Tuesday, November 18, 2008

...यह एक उठता हुआ शहर है

पिछले महीने झांसी जाना हुआ। ऋषि की छुट्टी थी, वो गाड़ी से जा रहा था, उसी के साथ हो लिया। दिल्ली से तकरीबन साढें चार सौ किलोमीटर की दूरी हमने 8 घंटे में पूरी कर ली। रास्ते भर खाते पीते गए। सिकंदरा में अकबर का मकबरा, दूर से ही ताज देखा, आगरे का पेठा खाया फिर चंबल में चाय पी। डर भी लग रहा था कि डाकू न घेर ले। मगर कुछ नहीं हुआ। पता नहीं डाकू कहां गए। चार लेन वाली स्वर्णिम चतुर्भुज पर इतनी लंबी यात्रा पहली बार कर रहा था। मैं इसलिए भी झांसी जा रहा था कि कुछ नया देखने का मौका मिले-ऑफिस के बंद माहौल में मन उकता गया था। मैं देश के अदरुनी हिस्सों में हो रहे बदलावों को अपने आंख से देखना चाहता था। एनसीआर से बाहर निकलते ही मैने देखा कि हाईवे इलाके को कैसे बदल रही है। सड़क के दोनों ओर फैक्ट्रियां और प्रोफेशनल कॉलेज बड़ी तादाद में खुल गए थे।

ऋषि के घरवाले अब नए घर में शिफ्ट हो गए थे। ऋषि भी पहली बार इस घर में आया था। उसके मम्मी-पापा झांसी मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे, हाल ही में रिटायर हुए हैं। वे लोग तकरीबन 35 साल तक उस सरकारी क्वार्टर में रहे थे। ऋषि और उसके भैया का जन्म वहीं हुआ था..उसकी दादी का स्वर्गवास वहीं हुआ था। न जाने कितनी यादें जुड़ी थी। लेकिन एक न एक दिन सरकारी मकान छोड़ना ही था, और वो छोड़ना ही पड़ा।
हमलोग रात को लगभग 11 बजे हमलोग झांसी शहर में दाखिल हो गए थे। ऋषि ने सबसे पहले गाड़ी अपने पुराने मकान की तरफ मोड़ी। वो गमगीन सा हो गया। बचपन की एक-एक यादें उसके आंखों के सामने नाच उठी। हमलोग लगभग 15 मिनट वहां रहकर वापस उसके नए मकान की तरफ चले, जो कि उसके नर्सिंग होम के ऊपर बना हुआ था। अगले दिन ऋषि ने अपना फार्म हाउस दिखाया जो कि हाईवे पर ही था। ऋषि के फार्म के बगल में एक फार्मेसी कॉलेज खुला था, ऋषि ने भी फार्मेसी कॉलेज खोलने की जिद पाल ली है।

हमने देखा कि कैसे झांसी के चारो तरफ इंजिनीयरिंग और दूसरे प्रोफेशनल कॉलेज खुल रहे हैं। दरअसल, यूपी में होने की वजह से जो इमेज मैं मन ही मन झांसी की बना रहा था, झांसी उससे कहीं ज्यादा विकास कर गया था। हाईवे और रेलवे के मुख्य रुट पर होने की वजह से भी ज्यादा तरक्की दिखाई दे रही थी। सड़के ठीक ठाक थीं, और उन पर चलने वाली गाड़ियों में कारों की तादाद भी ठीकठाक थी। मैं सोच रहा था कि झांसी के विकास को क्या नाम दूं। तभी किसी ने रेलवे स्टेशन पर कहा कि भाईसाब...ये एक उठता हुआ शहर है।

मैंने वहां से पीताम्वरा पीठ जाने का भी प्लान बनाया जो कि नजदीक ही दतिया में है। कहीं पढ़ा था कि नेहरु जी भी सन '62 की लड़ाई के वक्त वहां गए थे। इसबार मेरे लिए मातारानी का बुलावा नहीं आया था। एक ही दिन की छुट्टी थी, दिन आलस में ही बीत गया। बस शहर के बीच पहाड़ी के चोटी पर एक प्राचीन काली माई के मंदिर जाने का मौका मिल गया। जगह का नाम भूल रहा हूं, लेकिन मंदिर किसी चंदेल राजा ने 10 वीं सदी में बनाई थी। उस पहाड़ी से झांसी की रानी का महल दिखता था, हम वहां जा नहीं पाए। वहां बगल में ही आर्मी का शूटिंग रेंज था..और पहाड़ी की चोटी से दूर-दूर तक बुंदेलखंड के जंगल और उसके बीच-बीच में गांव दिखाई पड़ रहे थे। बचपन से मैदानी इलाकों में रहा हूं, इसलिए पहाड़ और जंगल देखकर मन करता है देखता ही रहूं...। हां..एक बात जो मैनें नोट की वो ये कि झांसी और आसपास के इलाकों में संतों के काफी आश्रम हैं और इलाके में इनकी बड़ी श्रद्धा है।

