देश के बड़े नेताओं में से एक ज्योति बसु चले गए...लेकिन वे हमारी पीढ़ी के ऊपर भी एक अमिट छाप छोड़कर गए। हम इतिहास के उस काल में जी रहे हैं जब नेहरु काल के साक्षी रहे एक-एक नेता धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं और देश की हुकूमत अब उन लोगों के हाथ आ रही है जो या तो आजादी के बाद पैदा हुए या जिन्होने उस के बाद होश संभाला था। राजनीति की हमेशा से अपनी नैतिकता रही है और असंभव को संभव बनाने की कला के रुप में ये हर घड़ी..हर मिनट अपना रुप बदलती रही है। ऐसे में ज्योति बसु का जाना निश्चय ही एक बड़ा खालीपन छोड़ जाता है।
आमतौर पर हमारी पीढ़ी ज्योतिदा को एक सौम्य, सुसंस्कृत और मितभाषी नेता के रुप में जानती रही है जिन्होने अपने होने का कभी ज्यादा विज्ञापन नहीं किया। उन्होने अपने लंबे शासनकाल का कोई गुरुर नहीं पाला जबकि अक्सर उनकी पार्टी इस दंभ से पीड़ित दिखी। ज्योतिदा भारतीय इतिहास के संभवत: ऐसे पहले नेता हुए जिन्होने इमानदारी से भूमिसुधार लागू किया और ग्रामीण बंगाल में सशक्तिकरण की एक ज्योति पैदा की। आज बंगाल में सबसे कम भूमिविवाद के मामले हैं और शायद इस वजह से भी वो अपराध सूंचकांक में निचले पायदान पर है। लेकिन वे भी समझ चुके थे कि जिस बंगाल को ‘80 के दशक में उनकी सख्त जरुरत थी वो 21 वीं सदी के शुरुआत में दूसरी चुनौतियों से रुबरु हो चुका था। वाम राजनीति और ट्रेड यूनियनों के सख्त साये में बंगाल..औद्योगिकरण की दौर में पिछड़ता गया और ‘सिटी ऑफ ज्वाय’ कहा जाने वाला कलकत्ता ‘दोयम दर्जे’ का होता गया। राजीव गांधी ने एक दफा कलकत्ता को मुर्दों का शहर तक कह डाला था-जिस पर बंगाली भद्रमानुषों ने आपत्ति जताई थी। अवसरों की तलाश में छटपटाता बंगाल का मध्यवर्ग...दिल्ली-बंबई के युवाओं की तुलना में असहाय महसूस करने लगा और यहीं से बंगाल की वाम राजनीति चरमराने लगी। जिस वाम ने कभी गांवो और किसानों की सशक्तिकरण के लिए सब कुछ किया था उसी के नौजवान होते बच्चे अब वाम सरकार से उदारीकरण के दौर में अपना सही मुकाम मांग रहे थे।
लेकिन क्या ज्योति बसु को हम या हमारा इतिहास सिर्फ इसी आधार पर आंकेगा कि उनके दौर में बंगाल की जीडीपी क्या थी? या फिर उस दौर की समग्र कसौटियों पर उनकी गणना की जाएगी?
