हाल के दिनों में साहित्य और दलित चिंतन में मौलिकता और उभार देखने को आया है। इस सिलसिले में ऐसे लेखकों को खारिज कर देने की प्रबृत्ति भी बढ़ी है जो गैर-दलित हैं। दलित लेखकों का एक वर्ग कहता है कि दलितों को सहानुभूति का लेखन नहीं बल्कि स्व-अनुभूति का लेखन चाहिए। एक ऐसा लेखन जो भोगे हुए यथार्थ पर आधारित हो। लेकिन ऐसा उचित नहीं जान पड़ता। कई दूसरे गैर-दलित लेखक भी हो सकते हैं जिन्होने दलितों जैसे कुछ हालात झेले हों। जातीय और समाजिक भेदभाव की बात अगर छोड़ दी जाए तो आर्थिक आभाव कमोवेश हरेक इंसान को समान रुप से प्रभावित करता है।
दूसरी बात ये है कि अगर कोई गैर-दलित लेखक दलित हितों के बारे में कोई मौलिक विचार पेश करता है तो उसे लेने में क्या बुराई है भले ही वो सहानुभूति ही क्यों न हो। हमें याद रखनी चाहिए कि अमेरिका में अश्वेतों के समर्थन में एक निर्णायक लड़ाई को अंजाम देने वाले शख्स का नाम एब्राहम लिंकन था जो श्वेत था। दूसरी बात ये कि हिंदुस्तान में दलितों के सबसे बड़े हितचिंतक, राजनीतिज्ञ और विचारक बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर को भी एक महाराजा ने विदेश जाने में वित्तीय मदद की थी। कहने का मतलब ये कि नीयत अगर सही हो तो कोई काम बुरा नहीं है।
दलित लेखकों का एक वर्ग इस बात पर जोर दे रहा है कि अगर दलितों तरक्की करनी है तो उन्हे अंग्रेजी सीखनी होगी। ये बात सही है, और दलित ही नहीं- हर वर्ग के लिए सही है। लेकिन हमें याद रखनी चाहिए अग्रेजी सीखना एक क्रमिक प्रक्रिया है और इसके सहारे एक बड़े वर्ग के विकास का लंबे समय तक इंतजार नहीं किया जा सकता। इस वर्ग में दलित ही नहीं कई दूसरे वर्गों के लोग भी शामिल है।
आज के हिंदुस्तान में अंग्रेजी न जानने वाला तकरीबन हर हिंदुस्तानी कई स्तरों पर भेदभाव का शिकार है। तो क्या कोई बीच का रास्ता नहीं निकाला जा सकता जिससे अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भी सम्मानजनक जिंदगी जीने का रास्ता खुलता हो ? जो लोग सिर्फ अंग्रेजी के सहारे विकास की बात करते हैं वे प्रकारांतर से उसी समाजिक समूहों के हाथ में पूरी शक्ति देने की वकालत करते हैं जिसमें दलितों मौजूदगी शून्य से ज्यादा नहीं है। दुर्भाग्य से ये विमर्श आजादी के बाद से ही चल रहा है लेकिन इससे निपटने का कोई रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा।
इसके लिए हाल ही का एक उदाहरण देना काफी है। ताजा लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने जब अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करने की बात की तो जिस तरह का हाय तौबा मचा उससे .यहीं लगता है कि प्रवुद्धजनों,, हालात और तंत्र में अग्रेजी ने किस कदर अपना जड़ जमाया है। भाषाई विमर्श दलित हितों से सीधे जुड़ा हुआ है। या तो पूरे हिंदुस्तान में सरकारी स्तर पर अंग्रेजी की संस्थागत और ठोस पढ़ाई की व्यवस्था की जानी चाहिए या फिर उच्च स्तर पर भी क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई की माकूल व्यवस्था होनी चाहिए और नौकरियों में अंग्रेजी के आतंक को खत्म किया जाना चाहिए।
लेकिन सवाल ये है कि निजी क्षेत्र क्यों अंग्रेजी छोड़ेगा और क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाएगा ? यहां फिर से सरकारी प्रोत्साहन की जरुरत है। सरकार को ऐसा कुछ करना होगा- चाहे वो प्रोत्साहनात्मक हो या निषेधात्मक- कि भाषाई आधार पर किसी से भेदभाव न किया जाए। सरकार क्षेत्रीय और राष्ट्रीय भाषा में कामकाज करनेवाली कंपनी को प्रोत्साहित कर सकती है। इसके आलावा सरकार क्षेत्रीय भाषाओं में ज्ञान के कई विषयों की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहन दे सकती है। हरेक भाषा में अनुवाद और मौलिक लेखन को प्रोत्साहित कर के सामग्री की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए बड़ी इच्छाशक्ति की आवश्यकता है जो हमारे नेतृत्व में नहीं दिखती।(जारी)
Saturday, May 23, 2009
Friday, May 22, 2009
दलित, समाज, सरकार और हकीकत-5
सवाल सिर्फ इतना ही नहीं है। आज के युग में जब अधिकांश नौकरियां निजी क्षेत्र से आ रहीं हैं तो दलितों के लिए यहां दोहरा संकट है। एक तो यहां आरक्षण नहीं है दूसरी बात ये अंग्रेजी एक बड़ी वाध्यता है। निजी क्षेत्र की अधिकांश अच्छी नौकरियों में अंग्रेजी का ज्ञान जरुरी है। यहां अगर सरकार और निजी क्षेत्र मिलजुल कर काम करे तो बात बन सकती है। इसका अच्छा उदाहरण मायावती का फॉर्मूला हो सकता था जिसमें एक खास फीसदी में दलितों को आरक्षण देने पर सरकार नजी क्षेत्रों को कुछ रियायते देती। लेकिन ये फॉर्मूला पूरे देश के स्तर पर लागू नहीं हो पाया है।
