अंग्रेजी के बारे में मेरे पिछले पोस्ट में मैंने अपनी तरफ से सिर्फ अनुनाद जी के लिखे बिन्दुओं की व्याख्या करने की कोशिश की थी। पिछला पोस्ट आनेवाले वक्त में दुनिया के सियासी और कारोबारी हालात में बदलाव पर आधारित था लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसे हालात होंगे जो अंग्रेजी के दबदबे को चुनौती देंगे। इसमें से एक है आबादी का बदलता स्वरुप। पश्चिमी देशों और अमरीका को अपने मौजूदा माली हालत को बरकरार रखने के लिए बड़े पैमाने पर भारतीय और चीनी कर्मचारियों की जरुरुत पड़ रही है।
एक जापानी चिंतक ने कहा है कि आज से तकरीबन 400 साल बाद दुनिया से जापानी नस्ल खत्म हो जाएगी। अमरीका तो नौजवान और सतरंगा मुल्क होने के नाते दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी लोगों का स्वागत करता है लेकिन उन देशों का क्या होगा जो अपनी नस्लीय और जातीय चेतना को लेकर चौकन्ने और गर्वान्वित रहते हैं...? जाहिर है दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक तो भारतीय और चीनी लोगों की आबादी बढ़ेगी और साथ ही हमारी भाषा भी फैलेगी लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि एक भारतीय के अमरीका चले जाने से हिंदी कैसे फैलेगी..या वहां के लोग हिंदी क्यों बोलेेंगे..जबकि अंग्रेजी में उनका काम मजे में चल रहा है।
इसका जवाब भी बाजार में ही निहित है। आज बाजार अपेक्षाकृत बड़ी आबादी में बोली जाने वाली भाषाओं को जिंदा कर रहा है। आनेवाले सौ-दो सौ सालों में अगर भारतीयों की तादाद अमरीका में मौजूदा 25 लाख से बढ़कर 2-3 करोड़ हो जाती है तो वहां का बाजार इसे हाथों-हाथ लेगा...और माल बेचने के लिए हिंदी में विज्ञापन दिए जाएंगे...और सीमित स्तर पर ऐसा हो भी रहा है। मेरी दीदी जो कि कैलिफोर्निया में रहती हैं बताती है कि वहां केबल पर दिखने वाले एशियन चैनल हैं जहां अक्सर हिंदी के रिपोर्टरों का पद खाली रहता है।
हिंदी की व्यापकता इतनी है कि वो भारत के कई हिस्सों में भले ही न बोली जाए (समझते तो सब हैं भले ही वो ऐसा दिखावा न करें) लेकिन भारत के बाहर पाकिस्तान, ईरान और पूरे अरब जगत में समझी जाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उन देशों में अमिताभ बच्चन,शाहरुख खान और सास-बहू की लोकप्रियता है। दुबई में पता ही नहीं चलता कि भाषाई रुप से आप मुम्बई से बाहर हैं। कुल मिलाकर हिंदी में माल बेचने का बाजार भारत से बाहर भी 60-70 करोड़ का है और भारत को जोड़ देने से से यह डेढ़ अरब की आबादी तक जा पहुंचता है और अगर माल बिकेगा, तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और भाषा का फैलाव तो होना ही है।
दूसरी बात ये कि भारत और चीन अभी ही दुनिया में सर्विस और मेनुफैक्चरिंग सेक्टर का अड्डा बन गए हैं और सस्ते श्रम और बड़े बाजार होने के नाते दुनिया में बड़े रोजगार के अड्डे भी बन जाएंगे-ऐसी संभावना है। भारत और चीन में गोरे कर्मचारी दिखने लगे हैं, और आनेवाले वक्त में और बढ़ेंगे।(जबकि अब से पहले ऐसा सोचना भी पाप था)..जाहिर है उन्हें हमारी भाषा अपनानी होगी और एक बार ये चीज शुरु हुई तो इसकी भी पूरी संभावना है कि वो सिर्फ नौकरी तक नहीं रहेगी...जीवन के हर क्षेत्र में फैल जाएगी जैसा कि अपने यहां हम अंग्रेजी का देखते हैं। लेकिन क्या यह एक हसीन सपना नहीं है ? अभी यह एक सकारात्मक तर्कों के आधार पर की गई परिकल्पना है लेकिन हो सकता है सौ-दो सौ सालों में ऐसा हो भी जाए।
Monday, July 28, 2008
Saturday, July 26, 2008
धमाकों से क्या होगा...हमने काफी कुछ झेला है..