हमलोग ग्वालियर होकर झांसी गए थे। ग्वालियर शहर में 4-5 किलोमीटर का नजारा देखने को मिला। मैं ग्लालियर को देखकर दंग रह गया। सुना था कि सिंधिया परिवार ने इसका काफी विकास किया है, वो साफ दिखाई दे रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि उत्तर भारत में भी ऐसे साफ सुथरे शहर हो सकते हैं-अमूमन मैं बिहार-यूपी के शहरों में कचरों और गंदगी के ढ़ेर ही देखने का आदी था।

Saturday, November 15, 2008

मेरी कुछ पसंदीदा किताबें...

गणदेवता-तारा शंकर वद्योपाध्याय
गोदान-प्रेमचंद
बलचनमा-बाबा नागार्जुन
रतिनाथ की चाची-नागार्जुन
वरुण के बेटे-नागार्जुन
मैला आंचल-फणीश्वरनाथ रेणु
राग दरवारी-श्रीलाल शुक्ल
शेखर एक जीवनी-अज्ञेय
श्रीकांत-शरत चंद
कर्मभूमि-प्रेमचंद
चरित्रहीन-शरतचंद
बिराजबहू-शरतचंद
प्रथम प्रतिश्रुति-आशापूर्णा देवी
सुवर्णलता- आशापूर्णा देवी
वकुलकथा- आशापूर्णा देवी
वोल्गा से गंगा- राहुल सांकृत्यायन
रंगभूमि-प्रेमचंद
सेवासदन-प्रेमचंद
आधागांव-राही मासूम रजा
कटरा बी आर्जू-राही मासूम रजा
संस्कृति के चार अध्याय-दिनकर
कितने पाकिस्तान-कमलेश्वर
आग का दरिया-कुरतुल-एन-हैदर
झूठा सच- यशपाल
पिंजर-अमृता प्रीतम
तमस-भीष्म साहनी
हजार चौरासी की मां-महाश्वेता देवी
जंगल के दावेदार-महाश्वेता देवी
चिक्क वीर राजेंद्र- मस्ति व्यंक्टेंश अयंगर
वैशाली की नगरवधू- आचार्य चतुरसेन
सोमनाथ- चतुरसेन
लव, ट्रुथ एंड लिटिल मेलाईस-खुशवंत सिंह
द लास्ट मुगल- डोमनिक लेपियर
इंडिया आफ्टर गांधी- आर सी गुहा
द मैक्सिमम सिटी- सुकेतु मेहता
द अदर साइड ऑफ मी- सिडनी सेल्डन
द इनसाइडर- पी वी नरसिंहाराव
1984- जार्ज आरवेल
मां- गोर्की
ब्लासफेमी- तहमीना दुर्रानी

Wednesday, November 5, 2008

ओबामा...ओबामा...ओबा(मा)या......?.

शायद लोग जल्दवाजी में भूल जाते हैं कि अमेरिका और भारत दोनों ही लोकतंत्र के आकार में बड़े जरुर हैं या बहुत हद तक सफल भी दिखते हैं फिर भी ओबामा और मायावती की तुलना करना उचित नहीं। दोनों देशों में कई समानताएं भले हों...लेकिन असमानताओं का अंबार भी है।

अमेरिका एक जवान मुल्क है,अप्रवासियों से हाल ही में बसा हुआ...जहां कि बहुसंख्यक आबादी ने उसे पिछले 400 सालो में अपना आशियाना बनाया है। एक ऐसा मुल्क जो अपार संसाधनो से लैश है और जिसकी बसावट यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद हुई है, जिसने अपने तमाम मूल्य और अपने तमाम विकास,यूरोप में सदियों तक चलने वाले आंदोलनों और विकास यात्राओं से हासिल की है और एकवारगी ही किसी शहरीकरण की प्रक्रिया जैसे उसे एक मुल्क के रुप में ढ़ाल लिया है। दूसरी तरफ भारत में एक प्राचीन सभ्यता के प्रवाह के फलस्वरुप इतने उटा-पटक हुए हैं कि शायद भारत..अमेरिका से बेहतर 'सभ्यताओं की हांडी' है-जिसमें अनेक समुदाय अपना मुकाम हासिल करने के लिए अभी तक संघर्षरत हैं। ऐसे में मायावती को भारतीय ओबामा घोषित करना प्रतीकात्मक रुप से तो सही हो सकता है, वास्तविक रुप में नहीं।