दूसरी बात ये कि कई नौकरियां ऐसी हैं जहां तकनीकी दक्षता की ज्यादा जरुरत होती है और भाषाई ज्ञान कम चाहिए होता है। सरकार ऐसे क्षेत्रों को तलाश कर दलितों के बच्चों को वहां पढ़ा सकती है जिससे वो आसानी से नौकरी हासिल कर सकें। सरकार को ज्यादा से ज्यादा आईटीआई और वोकेशनल कोर्स के संस्थान खोलने चाहिए या फिर प्राइवेट क्षेत्र को इसमें पूंजी लगाने के लिए हौसलाआफजाई करनी चाहिए। हमारे देश में मोटी तनख्वाह वाली नौकरी तो पैदा हो गई है लेकिन यहां जरुरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा छोटी नौकरियां पैदा की जाएं जिससे लाखों लोगों को खपाया जा सके।
हमारे यहां कृषि क्षेत्र को अभीतक पूरी तरह खंगाला नहीं गया है। जैसा कि मैंने हरियाणा में देखा-वहां की सरकार अब कृषि उत्पादन बढ़ाने की जगह कृषि विविधिकरण पर जोर दे रही है। चूंकि देश अब खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है इसलिए खेती को ऐसे दिशा में मोड़ने में जरुरत है कि कम जमीन में ज्यादा से ज्यादा आमदनी हो सके। देश में अब फलों, सब्जियों और अन्य वाणिज्यिक खेती को बढ़ावा देने की नीति पर विचार होनी चाहिए। दुग्ध उत्पादन, अंडा, मांस, मधुमक्खी, मशरुम और मछली के उत्पादन पर सरकार को बड़ी नीति बनाने की जरुरत है। इससे रोजगार का विकेंद्रीकरण होगा और बड़ी आबादी को फायदा होगा जिससे दलित भी लाभान्वित होंगे।
दूसरी बात दलितों में कई ऐसी जातियां हैं जो हस्तकरघा और कलाकृतियां बनाती हैं। बांस की टोकड़िया, चटाईयां, बेंत की कुर्सियां और मिट्टी के बरतन जैसी कई चीजें हैं जो अभी तक सिर्फ स्थानीय बाजार में ही खपती है। बड़े पैमाने पर इनके कारोबार की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार को इस दिशा में भी सोचना होगा। हमारी सरकार इन सब चीजों को लेकर उदासीन है। हमने कोई ऐसी बड़ी नीति नहीं बनाई है या उसे बढ़ावा नहीं दिया है कि इसका बाजार बन सके और इसका विज्ञापन हो। हमें इन सब बातों को चिह्नित करना होगा कि वे कौन से तरीके हैं जिससे आमलोगों को फायदा हो।(जारी)
दूसरी बात ये कि कई नौकरियां ऐसी हैं जहां तकनीकी दक्षता की ज्यादा जरुरत होती है और भाषाई ज्ञान कम चाहिए होता है। सरकार ऐसे क्षेत्रों को तलाश कर दलितों के बच्चों को वहां पढ़ा सकती है जिससे वो आसानी से नौकरी हासिल कर सकें। सरकार को ज्यादा से ज्यादा आईटीआई और वोकेशनल कोर्स के संस्थान खोलने चाहिए या फिर प्राइवेट क्षेत्र को इसमें पूंजी लगाने के लिए हौसलाआफजाई करनी चाहिए। हमारे देश में मोटी तनख्वाह वाली नौकरी तो पैदा हो गई है लेकिन यहां जरुरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा छोटी नौकरियां पैदा की जाएं जिससे लाखों लोगों को खपाया जा सके।
हमारे यहां कृषि क्षेत्र को अभीतक पूरी तरह खंगाला नहीं गया है। जैसा कि मैंने हरियाणा में देखा-वहां की सरकार अब कृषि उत्पादन बढ़ाने की जगह कृषि विविधिकरण पर जोर दे रही है। चूंकि देश अब खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है इसलिए खेती को ऐसे दिशा में मोड़ने में जरुरत है कि कम जमीन में ज्यादा से ज्यादा आमदनी हो सके। देश में अब फलों, सब्जियों और अन्य वाणिज्यिक खेती को बढ़ावा देने की नीति पर विचार होनी चाहिए। दुग्ध उत्पादन, अंडा, मांस, मधुमक्खी, मशरुम और मछली के उत्पादन पर सरकार को बड़ी नीति बनाने की जरुरत है। इससे रोजगार का विकेंद्रीकरण होगा और बड़ी आबादी को फायदा होगा जिससे दलित भी लाभान्वित होंगे।
दूसरी बात दलितों में कई ऐसी जातियां हैं जो हस्तकरघा और कलाकृतियां बनाती हैं। बांस की टोकड़िया, चटाईयां, बेंत की कुर्सियां और मिट्टी के बरतन जैसी कई चीजें हैं जो अभी तक सिर्फ स्थानीय बाजार में ही खपती है। बड़े पैमाने पर इनके कारोबार की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार को इस दिशा में भी सोचना होगा। हमारी सरकार इन सब चीजों को लेकर उदासीन है। हमने कोई ऐसी बड़ी नीति नहीं बनाई है या उसे बढ़ावा नहीं दिया है कि इसका बाजार बन सके और इसका विज्ञापन हो। हमें इन सब बातों को चिह्नित करना होगा कि वे कौन से तरीके हैं जिससे आमलोगों को फायदा हो।(जारी)
Tuesday, May 12, 2009
मायावती, अम्बेदकर, सेक्यूलरिज्म और बीजेपी
मायावती ने सत्ता हासिल करने के लिए जितनी भी कलाबाजियां खाईं हों लेकिन उनकी पार्टी अम्बेदकर के विचारों को ही पूरा करने का दंभ भरती है। कई लिखित साक्ष्यों से ये साबित हुआ है कि अम्बेदकर के मन में इस्लाम को लेकर कोई अच्छी धारणा नहीं थी। अम्बेदकर ने जब धर्म परिवर्तन का फैसला लिया तो उनको मनाने कई इसाई मिशनरियां, इस्लामिक और सिख धर्माचार्य भी पहुंचे थे लेकिन अम्बेदकर ने सबको ठुकरा कर बौद्ध धर्म चुना था। शायद अम्बेदकर के मन में ये बात थी कि जिन दलितों ने अतीत में इस्लाम, इसाई और सिख धर्म अपनाया था उनकी हालात जस की तस ही रही, समाजिक-आर्थिक रुप से उनमें कोई खास बदलाव नहीं आय़ा। अम्बेदकर की मुख्य लड़ाई हिंदू धर्म में भेदभाव को लेकर थी और वे दलितों को इस ढ़ांचे में सम्मानजनक स्थान दिलाना चाहते थे। जब एक हिंदू धर्माचार्य अम्बेदकर के पास हिंदू धर्म में ही बने रहने का आग्रह कर रहे थे तो अम्बेदकर ने उनसे कहा भी था कि क्या हिंदू समाज, शंकराचार्य के पद पर एक दलित को स्वीकार कर लेगा ?