अहमदावाद में दर्जन भर से ज्यादा धमाके की खबर आई है। मेरे ऑफिस में हंगामा मचा है, ऑउटपुट में हंगामा है। विजुअल का टोटा है, ओवी काम नहीं कर रहा। दूसरे चैनल से जुगाड़ हो रहा है और मैं एक गाना गुनगुना रहा रहा हूं। मेरी सहकर्मी निशा मुझे कहती है कि गाना अच्छा है लेकिन फिर वो चौंकती है कि यार हम गाना गा रहें है और देश में धमाके हो रहे हैं। हमारी संवेदना टीवी में काम करते-करते शून्य हो चली है। एक धमाके का मतलब है बड़ी खबर और हम मुद्दों का अभाव झेल रहे मीडियावालों के लिए कुछ देर मुफ्तखोरी का बहाना।
पिछले दो दिनों में बंगलोर और अब अहमदावाद में धमाकों का कुछ मतलब है? क्या ये उन्ही धमाकों की अंतहीन सिलसिला है जिससे हम पिछले दो दशकों से परेशान हं? मेरा एक दोस्त कहता है कि ये साले आतंकवादी धमाके करते-करते मर जाएंगे, मगर हिंदुस्तान का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। एक दूसरा दोस्त है वो इसका पोलिटिकल एंगल निकालता है। वो कहता है ये धमाके बीजेपी शासित सूबों में हुए हैं और कांग्रेस की बदनामी को बचाने का प्रयास है। उसका इशारा है कि चुंकि कांग्रेस बैकफुट पर है इसलिए वो संसद में की गई घूसखोरी से मिली बदनामी से ध्यान बंटाने के लिए ये काम कर सकती है...और इसकी वजह ये है कि ये लो इन्टेंसिटी ब्लास्ट है। कांग्रेसी सिर्फ लोगों का ध्यान बंटाना चाहते हैं लोगों को मारना नहीं। ये राजनीतिक सोंच का तीखा ध्रुवीकरण है।
सवाल ये भी है कि क्या हम कभी इन धमाकों से निजात पा सकेंगे? मुल्क विरोधी ताकतों को इतने विशाल मुल्क में ऐसे मौके मिल ही जाते हैं और हम इंच-इंच पर पुलिस नहीं बिठा सकते। मेरी बात प्रो कलीम बहादुर से हुई। उनका कहना था हम अपने आप को सतर्क और चाक-चौबंद रखने के आलावा कुछ नहीं कर सकते। दुनिया की सबसे ताकतवर और सुविधासंपन्न अमरीकन पुलिस भी आंतकवाद से परेशान है। हां, हमें हर घड़ी उन विचारों की निंदा करनी होगी जिससे समाज में थोड़ा भी असंतोष फैलता है और किसी भी तुष्टीकरणा की इमानदारी से आलोचना करनी होगी। मौजूदा हालात में हम सिवाय अपनी सुरक्षा व्यावस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के कुछ भी नहीं कर सकते।
पिछले दो दिनों में बंगलोर और अब अहमदावाद में धमाकों का कुछ मतलब है? क्या ये उन्ही धमाकों की अंतहीन सिलसिला है जिससे हम पिछले दो दशकों से परेशान हं? मेरा एक दोस्त कहता है कि ये साले आतंकवादी धमाके करते-करते मर जाएंगे, मगर हिंदुस्तान का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। एक दूसरा दोस्त है वो इसका पोलिटिकल एंगल निकालता है। वो कहता है ये धमाके बीजेपी शासित सूबों में हुए हैं और कांग्रेस की बदनामी को बचाने का प्रयास है। उसका इशारा है कि चुंकि कांग्रेस बैकफुट पर है इसलिए वो संसद में की गई घूसखोरी से मिली बदनामी से ध्यान बंटाने के लिए ये काम कर सकती है...और इसकी वजह ये है कि ये लो इन्टेंसिटी ब्लास्ट है। कांग्रेसी सिर्फ लोगों का ध्यान बंटाना चाहते हैं लोगों को मारना नहीं। ये राजनीतिक सोंच का तीखा ध्रुवीकरण है।