भुवन भास्कर जी ने अपने ब्लॉग पर सही लिखा-जिस तरह अमेरिकन अश्वेतों ने ओबामा की जीत का स्वागत सहज रुप से किया है क्या हमारे यहां संभव है? हमारे यहां अभी इसे दूसरों को 'पददलित' और 'उखाड़ फेंकने'के रुप में ही देखा जाएगा।

दूसरी बात ये कि जिस तरह की कामचलाऊ समरुपता अमेरिका के आर्थिक जीवन और समाज में आ चुकी है क्या हिंदुस्तान में आ पाई है? इन तमाम बातों के बावजूद की अमेरिका में लोकतांत्रिक प्रयोग हिंदुस्तान से तकरीबन पौने दो सौ साल पुराना है, अमेरिका के लोगों में अभी भी एक तरह की नस्लीय और धार्मिक भावना वद्य़मान है भले ही वह ऊपरी तौर पर न दिखाई दे। इसलिए किसी ओबामा या किसी बॉबी जिंदल को बार बार अपने इसाईयत की सबूत देनी पड़ती है।

इसकी तुलना अगर हम भारत के जातिवाद से करें तो मानसिक और व्यवहारिक धरातल पर यह अभी भी मजबूत है,भले ही उसमें गिरावट के लक्षण दिख रहे हों। मायावती का उदय एक स्वभाविक प्रक्रिया न होकर अभी भी शातिर और खतरनाक जातिवादी समझौता ही दिखता है। ओबामा जिस समुदाय में पैदा हुए है उसे नस्लीय उपेक्षा जरुर झेलनी पड़ी है लेकिन अमेरिकी समाज ने धीरे-धीरे सबको समाहित करने की कोशिश की है..और इसमें उस देश की आर्थिक समृद्धि का बड़ा योगदान है। अब अमेरिका में समाजिक बदलाव का सवाल अहम नहीं रह गया है,आर्थिक वर्चस्व को बरकरार रखने की चुनौती जरुर है और ओबामा समजिक बदलाव से कम आर्थिक तारणहार के रुप में ज्यादा चुनाव जीते हैं।

तो क्या दुनिया को पीटकर भी, सभ्यताओं का संघर्ष दिखाकर भी और एटम बम पटक कर भी अमेरिका ने बराक 'हुसैन' ओबामा को चुनकर अपनी पीठ ठोकी है और दुनिया को अपने तरीके से अंगूठा दिखाया है? क्या ओबामा की जीत का मतलब सिर्फ इसलिए खुश रहकर किया जाना चाहिए की एक काली चमड़ी वाले आदमी ने व्हाइट हाउस पर कब्जा कर लिया? या ओबामा का आगमन विराट मानवता के लिए कुछ नया लेकर के लाएगा? क्या दुनिया युद्धों, असमान आर्थिक हालात और पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद से ओबामा की अगुआई में मुक्ति पा सकेगी? ये ऐसे सवाल है जो ओबामा की शख्सियत पर दोबारा से सोचने को मजबूर करते हैं। ये याद रखने की जरुरत है कि ओबामा का इतिहास एक धुर राष्ट्रवादी(कुछ हद तक रिपब्लिकन से भी ज्यादा) का रहा है जिसने अतीत में दसियों बार पिछड़े और गरीब देशों के खिलाफ कट्टरता से अपना पक्ष रखा है।

तो फिर ओबामा की जीत के मायने क्या हैं। इसका जवाब एक बड़े ही मनोरंजक लेकिन कठोर उक्ति में छिपी है। किसी अज्ञात आदमी का कथन है कि-अमेरिका में स्लम क्यों नहीं है...इसका जवाब है कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को स्लम बना दिया है, इसलिए अमेरिका में स्लम नहीं है। और शायद इसलिए...अमेरिका ने नस्लीय विभेद मिटाकर ओबामा को तो चुन लिया, लेकिन दुनिया भर में उसकी विभेदकारी नीतियों के हटने का कोई संकेत नहीं है।

हां..इतना जरुर है कि ओबामा की जीत.. एक बड़ी प्रतीकात्मक जीत है, उस अमेरिका के लिए भी जिसने कभी किसी अश्वेत को राष्ट्रपति स्वीकार नहीं किया। रही बात मायावती के एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ओबामा बनने की...तो शायद हिंदुस्तान में वो वक्त अभी नहीं आया है। इसके लिए हिंदू समाज को उन तमाम व्यापक फेरबदल और जकड़बंदियों की मुक्ति से गुजरना होगा जो आधुनिक भारत के संस्थानों में आकार ले रही है।