इंडिया टुडे ने हिंदी पट्टी के 20 शहरों का सर्वे किया है। सर्वे में पटना को सातवां स्थान मिला है जो काफी उत्साहजनक लगता है। गौरतलब है कि अगर कंम्प्यूटर को विकास का पैमाना माना जाए तो सिर्फ 4 शहर ही पटना को पछाड़ पाए हैं। पटना में प्रति परिवार कंम्प्यूटर की मौजूदगी तकरीबन 9.5 फीसदी है जो दिल्ली के मुकाबले (10.5 फीसदी) थोड़ा ही कम हैं। हां, चंडीगढ़, जयपुर नोएडा इससे आगे हैं। प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से भी पटना सातवें जगह पर है और 13 शहर इससे पीछे हैं। इससे इस मिथक को तोड़ने में थोड़ी सी मदद मिलेगी कि बिहार, हिंदी पट्टी में सबसे पिछड़ा सूबा है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जो ज्यादा चिंताजनक है।
यहां सवाल ये है कि जो राज्य विकास के सारे मापदंड पर नीचे से अब्बल आता हो उसकी राजधानी कैसे सातवें जगह पर है। माना की ये सर्वे सिर्फ हिंदी पट्टी के शहरों का है लेकिन फिर भी हिंदी पट्टी में भी तो बिहार का स्थान सबसे नीचे है। तो आंकड़ों में घालमेल कैसे हो गया।
इसका साफ मतलब है कि पूरा बिहार तो बहुत ही पीछे है, लेकिन सूबे की सारी मलाई पटना में जमा हो गई है। दूसरी बात ये कि इन 20 शहरों में तो दूसरे सूबों के कई शहर शामिल हैं लेकिन बिहार में ये सौभाग्य सिर्फ पटना को ही मिल पाया है। ये साबित करता है कि बिहार में कितना कम शहरीकरण हुआ है और जो हुआ भी है तो उसमें पटना का हिस्सा कितना ज्यादा है। हमने सर्वे में ये पाया है कि पटना में कंम्प्यूटर की मौजूदगी लखनऊ, लुधियाना, गुड़गांव, भोपाल और देहरादून से भी ज्यादा है। इसका मतलब ये है कि दूसरे शहरों में इतनी संपन्नता के बावजूद आबादी की संरचना कितनी सही और संतुलित है, और सारे तबके वहां मौजूद हैं लेकिन पटना में पूरे बिहार का मलाईदार तबका जमा हो गया है।
ऐसा भी नहीं कि पटना में गरीब नहीं है, लेकिन इसका एक मतलब ये भी है कि जो अमीर हैं उन्होने बेतहाशा दौलत जमा कर ली है। तभी तो ऐसे एक-एक घर कई-कई कंम्प्यूटर होंगे-तभी तो इतनी ज्यादा मौजूदगी दिख रही है और वो पटना के आर्थिक रुप से सातवें पोजीशन पर ले आये हैं। एक बात ये भी है कि भले ही यूपी, बिहार से आबादी में दो गुना बड़ा हो लेकिन उसके 7 शहर इस सर्वे में मौजूद है-ये बात अपने आप में इस बात की गवाह है कि यूपी में बिहार से कई गुना ज्यादा शहरीकरण हुआ है। दूसरी बात ये भी कि यूपी के सारे शहर सरकारी शहर नहीं है-लखनऊ और इलाहाबाद को छोड़ दें- तो यूपी के सारे शहर कारोबारी शहर हैं जो काफी पोजिटिव बात है। जबकि पटना अभी तक सिर्फ बाबूओं-नेताओं का ही शहर है-जिनके भ्रष्टाचार ने पटना को पैसे के मामले में इतना ऊंचा खड़ा कर दिया है।
कुल मिलाकर सर्वे ने साफ इशारा किया है कि भले ही हम पटना की पोजिशनिंग पर कुछ पल के लिए इतरा लें, लेकिन एक भयावह और स्याह तस्वीर जो सामने आई है वो ये कि बिहार में अभी भी शहरीकरण कितना कम है, पटना में कितनी बड़ी तादाद में भ्रष्ट पैसा जमा हो गया है और सूबे में उद्योग और कारोबार की हालत कितनी खस्ता है। अभी तक द्वितीय श्रेणी के शहर-भागलपुर, गया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और पूर्णिया कोई जगह नहीं पाये हैं। हां, एक ही बात सुकून की है कि पटना में अपराध कम हुआ है और लोग देर रात तक आइसक्रीम खाने निकलने लगे हैं। नीतिश कुमार के सड़को का सुफल शायद पांच-दस साल बाद मिले, लेकिन उनके लिए ये सर्वे एकमात्र यहीं उपलब्धि सामने लाई है।
10 comments:
पटनावासियों को बधाई।
रोचक विवरण, उम्दा विश्लेषण।
सर्वे जो भी दास्तान बयां करे लेकिन पटना की हालत नितांत चिंताजनक है. ट्रैफिक के मामले में पटना रेंगता हुआ नजर आता है. गाँधी मैदान से पटना सिटी के रास्ते पर अगर आपको १० किलोमीटर का सफर तय करना हो तो ४५ मिनट से एक घंटा लग जाता है. पहले तो बेली रोड स्तरीय हुआ करता था आज वो भी बेकार हो चुका है. एक और जहाँ छोटे-छोटे सहरों में भी कई मॉल खुल चुके है पटना को आज भी ढंग के एक शोपिंग मॉल की तलाश है. आज भी कोई मल्टीप्लेक्स नही है. स्कूल-कोलेज भी खस्ताहाल हैं. यहाँ तक की निजी कोचिंग में भी अब उम्दा शिक्षक नही रहे. पटना १० साल पहले जैसा था आज भी वैसे है और शायद १० साल बाद भी वैसा ही रहेगा. बाकि शहर कहाँ से कहाँ निकल गए.
एक बार प्रभात खबर से किसी ने मुझे फोन किया था यह पूछने के लिए क्या बिहार सूचना तकनीकि के मामले में पिछड़ गया है. मैंने उन्हें कहा था कि जो रेस में आया ही नहीं वह पिछड़ कैसे जाएगा. बिहार को तो अभी रेस में आना है और आनेवाले समय में नालेज इकोनामी में बिहार को उम्दा रोल निभाना होगा.
टुडे का सर्वे भी उसी ओर इशारा करता है.
ये कमेंट संजय जी के लिये..
मेरे ख्याल से नालेज इकोनामी में बिहार के लड़के अभी भी उम्दा रोल निभा रहे हैं.. हां भविष्य में और भी आशायें हैं..
बिल्कुल दिल की बात कही है आपने, खुश होने से ज्यादा गौर करने की बात है......
बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई .................
अर्श
सुशांत जी आपका कमेंट रविश कुमार के ब्लाग पर पढ़कर दिल खुश हो गया । गांव की रसुखो वाली बात लगता है शहरों को भी जकड़ लिया है । खासकर ऊच नीच के रंग ने जो खाई खड़ी की है उसे पाटने की भी जरूरत है लेकिन दिक्कत यह है कि जब अपने देश में भी इंडिया और भारत है तो हम दिल्ली वालों को सोच को क्यो गाली दें । आपका पटना का सवेॻ पढ़कर और दिल खुश हुआ कि कही तो अपना शहर आजकल टिका हुआ है । मेरे ब्लांग पर भी आयें । धन्यवाद
संजय जी की बातों से सहमत हूँ ....
बहुत अच्छा लिखा है, बधाई.कभी हमारे 'शब्दशिखर' www.shabdshikhar.blogspot.com पर भी पधारें !!
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