सवाल ये भी है कि क्या हम कभी इन धमाकों से निजात पा सकेंगे? मुल्क विरोधी ताकतों को इतने विशाल मुल्क में ऐसे मौके मिल ही जाते हैं और हम इंच-इंच पर पुलिस नहीं बिठा सकते। मेरी बात प्रो कलीम बहादुर से हुई। उनका कहना था हम अपने आप को सतर्क और चाक-चौबंद रखने के आलावा कुछ नहीं कर सकते। दुनिया की सबसे ताकतवर और सुविधासंपन्न अमरीकन पुलिस भी आंतकवाद से परेशान है। हां, हमें हर घड़ी उन विचारों की निंदा करनी होगी जिससे समाज में थोड़ा भी असंतोष फैलता है और किसी भी तुष्टीकरणा की इमानदारी से आलोचना करनी होगी। मौजूदा हालात में हम सिवाय अपनी सुरक्षा व्यावस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के कुछ भी नहीं कर सकते।
Saturday, July 19, 2008
हाथ होगा साफ- एक खेमा कमल का, दूसरा हाथी का
सियासी हालात जिस तरफ बढ़ रहे हैं, आनेवाले वक्त में सबसे ज्यादा चिंता कांग्रेस को करनी होगी। जिस तरह मायावती विपक्षी एकता का एक केंद्रबिन्दु बन के उभर रही है, ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में हिंदुस्तान दो-ध्रुवीय गठबंधन की तरफ तो बढ़ रहा है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि इसमें कांग्रेस ही गायब हो जाए। ये बात बहुतों को बेतुकी और ताज्जुब भरी लग सकती है, लेकिन अगर मायावती ने थोड़ा संयम दिखाया और बसपा संगठन को फैलाने में ध्यान दिया तो वह इतिहास में एक बड़ा नाम दर्ज करवाएंगी।
गौरतलब है कि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी पार्टी तभी राष्ट्रीय बन पाई है जब उसे कुछ खास समूहों का समर्थन प्राप्त हो। कांग्रेस या बीजेपी के राष्ट्रीय बनने के पीछे ये बहुत बड़ा कारण था कि दोनों को ब्राह्मणों का समर्थन मिला जो कि अखिल भारतीय जाति है। साथ ही कांग्रेस को दलितों और मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त था और कांग्रेस का पतन तभी शुरु हुआ जब इन समूहों ने उसका साथ देना छोड़ दिया।
कायदे से देश में पिछड़ी जातियों की तादाद सबसे ज्यादा है, लेकिन इनमें इतना बिखराव है और एकरुपता का इतना अभाव है कि ये एक-साथ किसी मंच पर अा नहीं पाते हैं और मुकम्मल तौर पर अभी तक पिछड़ों की कोई एक पार्टी सफल नहीं हो पाई है। जनता दल का प्रयोग और उसका बिखराव इसका उदाहरण है।
मौजूदा हालात की बात करें तो कांग्रेस के पास विचारधारा के नाम पर सिवाय भाजपा-विरोध के कुछ सकारात्मक है नहीं, जिसे ये ठोस तौर पर अपनी विचारधारा कह सके। उसे अखिल भारतीय दल होने के चलते और बीजेपी विरोध के चलते मुसलमानों का वोट मिल जाता है साथ ही एक पुरानी पार्टी होने के नाते इसके पतन में पर्याप्त समय लगा है। लेकिन शायद अब इतिहास का वो फेज आ चुका है कि कांग्रेस को ज्यादा मौका न मिले। और इसकी वजहें है।