हमें याद है कि बिहार के सुदूरवर्ती गांव में जब हम होश संभाल रहे थे...उसी वक्त लोगों का नौकरी की खोज में कलकत्ता जाना कम होने लगा था। ये ‘80 के दशक की बात होगी। ‘श्रम’ ने अपना रास्ता दिल्ली, पंजाब और बंबई की ओर मोड़ लिया था। ये तय होता जा रहा था कि बंगाल के पास अब देने को पैसे नहीं है। लेकिन हमारी पूरी पीढ़ी बंगालियों की बौद्धिकता, उनकी संस्कृति और साहित्य से गजब प्रभावित थी। हम अखबार देखते तो बंगाली के रुप में ज्योतिदा ही नजर आते-वे हमारे जन्म से लेकर पूरी जवानी तक हमें बंगाल के रुप में दिखे। हम उनके व्यक्तित्व के आईने में रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर..शरत और बंकिम तक को देखते। ये यकीन ही नहीं होता कि इस सौम्य और धवल व्यक्तित्व के साये में उनकी पार्टी ‘गुंडई’ भी करती होगी।
लेकिन ये एक ज्वलंत प्रश्न है कि क्या बंगाल में सिर्फ मार्क्सबादियों की वजह से ही आर्थिक विकास रुक गया या इसके कुछ और भी कारण थे ? अगर ऐसा था तो फिर पूरा का पूरा उत्तरभारत क्यों विकास के पैरामीटर पर फिसड्डी नजर आता है।
दरअसल, भारत के मौजूदा ढ़ांचे में आर्थिक विकास कई कारकों का नतीजा है। राज्यों की हालत केंद्र के सामने वैसे भी नगरपालिका से ज्यादा नहीं-इसले अलावा देश के अलग-अलग इलाकों की भौगोलिक बनाबट इसमें बड़ा रोल अदा करती है। एक लंबे वक्त तक केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकारों के वक्त ज्योतिदा और उनकी पार्टी को ये मंजूर नहीं था कि विकास का वो ढ़ांचा स्वीकार किया जाए जो 11 फीसदी जीडीपी देती है। उन्होने साबुन और कॉस्मेटिक के क्षेत्र में निवेश को खारिज कर दिया लेकिन जब ‘सही निवेश’ की बारी आई तो हालात हाथ से निकल चुके थे। इतिहास कई बार बहुत देर से मौका देता है। बंगाल की बढ़ी हुई आबादी, ये विकल्प नहीं देती कि सिंगूर जैसी परियोजना लागू की जाए। ऐसे में ममता बनर्जी… ‘जनवाद’ और किसानों की स्वाभाविक नेता नजर आ रही है जो उस गठबंधन की सदस्य है जो वैश्विक पूंजीवाद का बेहतरीन दोस्त है।
हां, एक बात जो तय है कि ज्योतिदा...वामपंथ को पूरी तरीके से आधुनिक पपिप्रेक्ष्य में नहीं ढ़ाल पाए। वे ट्रेड यूनियनों को एक हद से ज्यादा लगाम नहीं लगा पाए और कलकत्ता की छवि बिगड़ृती चली गई। शायद इसकी एक वजह ये भी हो कि उनकी और उनके पार्टी की पूरी उर्जा गैरकांग्रेस और बाद में गैर-भाजपावाद के विकल्प को तलाशने में ही लगी रही....।
लेकिन ज्योतिदा ने जिस बंगाल को छोड़ा वो सबसे कम भेदभाव वाला राज्य था। वो समाजिक सौहाद्र और भाईचारे का अद्भुद प्रतीक बन गया। बंगाल की मौजूदा पीढ़ी अपने दिल्ली और बंगलोर के समकक्षों की तुलना में भले ही ज्योतिदा की नीतियों की आलोचना करे...लेकिन ये ज्योति बसु की नीतियों का ही नतीजा था कि उत्तरभारत में शायद पहली बार किसी राज्य में शताब्दियों से चले आ रहे समाजिक-आर्थिक भेदभाव का अंत हो सका। आज का बंगाल अगर एक साथ उड़ान भरने को व्याकुल दिख रहा है तो ये ज्योतिदा के ही नीतियों का परिणाम था-हां ज्योतिदा को जीडीपी का इतिहास जरुर माफ नहीं करेगा।
लेकिन क्या ज्योति बसु को हम या हमारा इतिहास सिर्फ इसी आधार पर आंकेगा कि उनके दौर में बंगाल की जीडीपी क्या थी? या फिर उस दौर की समग्र कसौटियों पर उनकी गणना की जाएगी?