कुल मिलाकर अम्बेदकर हिंदू समाज के आंतरिक सुधार को लेकर ज्यादा चिंतित थे। ये विचारधारा आरएसएस के विचारधारा से मेल खाती है लेकिन फर्क यह है कि आरएसएस सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया में यकीन रखता है और इसके सुधार का मॉडल ऊपर से नीचे की ओर है जबकि अम्बेदकर इस क्रम को पलटना चाहते थे। दूसरी बात ये कि आरएसएस का विचार गैर-हिंदू सम्प्रदायों के विद्वेष पर टिका है, जिससे अम्बेदकर सहमत नहीं थे।
तो मायावती ऐसे स्कूल की छात्रा रही हैं जिसमें इस्लाम को लेकर कोई ज्यादा लगाव नहीं है। गौरतलब है कि मायावती या उनके मेंटर कांशीराम ने कभी भी हिंदू धर्म से अलग होने की बात नहीं की। कई विश्लेषकों का ये भी मानना है कि दलित जहां भी सशक्त होते हैं या उनमें सशक्तिकरण की भावना आती हैं वो हिंदुत्ववादियों के पाले में चले जाते हैं, उनका हिंदूकरण हो जाता है। इसका उदाहरण गुजरात और दूसरे कई जगहों के दंगे हैं जहां दलितों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया या उनका इस्तेमाल किया गया।
दूसरी बात ये कि हिंदुस्तान में सदियों से जो तबका सबसे गरीब और बंचित रहा है उनमें दलित और मुसलमानों की तादाद खासी है। कई बार दोनों वर्गों के आर्थिक हित भी टकराते हैं और उनमें विद्वेष पनपता है।
कुल मिलाकर अम्बेदकर हिंदू समाज के आंतरिक सुधार को लेकर ज्यादा चिंतित थे। ये विचारधारा आरएसएस के विचारधारा से मेल खाती है लेकिन फर्क यह है कि आरएसएस सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया में यकीन रखता है और इसके सुधार का मॉडल ऊपर से नीचे की ओर है जबकि अम्बेदकर इस क्रम को पलटना चाहते थे। दूसरी बात ये कि आरएसएस का विचार गैर-हिंदू सम्प्रदायों के विद्वेष पर टिका है, जिससे अम्बेदकर सहमत नहीं थे।
तो मायावती ऐसे स्कूल की छात्रा रही हैं जिसमें इस्लाम को लेकर कोई ज्यादा लगाव नहीं है। गौरतलब है कि मायावती या उनके मेंटर कांशीराम ने कभी भी हिंदू धर्म से अलग होने की बात नहीं की। कई विश्लेषकों का ये भी मानना है कि दलित जहां भी सशक्त होते हैं या उनमें सशक्तिकरण की भावना आती हैं वो हिंदुत्ववादियों के पाले में चले जाते हैं, उनका हिंदूकरण हो जाता है। इसका उदाहरण गुजरात और दूसरे कई जगहों के दंगे हैं जहां दलितों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया या उनका इस्तेमाल किया गया।
दूसरी बात ये कि हिंदुस्तान में सदियों से जो तबका सबसे गरीब और बंचित रहा है उनमें दलित और मुसलमानों की तादाद खासी है। कई बार दोनों वर्गों के आर्थिक हित भी टकराते हैं और उनमें विद्वेष पनपता है।
दूसरी अहम बात हाल की घटनाओं से ताल्लुक रखती है। पिछले सालों में जिस तरह राहुल गांधी ने दलितों को अपने पाले में लाने के लिए प्रयास किए हैं मायावती उससे सशंकित है। ये बात गौरकरने लायक है कि पूरे देश में जहा बीएसपी का ढ़ांचा नहीं है वहां दलित अभी भी कांग्रेस को वोट करता है। मायावती को लगता है कि अगर कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई तो वो सरकारी संसाधन के बल पर ऐसी-ऐसी योजनाएं बनाएगी जो दलितों को फिर से कांग्रेस की तरफ मोड़ सकती है। लालु-मुलायम, मुसलमानों के बारे में ये चोट बिहार-यूपी में सहला रहे हैं जब कांग्रेस ने केंद्र में रहकर अल्पसंख्यकों के लिए योजनाओं का पिटारा खोल दिया। दूसरी बात ये कि मुलायम सिंह यादव के फिर से कांग्रेस पाले में जाने की संभावना है, और मुलायम ने अपनी शर्त रख भी दी है कि जो भी सरकार मायावती को बर्खास्त करेगी वे उसी को समर्थन देंगे। कुलमिलाकर माया को खतरा, बीजेपी से नहीं-कांग्रेस से ज्यादा है।
