प्रवीण आज अमेरिका चला गया, एल एंड टी ने उसे अपने प्रोजेक्ट पर शिकागो भेज दिया। लेकिन उसी के साथ पढ़नेवाली पूनम की नसीब ऐसी नहीं थी। वो आज दो बच्चों की मां बन चुकी है और अपने पति की सेवा करते हुए अपनी जिंदगी बिता रही है। पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि पूनम के साथ इस व्यवस्था ने घनघोर अन्याय किया है। बात साल 95 की होगी। मेरा बोर्ड का रिजल्ट आ चुका था, और उस समय प्रवीण और पूनम 6 ठी क्लास में पढ़ते थे। मधुबनी के सुदूर गांव का एक स्कूल जहां टीचर के नाम पर चार लोग थे जिनका ज्यादा वक्त खेती करने में ही बीतता था-दोनों उसी में पढ़ते थे। पूनम अपने क्लास में फर्स्ट आती थी, और प्रवीण सेकेंड। लेकिन व्यवस्था ने पूनम को जिंदगी में सदा के लिए सेंकेंड बना के रख दिया।
प्रवीण के पिता कटक में एक दुकान में काम करते थे, वे 7वीं में प्रवीण को लेकर चले गए।जबकि पूनम के पिता की सरकारी नौकरी थी, उसकी माली हालत भी ठीक थी-फिर भी पूनम अपनी आभा नहीं बिखेर पाई। प्रवीण ने ग्यारवीं के बाद राउरकेला के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लिया, चार साल बाद एल एंड टी मे सलेक्शन हुआ और आज वो शिकागो में है। दूसरी तरफ तीन बहनों में बड़ी पूनम ने दसवीं में अच्छा रिजल्ट आने के बाद मधुबनी के कालेज में दाखिला भी लिया था। लेकिन वो आगे नहीं पढ़ पाई। एक दिन मेरी दीदी ने पूनम से उसके पढ़ाई के बारे में पूछा भी था। पूनम ने कहा था-दीदी..मां-पापा में रोज लड़ाई होती है कि पूनम की ज्यादा पढाई उसकी शादी में दिक्तत पैदा कर सकती है। बस पूनम ने धीरे-धीरे पढ़ाई से किनारा कर लिया और अगले दो साल के बाद उसकी शादी कर दी गई। पूनम का तमाम टैलेंट सिलाई-कढ़ाई और स्वेटर के नए डिजायन तैयार करने में जाया खर्च हो गया।
आज मैं प्रवीण के बारे में सोचता हूं जिसके टैलेंट का डंका मेरे गांव में बजता है। मिथिला के तमाम दहेजदाता उसके दरवाजे के चक्कर काट चुके हैं । सवाल ये है कि पूनम को ये मौका क्यों नही मिला। क्या सिर्फ दहेज ही एक फैक्टर था या ये भी पूनम को घर के नजदीक अच्छा कालेज नसीब नही हुआ। अगर पूनम कर्नाटक या केरल में पैदा हुई होती तो क्या वो इंजीनियर नहीं बन सकती थी...ये ऐसे सवाल हैं जो अभी भी नीतीश कुमार और अर्जुन सिंह के एजेंडे से गायब हैं, और लाखों पूनम ये सवाल इस मुल्क की व्यवस्था से पूछ रही है।
3 comments:
सुशांत जी, सबसे पहले तो इस आलेख का टाईटल बदलिए, पूनम की पुकार...किसी 70 के दशक के फ़िल्म की टाईटल कि तरह लगता है। दूसरी बात यह कि मैं मानता हूं कि लड़कियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण लेख लिखकर लोकप्रिय होना अभी भी ऑउटडेटेड नहीं हुआ है। फिर भी आपकी सोच समाज को कुछ सार्थकता देती ही है।
शत प्रतिशत आबादी शत प्रतिशत साधनों से संपन्न नहीं हो सकती है....अपनी अपनी परिस्थितियों से लडकर आगे बढने में अधिक बडाई है , बशर्ते दूसरों पर इलजाम मढने के।
सुशांत जी आप नए-नवेले सेकुलर हुए ये तो अपन को पता थी, लेकिन महिला-विमर्श में भी टांग अड़ा रहे हैं ये ाज ही पता चली। बधाई..
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