तमिलनाडु में हाल ही में एक सब-इस्पेंक्टर की मंत्रियों के सामने बेरहमी से हत्या और उसे बचाने में अधिकारियों के द्वारा दिखाई गई अनिच्छा ऐसी पहली घटना नहीं हैं जो हमारी बढ़ रही संवेदनहीनता की तरफ इशारा करती है। ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं जिसमें कहीं किसी मीडियाकर्मी ने किसी को महज इसलिए नहीं बचाया कि उसे बेहतरीन स्टोरी मिल रही थी। रोडरेज की घटनाएं हों या फिर नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की खबर-अब ये खबरें हमारी संवेदना को नहीं झकझोड़ती। ऐसा लगता है कि हम इन घटनाओं के प्रति इम्यून होते जा रहे हैं। 6 महीने की अवोध वालिका से लेकर 80 साल की बुजु्र्ग महिला तक सुरक्षित नहीं। ऐसे में सवाल ये है कि एक मुल्क के तौर पर हम विकास के जिस स्टेज से गुजर रहे हैं, क्या वाकई वो डेवलपमेंट कहे जाने लायक है?
दरअसल, हम ऐसे नकली विकास और जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों में उलझे हुए हैं कि हमें पता ही नहीं है कि देश की जनता किन हालातों में जी रही है। हम खुश है, हमारी सरकारें खुश हैं कि 10 फीसदी ग्रोथ हो रहा है लेकिन आए दिन बेगुनाह मारे जा रहे हैं-लेकिन उस सबसे से इस ग्रोथ पर थोड़े ही कोई असर होता है। सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ अंधे विकास से हमें कुछ मिलने वाला है? हमने मानवीय मूल्यों का विकास नहीं किया है। हमने पश्चिम के उस विकास मॉडेल को अपना लिया है जिसमें पैसा कमाना ही सबसे बड़ी काबिलियत है। हमने नैतिकता की छद्म परिभाषा गढ़ ली है जिसमें किसी लड़की अपनी मर्जी से शादी करना तो खाप पंचायतों के दायरे में आता है लेकिन किसी बेगुनाह इंस्पेक्टर का मारा जाना नहीं।
आप गौर कीजिए, उन मामलों पर जिनमें मानसिक दवाब के तहत बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं-इसलिए की उनके मां-बाप उन्हे आईआईटी में जाने का दवाब डाल रहे है। हमारे देश में इतनी कम सुविधाएं पैदा की गई है कि कुछ मलाईदार जगहों के लिए लोग आपस में मर रहे हैं या मार रहे हैं। ये केंद्रीकृत विकास हमें कहीं का नहीं छोड़ रही। हम ऐसे हिंदुस्तान में जी रहे हैं जहां छोटे शहर से आनेवालों से उनकी आईडेटिटी पूछी जा रही है और गांव वाले सिर्फ भेड़बकरियों की तरह हैं!
दूसरी बात, हमारे नैतिक मूल्यों से जुड़े हैं। हम लालची और व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं और इसे पेशेवराना अंदाज कहा जा रहा है। इसकी तारीफ की जा रही है-बच्चों को यहीं सिखाया जा रहा है।
तो फिर रास्ता क्या है? हमें सोचना होगा कि हम किधर जा रहे हैं। सरकार और वुद्धजीवियों का रोल यहां अहम हो जाता है।
3 comments:
चिन्तनीय स्थितियाँ है.
सही सवाल उठाया है आप ने। इससे एक सार्थक बहस की शुरूआत जरूर होगी। अच्छा लगा आपने एक ज्वलंत और सामयिक मुद्दे को उठाया है जिसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।
सही सवाल उठाया है आप ने। इससे एक सार्थक बहस की शुरूआत जरूर होगी। अच्छा लगा आपने एक ज्वलंत और सामयिक मुद्दे को उठाया है जिसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।
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