Wednesday, August 18, 2010

चट्टान दरकी भर है...टूटी नहीं है...!

लालू-पासवान के बीच डील पक्की होने के बाद बिहार में समीकरण के हिसाब से अब लड़ाई कांटे की हो गई है। लालू प्रसाद ने माय प्लस दलित प्लस राजपूतों का एक जुझारु, मजबूत और आक्रामक गठबंधन बनाया है और माय समीकरण की आक्रामक वोटिंग के लिए खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया है। कुल मिलाकर लालू यादव के पाले में लगभग 45 फीसदी जातियों का मजबूत समीकरण है जो नीतीश के लिए बड़ी चुनौती बनकर ताल ठोक रहा है।

इधर मौसमी पंछियों ने उड़ान भड़नी शुरु कर दी है। अभी नीतीश के पाले से कुछ उड़े हैं, बाकी लालू के पिंजड़े से उड़ने को बेताब हैं। पिछले साढ़े चार सालों की तेजड़िया उछाल के बाद अचानक सुशासन बाबू की लोकप्रियता जरुर दरकी है । मुख्यमंत्री पर तानाशाही के आरोप तो पहले से ही लगते थे लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार के भी कई आरोप लग गए। इधर नीतीश के अपने ही नेता शरद यादव की वक्रदृष्टि उनपर पड़ गई। वैसे मामला अभी रफा दफा कर दिया गया है। ऊपर से सब शांत है, मुद्दा अगले चुनाव जीतने का है।

लालू ये जानते हैं कि कांग्रेस इस बार उनके मुस्लिम वोट बैंक में बड़े पैमाने पर सेंध लगाने की जुगत में है। ऐसा कांग्रेस ने बिहार में एक मुसलमान नेता को सरदारी सौंप कर अपनी मंशा जता भी दी है। दूसरी बात लालू ये भी जानते है कि कांग्रेस चुनाव में बड़े पैमाने पर धनवल का प्रयोग करेगी ताकि लालू के पाले से कम से कम आधे मुसलमानों को खींच कर लाया जा सके और आरजेडी की नैया को कोसी में डुबा दिया जाए।

लेकिन लालू की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती। अब कांग्रेस उनके यादव वोट बैंक में भी सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में यूं यादव बहादुरों-पप्पू और साधुओं ने कोई विशेष कमाल नहीं दिखाया था लेकिन कांग्रेस को फिर भी कई अपेक्षाकृत साफ सुथरे यादवों पर भरोसा है। इधर कांग्रेस ने बिहार यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी एक यादव कुंअर की बहाली कर दी है। दूसरी तरफ झंझारपुर से कई दफा सांसद रह चुके देवगौड़ा सरकार में पूर्व मंत्री देवेंद्र यादव पर भी वो डोरे डाल रही है। देवेंद्र से कांग्रेस की कई दफा वार्ता हो चुकी है लेकिन देवेंद्र यादव भी कम चतुर नहीं है। वे एक ही साथ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस- दोनों से तार जोड़े हुए हैं। वे चाहते हैं कि अगर लालू का अवसान होता है तो पूरे बिहार के यादव उन्हे अपनी सरदारी सौंप दें ! दांव जरा ऊंचा ही लगा दिया, 2014 तक की बेरोजगारी बैचेन जो किए हुए है !

खैर मामला जो भी हो , इससे संभावित नुकसान लालू का ही है। हां, उनको एक जगह जहां फायदा होता नजर आ रहा है वो ये है कि बिहार में राजपूतों का ज्यादातर वोट आरजेडी के पाले में आएगा, लेकिन देखना ये है कि कांग्रेस कितना उसका डैमेज करती है। लालू यादव के साथ बड़ी दिक्कत ये है कि उनका भूत अभी भी जिंदा है। लालू यादव अपनी पुरानी छवि से मुक्त नहीं हो पा रहे, और यहीं नीतीश की सबसे बड़ी ताकत है।