ऐसी स्थिति में मायावती क्यों अपनी सियासी आत्महत्या चाहेंगी ? कांग्रेस और बीएसपी दोनो जानती है कि बीएसपी के विस्तार से अगर किसी को घाटा है तो वो कांग्रेस ही है। ऐसे में मायावती पहले अपनी जान बचाना पसंद करेंगी क्योंकि वो जानती हैं कि अगर फिर से कांग्रेस सत्ता में आई तो वो सीबीआई के चंगुल से नहीं बच पाएंगी।
ऐसे में मायावती का सेक्यूलर होना कोई मायने रखता है ? उनके वरुण गांधी पर रासुका लगाने को जो लोग उसके सेक्यूलर हृदय से जोड़कर देखते हैं उन्हे ये समझनी चाहिए कि मायावती बीजेपी के सहयोग से ही यूपी की तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं।
ऐसी स्थिति में मायावती क्यों अपनी सियासी आत्महत्या चाहेंगी ? कांग्रेस और बीएसपी दोनो जानती है कि बीएसपी के विस्तार से अगर किसी को घाटा है तो वो कांग्रेस ही है। ऐसे में मायावती पहले अपनी जान बचाना पसंद करेंगी क्योंकि वो जानती हैं कि अगर फिर से कांग्रेस सत्ता में आई तो वो सीबीआई के चंगुल से नहीं बच पाएंगी।
ऐसे में मायावती का सेक्यूलर होना कोई मायने रखता है ? उनके वरुण गांधी पर रासुका लगाने को जो लोग उसके सेक्यूलर हृदय से जोड़कर देखते हैं उन्हे ये समझनी चाहिए कि मायावती बीजेपी के सहयोग से ही यूपी की तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं।
Saturday, May 9, 2009
दलित, समाज, सरकार और हकीकत- 4
एक सवाल ये भी है कि दलितों के बच्चों को कमसे कम क्लास दसवीं तक कैसे स्कूल में रोक कर रखा जाए। देखने में ये आया है कि जैसे ही वो 12-14 साल के होते हैं उनपर परिवार चलाने की जिम्मेवारी आ जाती है, उनका परिवार इतना बड़ा होता है, उनके परिवार में अशिक्षा-जनित जागरुकता की कमी इतनी होती है कि उन्हे पढ़ाई जारी रखने में बड़ी मशक्कत होती है। सरकार ने स्कूलों में दोपहर का भोजन लागू करके इस दिशा में थोड़ा सा प्रयास किया है लेकिन सिर्फ ये कदम काफी नहीं है।
दोपहर का भोजन तो सिर्फ मिडिल स्कूल तक ही मिल पाता है, उससे आगे ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं है। हमारे देश के स्कूलों में सबसे ज्यादा ड्रॉप आउट दर अगर किसी की है तो वो दलितों के बच्चों की ही है। अगर यहां हम उनकी तुलना आदिवासियों से करें तो वहां स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। सरकार से इतर इसाई मिशन और कई दूसरे संस्थाओं ने वहां शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर काम किया है, लेकिन दलितों के लिए खासकर के मैदानों में रहनेवाले दिलितों के बीच ये संस्थाएं काम नहीं कर रही। अभी तक हमारे देश की सरकारें इस ड्राप आउट को रोकने का कोई मुकम्मल तरीका नहीं खोज पाईं हैं।
यहां मामला उलझ जाता है। हमारी व्यवस्था ने संविधान में दलितों को आबादी के हिसाब से आरक्षण देकर अपने आपको जिम्मेदारियों से मुक्त कर लिया है। तो फिर सवाल ये है कि जिस वर्ग के पास जमीन नहीं है, शिक्षा में तमाम दिक्कते हैं वो अपनी तरक्की कैसे करे। क्या सिर्फ उसके घर के पास स्कूल खोल देने से वो अपनी पढ़ाई पूरी करके उन वर्गों के समकक्ष आ पाएगा जिनके घर पीढ़ियों से शिक्षा की ज्योति और संसाधनों की बरसात में नहाए हुए हैं ?