बात करें मुसलमानों के वोट की, तो इसके कई दावेदार हैं। आज के वक्त में मुसलमानों का वोट उस गठबंधन को जा रहा है जो बीजेपी को हराने की सबसे ठोस गारंटी दे। कांग्रेस कई सूबों में ये दर्जा खो चुकी है। दूसरी बात अगड़ों का पारंपरिक वोट कमोवेश बीजेपी के साथ है। पिछड़ों की हरेक सूबे में अपनी पार्टियां है। ले दे कर दलित वोट बचता है जो अभी तक कांग्रेस को मिलता रहा है लेकिन जहां-जहां दलित पार्टियां हैं वहां वो कांग्रेस को नहीं मिल रही। इतना तय है कि आनेवाले वक्त में बीएसपी का फैलाव देश के दूसरे हिस्सों में होगा और इसकी वजह ये है कि दलित वोट का भी अपना एक नेशनल कैरेक्टर है।
दूसरी बात ये कि इस के साथ वामपंथी पार्टियां भी असहज महसूस नहीं करेंगी और यह गठबंधन मुसलमानों को बड़े पैमाने पर अपने साथ खींच सकता है।अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस का क्या होगा...? क्या हिंदुस्तान की आनेवाली पीढ़ी, कंम्प्यूटर और पिज्जा पीढ़ी के लोग खानदानों की हुकूमत को झेलने के लिए ज्यादा दिन तक तैयार हैं ? अभी भले ही सियासत में नेताओं के बच्चे ही दिखाई दे रहे हों लेकिन क्या वे ज्यादा दिन तक ऐसा कर पाएंगे..? रही बात बीजेपी की तो एक विचारधारा पर आधारित पार्टी होने की वजह से इसका खात्मा मुश्किल है...लेकिन एकवार मायावती...ने त्याग और संयम से काम लिया तो फिर कांग्रेस को इतिहास बनते देर नहीं लगेगी...हां हो सकता है इस प्रक्रिया में 15-20 साल लग जाए...लेकिन मायावती भी तो अभी सियासत के हिसाब से कम उम्र की ही हैं।
गौरतलब है कि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी पार्टी तभी राष्ट्रीय बन पाई है जब उसे कुछ खास समूहों का समर्थन प्राप्त हो। कांग्रेस या बीजेपी के राष्ट्रीय बनने के पीछे ये बहुत बड़ा कारण था कि दोनों को ब्राह्मणों का समर्थन मिला जो कि अखिल भारतीय जाति है। साथ ही कांग्रेस को दलितों और मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त था और कांग्रेस का पतन तभी शुरु हुआ जब इन समूहों ने उसका साथ देना छोड़ दिया।
कायदे से देश में पिछड़ी जातियों की तादाद सबसे ज्यादा है, लेकिन इनमें इतना बिखराव है और एकरुपता का इतना अभाव है कि ये एक-साथ किसी मंच पर अा नहीं पाते हैं और मुकम्मल तौर पर अभी तक पिछड़ों की कोई एक पार्टी सफल नहीं हो पाई है। जनता दल का प्रयोग और उसका बिखराव इसका उदाहरण है।
मौजूदा हालात की बात करें तो कांग्रेस के पास विचारधारा के नाम पर सिवाय भाजपा-विरोध के कुछ सकारात्मक है नहीं, जिसे ये ठोस तौर पर अपनी विचारधारा कह सके। उसे अखिल भारतीय दल होने के चलते और बीजेपी विरोध के चलते मुसलमानों का वोट मिल जाता है साथ ही एक पुरानी पार्टी होने के नाते इसके पतन में पर्याप्त समय लगा है। लेकिन शायद अब इतिहास का वो फेज आ चुका है कि कांग्रेस को ज्यादा मौका न मिले। और इसकी वजहें है।
