फिर सवाल ये है कि इन तमाम वाधाओं के रहते हुए एक दलित क्या करे ? क्या वो अपने मेहनत की गाढ़ी कमाई बैंक में महज कुछेक फीसदी ब्याज के लिए जमा करता जाए और एक उपभोक्ता बन कर रह जाए या फिर अपनी उत्पादकता भी बढ़ाए। अगर सरकार इस दिशा में कुछ पहल करे तो बात बन सकती है।
जिस तरह दिल्ली में या कुछेक दूसरे सूबों में भी जमीन की रजिस्ट्री पत्नी के नाम पर कराने से उसके फीस में कुछेक फीसदी की माफी मिलती है उसी तरह का कुछ कानून दलितों के हक में बने तो कुछ उम्मीद जग सकती है। सरकार संसद में अगर इस तरह का कानून पास करती है तो ये शायद दलितों के हक में बड़ी बात होगी। दुर्भाग्य से दलित हितों की बात करनेवालों के एजेंडे से ये बात अभी तक गायब है।
दूसरी बात ये कि सरकार को ये भी ध्यान रखना होगा कि योजनाएं बनाते समय इस बात का ज्यादा से ज्यादा खयाल रखा जाए कि उस योजना से दलितों को ज्यादा लाभ मिले। मसलन कोई हाईवे या हास्पिटल या फिर कॉलेज ऐसे इलाके में खोला जाए जहां दलितों की आबादी सघन हो या नजदीक हो। इसके लिए सरकार को व्यापक तौर पर एक सर्वे करना होगा कि देश के किन कुछेक सौ-ब्लॉक में दलितों की आबादी सघन है। ये पहल सच्चर कमेटी की उस रिपोर्ट से मिलती जुलती होगी जिसमें उसने देश के तकरीबन 90 ब्लॉकों में अल्पसंख्यकों के लिए खास योजनाएं बनाने की सिफारिश की है। इसमें कोई शक नहीं कि इससे फायदा दूसरे समुदायों को भी होगा, लेकिन हमें ये बात समझनी होगी कि अगर हमनें दलितों को फोकस में रखा तो पूरे देश की भलाई होगी।
जहां तक मुझे याद है इससे मिलता-जुलता सुझाव दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भोपाल घोषणापत्र में भी किया गया था जिसमें दलितों के सर्वांगीण के लिए कई सुझाव सामने आए थे, लेकिन उसमें भी ठेकेदारी और टेंडरों में दलितों की भागीदारी को ही ज्यादा प्रकाशित किया गया। जाहिर है, ऐसे उपाय दलितों के लिए प्रतीकात्मक तो हो सकते हैं कि उनके समुदाय से कुछेक लोग करोड़पति ठेकेदार हों जाए लेकिन उनकी विशाल आबादी को मुख्यधारा में लाने के लिए बड़े उपाय करने होंगे।
मुझे याद है कि किस तरह बुनियादी ढ़ांचा नजदीक होने से कोई दलित आसानी से आगे बढ़ जाता है। मेरे गांव में हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती है। इसका फायदा ये हुआ कि नजदीक में हाईस्कूल होने से मेरे गांव के कई दलित लड़के लड़कियां दसबीं तक पढ़ पाए लेकिन वहीं बगल के गांव में जहां हाईस्कूल नहीं है दलितों के बच्चे प्राइमरी से ज्यादा नहीं पढ़ पाए। मेरे गांव के हाईस्कूल में दूसरे गांव के गैरदलितों के बच्चे भी आते थे जिनमें जागरुकता का स्तर बहुत ज्यादा था। लेकिन दलितों का दुर्भाग्य उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ रहा था, वे प्राइमरी के बाद 12-14 साल की उम्र में अपने मामा या चाचा के साथ दिल्ली-मुम्बई की फैक्ट्रियों, कोठियों और दुकानों में अपना सस्ता श्रम बेचने को रेलगाड़ियों में सबार हो जाते थे।(जारी)
1 comment:
मैंने खुद देखा है कि दलितों तक जो कुछ योजनाएं पहुंचती भी है तो वह सर्वणों के खाते में जमा हो जाती है। पंचायत स्तर पर ढेर सारी योजनाएं गांव में पहुंचती है लेकिन वह दक्षिण में मौजूद दलित बस्ती के बजाय पूरब में सर्वण के अड्डे पर पहुंच जाती है।
मेरे हिसाब से कड़े कदम उठाने की जरूरत है तो ही सकारात्मक बदलाव आ सकते हैं अन्यथा यूं ही कटती रहेगी जिंदगी।
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