मिल बैठकर तय कर लें तो आतंकवाद को बहुत ही कम किया जा सकता है। ये कोई बड़ी चुनौती नहीं जिसका इलाज न हो।(जारी)
1 comment:
sahi kaha
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