बात करें मुसलमानों के वोट की, तो इसके कई दावेदार हैं। आज के वक्त में मुसलमानों का वोट उस गठबंधन को जा रहा है जो बीजेपी को हराने की सबसे ठोस गारंटी दे। कांग्रेस कई सूबों में ये दर्जा खो चुकी है। दूसरी बात अगड़ों का पारंपरिक वोट कमोवेश बीजेपी के साथ है। पिछड़ों की हरेक सूबे में अपनी पार्टियां है। ले दे कर दलित वोट बचता है जो अभी तक कांग्रेस को मिलता रहा है लेकिन जहां-जहां दलित पार्टियां हैं वहां वो कांग्रेस को नहीं मिल रही। इतना तय है कि आनेवाले वक्त में बीएसपी का फैलाव देश के दूसरे हिस्सों में होगा और इसकी वजह ये है कि दलित वोट का भी अपना एक नेशनल कैरेक्टर है।
दूसरी बात ये कि इस के साथ वामपंथी पार्टियां भी असहज महसूस नहीं करेंगी और यह गठबंधन मुसलमानों को बड़े पैमाने पर अपने साथ खींच सकता है।अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस का क्या होगा...? क्या हिंदुस्तान की आनेवाली पीढ़ी, कंम्प्यूटर और पिज्जा पीढ़ी के लोग खानदानों की हुकूमत को झेलने के लिए ज्यादा दिन तक तैयार हैं ? अभी भले ही सियासत में नेताओं के बच्चे ही दिखाई दे रहे हों लेकिन क्या वे ज्यादा दिन तक ऐसा कर पाएंगे..? रही बात बीजेपी की तो एक विचारधारा पर आधारित पार्टी होने की वजह से इसका खात्मा मुश्किल है...लेकिन एकवार मायावती...ने त्याग और संयम से काम लिया तो फिर कांग्रेस को इतिहास बनते देर नहीं लगेगी...हां हो सकता है इस प्रक्रिया में 15-20 साल लग जाए...लेकिन मायावती भी तो अभी सियासत के हिसाब से कम उम्र की ही हैं।
Thursday, July 17, 2008
सरकार बच भी जाएगी तो कया कर लेगी?
अब सवाल ये नहीं बचा कि 22 जुलाई को सरकार बचेगी या नहीं...मान लीfजए बच भी जाएगी...तो क्या कर लेगी...कुछ लोकलुभावन घोषणाएं और भावनात्मक रुप से लोगों को उत्तेजित करने वाले नारे। बाद बाकी तो...इन 7-8 महीनों में यूपीए सिर्फ इसी बात का इंतजार करेगी की महंगाई कम हो जाए तो थोड़ी जान बचे। लेकिन सरकार की साख को जो बड़ी क्षति हुई है उसकी भरपाई करना बहुत ही मुश्किल है। पहली बात ये कि आम जनता में ये गलत मेसेज गया है कि सरकार अल्पमत में है और किसी भी कीमत पर कुर्सी का मोह नहीं छोड़ना चाहती। ये बात अपने आप में पिछले चार साल से बड़ी मेहनत से अर्जित मनमोहन की सादगी और सोनिया के त्याग को धूमिल करने के लिए काफी है। दूसरी बात ये कि सरकार ने जिन लोगों का साथ लिया है उनकी जनता में छवि अच्छी नहीं है। बीजेपी भले ही अतीत में भ्रष्टाचार के आरोपों से नहीं बच पाई हो...लेकिन इस वक्त आडवाणी का लाल सलाम और दलाल सलाम का जुमला लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया है।
तीसरी बात ये कि सरकार के बच जाने के सूरत में भी लोग ये नहीं मान पाएंगे कि पैसे का लेन देन नहीं हुआ। सरकार विरोधियों के इल्जाम और अंबानी भाइयों के दिल्ली दौरों को जनता के सामने सही नहीं ठहरा पाएगी। और ऐसे में अगर चुनाव 7-8 महीने दूर भी हों तो कांग्रेस विपक्षी हमलों को नहीं झेल पाएगी। विपक्ष का आरोप समय के साथ एक-एक इंच बढ़ता जाएगा...और चुनाव के वक्त ये चरम पर होगा।