इधर मौसमी पंछियों ने पाला बदलना शुरु कर दिया है। प्रभुनाथ सिंह के आरजेडी ज्वाईन करने के बाद अब लल्लन सिंह कांग्रेस का दामन थामने वाले हैं। इधर देवेंद्र यादव, कांग्रेस और सपा दोनों कंपनियों में इंटरव्यू दे आए हैं। लोगबाग कहते हैं राजपूतों की कमी के इस युग में सुशासन बाबू भी कुछ राजपूत नेता आयात करेंगे। अफवाह है कि आरजेडी सांसद जगदानंद सिंह से उनकी एक राउंड बात भी हो गई है। इधर अपने बच्चों को देहरादून में पढ़ा रहे आनंदमोहन को भी सितारों पर यकीन हो चला है। पंडितों की इकलौती दुकान महामहोपाध्याय प्रात:स्मरणीय जगन्नाथ मिश्रा ने फिर से खोल ली है और नीतीश बाबू ने उन्हें एक एमबीए स्कूल की चेयरमैनी सौंप दी है! लेकिन इसका खतरा ये है कि पिछले चालीस साल से मिसिरजी के तमाम राजनीतिक विरोधी(इसमें पंडितों की तादाद खासी है!) चौंकन्ने हो गए हैं और ब्राह्मणों के इस स्वयंभू लास्ट मुगल को जिंदा नहीं होने देने की कसम खा रहे हैं।

बिहार में चुनाव को सिर्फ विकास केंद्रित मान लेने की बात फालतू लगती है। लोग विकास की चर्चा तो करते तो हैं लेकिन वोट देते वक्त जातीय समीकरण ज्यादा अहम हैं। नीतीश बाबू ने करीने से एक समीकरण बनाया है। मामला 50-50 का न सही, 55-45 का जरुर है। आनेवाले कुछ सप्ताहों में गोलबंदी और साफ हो जाएगी। वैसे नीतीश चाहते हैं कि चुनाव खंडित ही हों। उनका फायदा इसी में है।

पिछले 63 सालों में बिहार में किसी ने मीडिया को मैनेज किया है तो उसका नाम है नीतीश कुमार। यूं, ऐसा करके उन्होंने अपने आंखों पर खुद ही पट्टी बांध ली है। उन्हें अपने विरोध के स्वर कम ही सुनाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो ‘अंडरकरेंट’ की बात कर रहे हैं। कईयों का मानना है कि नीतीश का हाल कहीं 2004 के एनडीए जैसा न हो जाए। हलांकि लालू यादव की पुरानी छवि यहां भी नीतीश का तारणहार बनती हुई नजर आती है !

व्यक्तिगत छवि के मोर्चे पर अभी भी नीतीश मजबूत दिखते है। घोटालों के ताजा आरोपों ने लोगों लोगों के कान तो जरुर खड़े किए हैं लेकिन उसका घनघोर विरोध में कितना परिवर्तन हुआ है इसका सही आकलन किसी के पास नहीं। सुशासन बाबू सिर्फ एक ही बात से चिंतित लग रहे हैं कि कहीं कांग्रेस ज्यादा सवर्णों को टिकट न बांट दे। कुल मिलाकर नीतीश कुमार का नंबर पांच साल पहले के मुकाबले कमजोर जरुर हुआ है लेकिन अभी भी उन्हे खारिज मान लेना जल्दवाजी होगी।

लेकिन उससे भी अहम बात ये कि लालू ने अपनी दावेदारी पेशकर नीतीश को वाक ओवर दे दिया है...लालू का वोटर फिक्स था, नीतीश का बिखरा हुआ था..अब लालू के इस कदम से नीतीश का वोटर भी फिक्स हो गया है...लालू का ये कदम इस इनसेक्यूरिटी कम्प्लेक्श में उठाया गया लगता है कि कहीं यादव भी न बिखर जाए...इसके आलावा लालू की दावेदारी का कोई मतलब नहीं है...लालू, लड़ाई से पहले नतीजे का ऐलान कर चुके लगते हैं.....!

1 comment:

कामरूप 'काम' said...
This comment has been removed by a blog administrator.