यहां कुछ साहसिक कदम उठाने की जरुरत है। सरकार कुछ ऐसे प्रोत्साहन के कदम उठा सकती है जिससे दलितों के बच्चे कम से कम हाई स्कूल या उससे ऊपर तक की शिक्षा ले सके। सरकार दलितों के बच्चों को प्रतिदिन कक्षा में उपस्थित होने के एवज में एक न्यूनतम राशि दे सकती है और ऐसे स्कूलों को सम्मानित कर सकती है जहां दलितों के बच्चे अच्छा परफॉर्म करते हों।
सरकार ऐसा भी कर सकती है कि दलितों के लिए एक न्यूनतम शिक्षा स्तर के बाद एक ब्याजमुक्त कर्ज की व्यवस्था करे जिससे वो अपना कोई व्यापार खडा कर सकें। मेरा मानना है कि दलितों के लिए वैसे भी सरकार को न्यूनतम ब्याज पर व्यापारिक ऋण का इंतजाम करना चाहिए। अगर कोई दलित दसबीं पास कर जाता है तो उसे कम से कम 25,000 रुपये प्रोत्साहन राशि के तौर पर मिलनी चाहिए। ये कदम कुछ वैसा ही होगा जैसे सरकार लाड़ली योजना के तहत कई सूबों में लड़कियों के जन्म पर कुछ रकम बैंको में जमा करवाती है।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि दलितों की आबादी का एक बड़ा वर्ग मेहनत मजदूरी करके कमाता है। सरकार ने नरेगा लागू किया है जो अच्छा कदम है लेकिन इसमें न्यूनतम मजदूरी इतनी कम है कि ये नाकाफी लगता है। वर्तमान में शायद सरकार रोजगार गारंटी योजना के तहत 65 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 100 का रोजगार देती है, इसे बढ़ाकर 100 रुपये प्रतिदिन करने की जरुरत है। (जारी)
दोपहर का भोजन तो सिर्फ मिडिल स्कूल तक ही मिल पाता है, उससे आगे ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं है। हमारे देश के स्कूलों में सबसे ज्यादा ड्रॉप आउट दर अगर किसी की है तो वो दलितों के बच्चों की ही है। अगर यहां हम उनकी तुलना आदिवासियों से करें तो वहां स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। सरकार से इतर इसाई मिशन और कई दूसरे संस्थाओं ने वहां शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर काम किया है, लेकिन दलितों के लिए खासकर के मैदानों में रहनेवाले दिलितों के बीच ये संस्थाएं काम नहीं कर रही। अभी तक हमारे देश की सरकारें इस ड्राप आउट को रोकने का कोई मुकम्मल तरीका नहीं खोज पाईं हैं।
यहां मामला उलझ जाता है। हमारी व्यवस्था ने संविधान में दलितों को आबादी के हिसाब से आरक्षण देकर अपने आपको जिम्मेदारियों से मुक्त कर लिया है। तो फिर सवाल ये है कि जिस वर्ग के पास जमीन नहीं है, शिक्षा में तमाम दिक्कते हैं वो अपनी तरक्की कैसे करे। क्या सिर्फ उसके घर के पास स्कूल खोल देने से वो अपनी पढ़ाई पूरी करके उन वर्गों के समकक्ष आ पाएगा जिनके घर पीढ़ियों से शिक्षा की ज्योति और संसाधनों की बरसात में नहाए हुए हैं ?
यहां कुछ साहसिक कदम उठाने की जरुरत है। सरकार कुछ ऐसे प्रोत्साहन के कदम उठा सकती है जिससे दलितों के बच्चे कम से कम हाई स्कूल या उससे ऊपर तक की शिक्षा ले सके। सरकार दलितों के बच्चों को प्रतिदिन कक्षा में उपस्थित होने के एवज में एक न्यूनतम राशि दे सकती है और ऐसे स्कूलों को सम्मानित कर सकती है जहां दलितों के बच्चे अच्छा परफॉर्म करते हों।
सरकार ऐसा भी कर सकती है कि दलितों के लिए एक न्यूनतम शिक्षा स्तर के बाद एक ब्याजमुक्त कर्ज की व्यवस्था करे जिससे वो अपना कोई व्यापार खडा कर सकें। मेरा मानना है कि दलितों के लिए वैसे भी सरकार को न्यूनतम ब्याज पर व्यापारिक ऋण का इंतजाम करना चाहिए। अगर कोई दलित दसबीं पास कर जाता है तो उसे कम से कम 25,000 रुपये प्रोत्साहन राशि के तौर पर मिलनी चाहिए। ये कदम कुछ वैसा ही होगा जैसे सरकार लाड़ली योजना के तहत कई सूबों में लड़कियों के जन्म पर कुछ रकम बैंको में जमा करवाती है।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि दलितों की आबादी का एक बड़ा वर्ग मेहनत मजदूरी करके कमाता है। सरकार ने नरेगा लागू किया है जो अच्छा कदम है लेकिन इसमें न्यूनतम मजदूरी इतनी कम है कि ये नाकाफी लगता है। वर्तमान में शायद सरकार रोजगार गारंटी योजना के तहत 65 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 100 का रोजगार देती है, इसे बढ़ाकर 100 रुपये प्रतिदिन करने की जरुरत है। (जारी)
Sunday, May 3, 2009
दलित, समाज, सरकार और हकीकत- 3
फिर सवाल ये है कि इन तमाम वाधाओं के रहते हुए एक दलित क्या करे ? क्या वो अपने मेहनत की गाढ़ी कमाई बैंक में महज कुछेक फीसदी ब्याज के लिए जमा करता जाए और एक उपभोक्ता बन कर रह जाए या फिर अपनी उत्पादकता भी बढ़ाए। अगर सरकार इस दिशा में कुछ पहल करे तो बात बन सकती है।
