रायबरेली के फिरोज भाई बड़े दिलदार इंसान हैं। वे गालिब से लेकर माईकेल जेक्सन तक की बात करते हैं। हाल ही में उन्होने एक हिंदी का एक गजल सुनायी। ये गजल इलाहाबाद में रहनेवाले उनके एक मित्र एहतेराम इस्लाम ने लिखी थी जिसे मैं अपने ब्लाग पर बांटने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा...
सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद सतोष की सीमाएं..
पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....
बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...
बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...
तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...
ये गजल कुछ वामपंथी तेवर लिए हुए है, लेकिन मौजूदा दौर में लोगों की छटपटाहट और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश को बखूबी बयां कर रही है। खासकर तब, जब गरीबों के लिए इंदिरा आवास की कीमत पचीस हजार रुपये आंकी जाती हो और देश के महानगरों में कोठियों की कीमत तीन सौ करोड़ तक पहुंच गई हो।
2 comments:
दोस्त गरीबो के घरों की कीमत पर चिंता जताने से पहले िस बात पर विचार करें कि खुद गरीबों की कीमत कितनी है। वैसे अगर आम आदमी आम और गरीब नहीं रहेगा तो सत्ता की रोटियां किस तवे पर सेंकी जाएंगी?
कहां है सर आजकल .. वास्तव में ये गजलकाबिलेतारीफ है.. हमारी भी हालत कुछ ऐसी ही है..
Post a Comment