हमें याद है कि बिहार के सुदूरवर्ती गांव में जब हम होश संभाल रहे थे...उसी वक्त लोगों का नौकरी की खोज में कलकत्ता जाना कम होने लगा था। ये ‘80 के दशक की बात होगी। ‘श्रम’ ने अपना रास्ता दिल्ली, पंजाब और बंबई की ओर मोड़ लिया था। ये तय होता जा रहा था कि बंगाल के पास अब देने को पैसे नहीं है। लेकिन हमारी पूरी पीढ़ी बंगालियों की बौद्धिकता, उनकी संस्कृति और साहित्य से गजब प्रभावित थी। हम अखबार देखते तो बंगाली के रुप में ज्योतिदा ही नजर आते-वे हमारे जन्म से लेकर पूरी जवानी तक हमें बंगाल के रुप में दिखे। हम उनके व्यक्तित्व के आईने में रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर..शरत और बंकिम तक को देखते। ये यकीन ही नहीं होता कि इस सौम्य और धवल व्यक्तित्व के साये में उनकी पार्टी ‘गुंडई’ भी करती होगी।
लेकिन ये एक ज्वलंत प्रश्न है कि क्या बंगाल में सिर्फ मार्क्सबादियों की वजह से ही आर्थिक विकास रुक गया या इसके कुछ और भी कारण थे ? अगर ऐसा था तो फिर पूरा का पूरा उत्तरभारत क्यों विकास के पैरामीटर पर फिसड्डी नजर आता है।
दरअसल, भारत के मौजूदा ढ़ांचे में आर्थिक विकास कई कारकों का नतीजा है। राज्यों की हालत केंद्र के सामने वैसे भी नगरपालिका से ज्यादा नहीं-इसले अलावा देश के अलग-अलग इलाकों की भौगोलिक बनाबट इसमें बड़ा रोल अदा करती है। एक लंबे वक्त तक केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकारों के वक्त ज्योतिदा और उनकी पार्टी को ये मंजूर नहीं था कि विकास का वो ढ़ांचा स्वीकार किया जाए जो 11 फीसदी जीडीपी देती है। उन्होने साबुन और कॉस्मेटिक के क्षेत्र में निवेश को खारिज कर दिया लेकिन जब ‘सही निवेश’ की बारी आई तो हालात हाथ से निकल चुके थे। इतिहास कई बार बहुत देर से मौका देता है। बंगाल की बढ़ी हुई आबादी, ये विकल्प नहीं देती कि सिंगूर जैसी परियोजना लागू की जाए। ऐसे में ममता बनर्जी… ‘जनवाद’ और किसानों की स्वाभाविक नेता नजर आ रही है जो उस गठबंधन की सदस्य है जो वैश्विक पूंजीवाद का बेहतरीन दोस्त है।
हां, एक बात जो तय है कि ज्योतिदा...वामपंथ को पूरी तरीके से आधुनिक पपिप्रेक्ष्य में नहीं ढ़ाल पाए। वे ट्रेड यूनियनों को एक हद से ज्यादा लगाम नहीं लगा पाए और कलकत्ता की छवि बिगड़ृती चली गई। शायद इसकी एक वजह ये भी हो कि उनकी और उनके पार्टी की पूरी उर्जा गैरकांग्रेस और बाद में गैर-भाजपावाद के विकल्प को तलाशने में ही लगी रही....।
लेकिन ज्योतिदा ने जिस बंगाल को छोड़ा वो सबसे कम भेदभाव वाला राज्य था। वो समाजिक सौहाद्र और भाईचारे का अद्भुद प्रतीक बन गया। बंगाल की मौजूदा पीढ़ी अपने दिल्ली और बंगलोर के समकक्षों की तुलना में भले ही ज्योतिदा की नीतियों की आलोचना करे...लेकिन ये ज्योति बसु की नीतियों का ही नतीजा था कि उत्तरभारत में शायद पहली बार किसी राज्य में शताब्दियों से चले आ रहे समाजिक-आर्थिक भेदभाव का अंत हो सका। आज का बंगाल अगर एक साथ उड़ान भरने को व्याकुल दिख रहा है तो ये ज्योतिदा के ही नीतियों का परिणाम था-हां ज्योतिदा को जीडीपी का इतिहास जरुर माफ नहीं करेगा।