जिस तरह दिल्ली में या कुछेक दूसरे सूबों में भी जमीन की रजिस्ट्री पत्नी के नाम पर कराने से उसके फीस में कुछेक फीसदी की माफी मिलती है उसी तरह का कुछ कानून दलितों के हक में बने तो कुछ उम्मीद जग सकती है। सरकार संसद में अगर इस तरह का कानून पास करती है तो ये शायद दलितों के हक में बड़ी बात होगी। दुर्भाग्य से दलित हितों की बात करनेवालों के एजेंडे से ये बात अभी तक गायब है।
दूसरी बात ये कि सरकार को ये भी ध्यान रखना होगा कि योजनाएं बनाते समय इस बात का ज्यादा से ज्यादा खयाल रखा जाए कि उस योजना से दलितों को ज्यादा लाभ मिले। मसलन कोई हाईवे या हास्पिटल या फिर कॉलेज ऐसे इलाके में खोला जाए जहां दलितों की आबादी सघन हो या नजदीक हो। इसके लिए सरकार को व्यापक तौर पर एक सर्वे करना होगा कि देश के किन कुछेक सौ-ब्लॉक में दलितों की आबादी सघन है। ये पहल सच्चर कमेटी की उस रिपोर्ट से मिलती जुलती होगी जिसमें उसने देश के तकरीबन 90 ब्लॉकों में अल्पसंख्यकों के लिए खास योजनाएं बनाने की सिफारिश की है। इसमें कोई शक नहीं कि इससे फायदा दूसरे समुदायों को भी होगा, लेकिन हमें ये बात समझनी होगी कि अगर हमनें दलितों को फोकस में रखा तो पूरे देश की भलाई होगी।
जहां तक मुझे याद है इससे मिलता-जुलता सुझाव दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भोपाल घोषणापत्र में भी किया गया था जिसमें दलितों के सर्वांगीण के लिए कई सुझाव सामने आए थे, लेकिन उसमें भी ठेकेदारी और टेंडरों में दलितों की भागीदारी को ही ज्यादा प्रकाशित किया गया। जाहिर है, ऐसे उपाय दलितों के लिए प्रतीकात्मक तो हो सकते हैं कि उनके समुदाय से कुछेक लोग करोड़पति ठेकेदार हों जाए लेकिन उनकी विशाल आबादी को मुख्यधारा में लाने के लिए बड़े उपाय करने होंगे।
मुझे याद है कि किस तरह बुनियादी ढ़ांचा नजदीक होने से कोई दलित आसानी से आगे बढ़ जाता है। मेरे गांव में हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती है। इसका फायदा ये हुआ कि नजदीक में हाईस्कूल होने से मेरे गांव के कई दलित लड़के लड़कियां दसबीं तक पढ़ पाए लेकिन वहीं बगल के गांव में जहां हाईस्कूल नहीं है दलितों के बच्चे प्राइमरी से ज्यादा नहीं पढ़ पाए। मेरे गांव के हाईस्कूल में दूसरे गांव के गैरदलितों के बच्चे भी आते थे जिनमें जागरुकता का स्तर बहुत ज्यादा था। लेकिन दलितों का दुर्भाग्य उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ रहा था, वे प्राइमरी के बाद 12-14 साल की उम्र में अपने मामा या चाचा के साथ दिल्ली-मुम्बई की फैक्ट्रियों, कोठियों और दुकानों में अपना सस्ता श्रम बेचने को रेलगाड़ियों में सबार हो जाते थे।(जारी)
जिस तरह दिल्ली में या कुछेक दूसरे सूबों में भी जमीन की रजिस्ट्री पत्नी के नाम पर कराने से उसके फीस में कुछेक फीसदी की माफी मिलती है उसी तरह का कुछ कानून दलितों के हक में बने तो कुछ उम्मीद जग सकती है। सरकार संसद में अगर इस तरह का कानून पास करती है तो ये शायद दलितों के हक में बड़ी बात होगी। दुर्भाग्य से दलित हितों की बात करनेवालों के एजेंडे से ये बात अभी तक गायब है।
दूसरी बात ये कि सरकार को ये भी ध्यान रखना होगा कि योजनाएं बनाते समय इस बात का ज्यादा से ज्यादा खयाल रखा जाए कि उस योजना से दलितों को ज्यादा लाभ मिले। मसलन कोई हाईवे या हास्पिटल या फिर कॉलेज ऐसे इलाके में खोला जाए जहां दलितों की आबादी सघन हो या नजदीक हो। इसके लिए सरकार को व्यापक तौर पर एक सर्वे करना होगा कि देश के किन कुछेक सौ-ब्लॉक में दलितों की आबादी सघन है। ये पहल सच्चर कमेटी की उस रिपोर्ट से मिलती जुलती होगी जिसमें उसने देश के तकरीबन 90 ब्लॉकों में अल्पसंख्यकों के लिए खास योजनाएं बनाने की सिफारिश की है। इसमें कोई शक नहीं कि इससे फायदा दूसरे समुदायों को भी होगा, लेकिन हमें ये बात समझनी होगी कि अगर हमनें दलितों को फोकस में रखा तो पूरे देश की भलाई होगी।
जहां तक मुझे याद है इससे मिलता-जुलता सुझाव दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भोपाल घोषणापत्र में भी किया गया था जिसमें दलितों के सर्वांगीण के लिए कई सुझाव सामने आए थे, लेकिन उसमें भी ठेकेदारी और टेंडरों में दलितों की भागीदारी को ही ज्यादा प्रकाशित किया गया। जाहिर है, ऐसे उपाय दलितों के लिए प्रतीकात्मक तो हो सकते हैं कि उनके समुदाय से कुछेक लोग करोड़पति ठेकेदार हों जाए लेकिन उनकी विशाल आबादी को मुख्यधारा में लाने के लिए बड़े उपाय करने होंगे।
मुझे याद है कि किस तरह बुनियादी ढ़ांचा नजदीक होने से कोई दलित आसानी से आगे बढ़ जाता है। मेरे गांव में हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती है। इसका फायदा ये हुआ कि नजदीक में हाईस्कूल होने से मेरे गांव के कई दलित लड़के लड़कियां दसबीं तक पढ़ पाए लेकिन वहीं बगल के गांव में जहां हाईस्कूल नहीं है दलितों के बच्चे प्राइमरी से ज्यादा नहीं पढ़ पाए। मेरे गांव के हाईस्कूल में दूसरे गांव के गैरदलितों के बच्चे भी आते थे जिनमें जागरुकता का स्तर बहुत ज्यादा था। लेकिन दलितों का दुर्भाग्य उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ रहा था, वे प्राइमरी के बाद 12-14 साल की उम्र में अपने मामा या चाचा के साथ दिल्ली-मुम्बई की फैक्ट्रियों, कोठियों और दुकानों में अपना सस्ता श्रम बेचने को रेलगाड़ियों में सबार हो जाते थे।(जारी)
Saturday, May 2, 2009
दलित, समाज, सरकार और हकीकत-2
आजादी के तकरीबन छह दशक बाद भी दलितों की मूल समस्याएं क्या हैं। दलितों की मूल समस्या ये है कि उनके पास अभी भी देश में उपलब्ध भौतिक परिसंपत्तियों का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है जिसके फलस्वरुप गरीबी और उससे पैदा हुई तमाम तकलीफों का समना दलितों को करना पड़ता है। गरीबी की वजह से दलितों में भयावह अशिक्षा है, उनकी जन्मदर ज्यादा है और वो सिर्फ शारीरिक श्रम के बदौलत जीवन जीने को अभिशप्त हैं। उनमें अशिक्षा की एक वजह सदियों के शोषण और समाजिक पृथिक्करण-अलगाव-भेदभाव की वजह से कम जागरुकता का होना भी है जैसा कि अन्य समुदायों में नहीं है। तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद अत्यधिक आकांक्षा और संघर्ष के बल पर ही एक दलित आगे बढ़ पाता है। इसको आप सोसलाईजेशन भी कह सकते है। उनके पास उस सोसलाईजेशन का अभाव है जो किसी सवर्ण या पिछड़े को स्वभाविकत: ही तरक्की करने का हौसला देती है।
दलितों में सोशलाईजेशन न होने की मुख्य वजह हमारे समाज की क्रूर संरचना है जिसने उन्हे गांव से अलग या फिर एक खास लोकेलिटी में बसने को मजबूर किया है। वो लोगों से उस तरीके से घुलमिल नहीं पाते जिस तरह से दूसरे वर्ग के बच्चे मिलते जुलते हैं। अभी भी गांवो में दलितों का मेलजोल दूसरे वर्गों के साथ सिर्फ कामकाजी स्तर तक सीमित है, वो समाजिक रुप नहीं ले पाया है। इससे वो उन तमाम अनुभवों, सूचनाओं और रास्तों से बंचित हो जाते हैं जो अन्य समुदायों को सहज सुलभ है। इस बात को शहरी आईने में नहीं समझा जा सकता जहां आईआईटी या दूसरे संस्थानों में सारे बच्चे परस्पर घुलमिल कर रहते हैं। हलांकि यदाकदा वहां भी इस तरह के भेदभाव की खबर आती ही रहती है।
भौतिक परिसंपत्तियों में उनकी भागीदारी और सोशलाईजेशन सिर्फ ऐसी समस्या नहीं है जिसे जादू की छड़ी से दूर की जा सके। दरअसल यह एक मनोविज्ञान है जिसका इलाज सिर्फ सर्वांगीन साक्षरता और समाजिक आन्दोलनों से ही संभव है।
लेकिन सवाल ये है कि भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी कैसे बढ़े ? ध्यान देने की बात ये भी है कि यहां हम खाते पीते शहरी-सरकारी नौकरीवाले दलित की बात नहीं कर रहे। भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी का एक रास्ता देश में सही ढ़ंग से लागू किया गया भूमिसुधार हो सकता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं सका। दूसरा रास्ता ये है कि दलित अपने मेहनत के बल पर जमीन खरीदें और अपनी उत्पादकता बढ़ाएं। लेकिन इस राह में भी तमाम बाधाएं है।
दरअसल, सदियों के छूआछूत की प्रथा की वजह से दलितों का मेलजोल अभीतक जमीन की मल्कियत रखनेवाले वर्गों के साथ नहीं हो पाया है। तकरीबन पूरे हिंदुस्तान की जमीन या तो सवर्णों के कब्जे में हैं या मध्यमवर्ती दबंग जातियों के। ऐसे में जब कोई जमीन बिकता भी है तो वो सवर्णों के हाथ से निकलकर मध्यमवर्ती जातियों के हाथ ही आता है। ऐसा अक्सर होता है कि उचित मूल्य देने का बावजूद एक दलित वो जमीन नहीं खरीद पाता जबकि मध्यमवर्ती जातियां वो जमीन उसी दर पर ले लेती है। ऐसा किसी नीति के तहत भले ही न किया जाता हो, लेकिन समाज की संरचना ही ऐसी है कि अमूमन ऐसा ही होता है।
इसे समझने के लिए कई बातें समझनी आवश्यक है। हमारे देश में जातियों का ऐसा पदानुक्रम बना हुआ है जिसमें दलितों को छूआछूत की वजह से गांवों में कई ऐसे काम नहीं मिल पाते जो वो आसानी से कर सकते हैं। उत्तर भारत में खासकर बिहार की बात करें तो पानी चलनेवाली जातियों का एक सिद्धांत हैं। इसके मुताबिक गैर-दलित जातियों का पानी ब्राह्मण और सवर्ण पी सकते हैं। इसके वजह से घरेलू काम करने और समाजिक मेलजोल बढ़ाने में मध्यमवर्ती जातियों को आसानी होती है जो उनके व्यापक सोशलाईजेशन का आधार है। ये काम दलितों के लिए बर्जित हैं। उदाहरण के लिए एक यादव, कोईरी, कुर्मी या नाई एक ब्राह्मण के घर उसी थाली में या उसी के कप में चाय पी सकता है जबकि दलित ऐसा नहीं कर सकते।
दलितों के साथ इतना अन्याय किया गया है, उन्हे इतना अलग थलग रखा गया है कि किसी भी गैर-दलित का पंडित ब्राह्मण ही होता है लेकिन दलितों के यहां ब्राह्मण पूजा करवाने नहीं जाते। ये ऐसी भयावह स्थिति है जिसमें किसी भी मध्यमवर्ती जाति को सवर्णों के साथ उठने बैठने और घुलने मिलने में आसानी होती है जबकि दलितों के साथ ऐसा नहीं हो पाता। कुल मिलाकर मध्यमवर्ती जातियां, सवर्णों से समाजिक रुप से ज्यादा निकट हैं और इसका फायदा उन्हे तमाम चीजों में मिला है। यहीं पर जब भौतिक संपत्तियों के हस्तांतरण की बात आती है तो दलित पीछे छूट जाता है। उसे लाख काबिलियत के बावजूद इसका एक छोटा सा हिस्सा ही मिल पाता है, और फिर सरकारी प्रयासों का ही आसरा रह जाता है।(जारी)
दलितों में सोशलाईजेशन न होने की मुख्य वजह हमारे समाज की क्रूर संरचना है जिसने उन्हे गांव से अलग या फिर एक खास लोकेलिटी में बसने को मजबूर किया है। वो लोगों से उस तरीके से घुलमिल नहीं पाते जिस तरह से दूसरे वर्ग के बच्चे मिलते जुलते हैं। अभी भी गांवो में दलितों का मेलजोल दूसरे वर्गों के साथ सिर्फ कामकाजी स्तर तक सीमित है, वो समाजिक रुप नहीं ले पाया है। इससे वो उन तमाम अनुभवों, सूचनाओं और रास्तों से बंचित हो जाते हैं जो अन्य समुदायों को सहज सुलभ है। इस बात को शहरी आईने में नहीं समझा जा सकता जहां आईआईटी या दूसरे संस्थानों में सारे बच्चे परस्पर घुलमिल कर रहते हैं। हलांकि यदाकदा वहां भी इस तरह के भेदभाव की खबर आती ही रहती है।
भौतिक परिसंपत्तियों में उनकी भागीदारी और सोशलाईजेशन सिर्फ ऐसी समस्या नहीं है जिसे जादू की छड़ी से दूर की जा सके। दरअसल यह एक मनोविज्ञान है जिसका इलाज सिर्फ सर्वांगीन साक्षरता और समाजिक आन्दोलनों से ही संभव है।
लेकिन सवाल ये है कि भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी कैसे बढ़े ? ध्यान देने की बात ये भी है कि यहां हम खाते पीते शहरी-सरकारी नौकरीवाले दलित की बात नहीं कर रहे। भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी का एक रास्ता देश में सही ढ़ंग से लागू किया गया भूमिसुधार हो सकता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं सका। दूसरा रास्ता ये है कि दलित अपने मेहनत के बल पर जमीन खरीदें और अपनी उत्पादकता बढ़ाएं। लेकिन इस राह में भी तमाम बाधाएं है।
दरअसल, सदियों के छूआछूत की प्रथा की वजह से दलितों का मेलजोल अभीतक जमीन की मल्कियत रखनेवाले वर्गों के साथ नहीं हो पाया है। तकरीबन पूरे हिंदुस्तान की जमीन या तो सवर्णों के कब्जे में हैं या मध्यमवर्ती दबंग जातियों के। ऐसे में जब कोई जमीन बिकता भी है तो वो सवर्णों के हाथ से निकलकर मध्यमवर्ती जातियों के हाथ ही आता है। ऐसा अक्सर होता है कि उचित मूल्य देने का बावजूद एक दलित वो जमीन नहीं खरीद पाता जबकि मध्यमवर्ती जातियां वो जमीन उसी दर पर ले लेती है। ऐसा किसी नीति के तहत भले ही न किया जाता हो, लेकिन समाज की संरचना ही ऐसी है कि अमूमन ऐसा ही होता है।
इसे समझने के लिए कई बातें समझनी आवश्यक है। हमारे देश में जातियों का ऐसा पदानुक्रम बना हुआ है जिसमें दलितों को छूआछूत की वजह से गांवों में कई ऐसे काम नहीं मिल पाते जो वो आसानी से कर सकते हैं। उत्तर भारत में खासकर बिहार की बात करें तो पानी चलनेवाली जातियों का एक सिद्धांत हैं। इसके मुताबिक गैर-दलित जातियों का पानी ब्राह्मण और सवर्ण पी सकते हैं। इसके वजह से घरेलू काम करने और समाजिक मेलजोल बढ़ाने में मध्यमवर्ती जातियों को आसानी होती है जो उनके व्यापक सोशलाईजेशन का आधार है। ये काम दलितों के लिए बर्जित हैं। उदाहरण के लिए एक यादव, कोईरी, कुर्मी या नाई एक ब्राह्मण के घर उसी थाली में या उसी के कप में चाय पी सकता है जबकि दलित ऐसा नहीं कर सकते।
दलितों के साथ इतना अन्याय किया गया है, उन्हे इतना अलग थलग रखा गया है कि किसी भी गैर-दलित का पंडित ब्राह्मण ही होता है लेकिन दलितों के यहां ब्राह्मण पूजा करवाने नहीं जाते। ये ऐसी भयावह स्थिति है जिसमें किसी भी मध्यमवर्ती जाति को सवर्णों के साथ उठने बैठने और घुलने मिलने में आसानी होती है जबकि दलितों के साथ ऐसा नहीं हो पाता। कुल मिलाकर मध्यमवर्ती जातियां, सवर्णों से समाजिक रुप से ज्यादा निकट हैं और इसका फायदा उन्हे तमाम चीजों में मिला है। यहीं पर जब भौतिक संपत्तियों के हस्तांतरण की बात आती है तो दलित पीछे छूट जाता है। उसे लाख काबिलियत के बावजूद इसका एक छोटा सा हिस्सा ही मिल पाता है, और फिर सरकारी प्रयासों का ही आसरा रह जाता है।(जारी)
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