वाम दलों के साथ सरकार के चार साल तक होने का एक बड़ा फायदा कांग्रेस को मिला था। बाबरी ढ़ांचा के गिरने के बाद कांग्रेस, मुसलमानों में बदनाम हो गई थी और इसकी सेक्यूलर छवि तार तार हो गई थी। ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ था कि कांग्रेस को वाम नजदीकी होने की वजह से फिर से सेक्यूलर होने का तमगा मिल रहा था। आज भी हिंदुस्तान में सेक्यूलरिज्म का सबसे भरोसेमंद, टिकाऊ और ठोस सिपहसलार वामपंथी पार्टियों को ही माना जाता है। जाहिर है पिछले चार साल से मीडिया से लेकर समाज के हर बौद्धिक हलकों में धमक रखने वाली वाम मशीनरी ने सोनिया और कांग्रेस के खिलाफ अपना अभियान तकरीबन बंद कर रखा था। साथ ही यहीं वो मशीनरी थी और लिख्खाड़ो का एक कुनबा था जिसने साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सोनिया गांधी की महिमामयी इमेज गढ़ी थी। लेकिन कांग्रेस को अब ये प्रिविलेज नहीं मिल पाएगा। अब उसे एक तरफ तुलनात्मक रुप से मजबूत दिखने वाले बीजेपी के भावनात्मक नारों से लड़ना होगा दूसरी तरफ दिनरात काम करने वाले वाम प्रचारतंत्र को भी झेलना होगा।
सबसे बड़ी बात ये कि वामपंथी और मायावती का गठोजोड़ इस बात का प्रचार करने में नहीं चूकेगा कि परमाणु करार सिर्फ देश के विरोध में ही नहीं है...बल्कि ये मुसलमानों की विरोधी भी है। हाल के दिनों में पूरी दुनिया के मुसलमानों में जिस तरह अमरीका विरोधी भावनाएं घर कर रही है उससे कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का कोप भी झेलना पड़ सकता है। जाहिर है, कांग्रेस डिफेंसिव विकेट पर खड़ी है। ऐसे में 22 जुलाई को वह अगर विश्वासमत जीत भी जाती है तो वो क्या कर लेगी?
तीसरी बात ये कि सरकार के बच जाने के सूरत में भी लोग ये नहीं मान पाएंगे कि पैसे का लेन देन नहीं हुआ। सरकार विरोधियों के इल्जाम और अंबानी भाइयों के दिल्ली दौरों को जनता के सामने सही नहीं ठहरा पाएगी। और ऐसे में अगर चुनाव 7-8 महीने दूर भी हों तो कांग्रेस विपक्षी हमलों को नहीं झेल पाएगी। विपक्ष का आरोप समय के साथ एक-एक इंच बढ़ता जाएगा...और चुनाव के वक्त ये चरम पर होगा।
वाम दलों के साथ सरकार के चार साल तक होने का एक बड़ा फायदा कांग्रेस को मिला था। बाबरी ढ़ांचा के गिरने के बाद कांग्रेस, मुसलमानों में बदनाम हो गई थी और इसकी सेक्यूलर छवि तार तार हो गई थी। ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ था कि कांग्रेस को वाम नजदीकी होने की वजह से फिर से सेक्यूलर होने का तमगा मिल रहा था। आज भी हिंदुस्तान में सेक्यूलरिज्म का सबसे भरोसेमंद, टिकाऊ और ठोस सिपहसलार वामपंथी पार्टियों को ही माना जाता है। जाहिर है पिछले चार साल से मीडिया से लेकर समाज के हर बौद्धिक हलकों में धमक रखने वाली वाम मशीनरी ने सोनिया और कांग्रेस के खिलाफ अपना अभियान तकरीबन बंद कर रखा था। साथ ही यहीं वो मशीनरी थी और लिख्खाड़ो का एक कुनबा था जिसने साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सोनिया गांधी की महिमामयी इमेज गढ़ी थी। लेकिन कांग्रेस को अब ये प्रिविलेज नहीं मिल पाएगा। अब उसे एक तरफ तुलनात्मक रुप से मजबूत दिखने वाले बीजेपी के भावनात्मक नारों से लड़ना होगा दूसरी तरफ दिनरात काम करने वाले वाम प्रचारतंत्र को भी झेलना होगा।
सबसे बड़ी बात ये कि वामपंथी और मायावती का गठोजोड़ इस बात का प्रचार करने में नहीं चूकेगा कि परमाणु करार सिर्फ देश के विरोध में ही नहीं है...बल्कि ये मुसलमानों की विरोधी भी है। हाल के दिनों में पूरी दुनिया के मुसलमानों में जिस तरह अमरीका विरोधी भावनाएं घर कर रही है उससे कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का कोप भी झेलना पड़ सकता है। जाहिर है, कांग्रेस डिफेंसिव विकेट पर खड़ी है। ऐसे में 22 जुलाई को वह अगर विश्वासमत जीत भी जाती है तो वो क्या कर लेगी?
Friday, July 11, 2008
अंग्रेजी कैसे मरेगी...-1
अनुनाद जी ने बड़ा ही दिलचस्प सवाल उठाया है कि क्या अंग्रेजी नहीं मरेगी ?...हलांकि पहली नजर में ये सवाल किसी को भी बेतुका और अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन अगर गौर से देखें तो इसके कुछ लक्षण उभरने लगे हैं। आज अंग्रेजी सीखने की जो होड़ दुनिया में देखने को मिल रही है उसकी अहम वजह ये है कि दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान और कारोबार अंग्रेजी में ही धड़कता है। तकरीबन दो सदियों से दुनिया में अंग्रेजी का इंस्फ्रास्ट्रक्चर इतना मजबूत हो गया है कि उसे हिलाना किसी के लिए भी नामुमकिन दिखता है। दुनिय़ा के बेहतरीन रिसर्च वर्क अंग्रेजी में हो रहे हैं.. और एक आकलन के मुताबिक मैजूदा दौर में तकरीबन 60 फीसदी छपे हुए शब्द अंग्रेजी भाषा के हैं। जाहिर है इसके पीछे अंग्रेजी बोलने बाले देशों की आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व है। पहले इंग्लैन्ड और अब अमरीका का दबदबा, अंग्रेजी को पूरी दुनिया में अपना रुतबा दिखाने का मौका दे रहा ह।
लेकिन फर्ज कीजीए..अगर ये हालात बदल जाएं तो क्या होगा। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गई, लेकिन ये चरण भी अब पूरा होने वाला है। जाहिर है, अमरीका भी इससे अनजान नहीं। आनेवाली दुनिया में जो आर्थिक और सत्ता संरचना उभरने वाली है वो बहुध्रुवीयता की तरफ साफ इशारा कर रही है, जिसमें चीन, भारत, रुस, ब्राजील, बियतनाम, जापान और ईयू(जर्मनी-फ्रांस) की बड़ी भूमिका रहनेवाली है। कहीं न कहीं अमरीका भी इस व्यवस्था का हिमायती है क्योंकि वो कभी नहीं चाहेगा कि दुनिया फिर से द्विध्रुवीय बन जाए( और जिसका स्वभाविक नेता चीन बन जाए)-इससे ज्यादा मुफीद उसे दुनिया का वहुध्रुवीय बन जाना लगता है। और इसकी वजह ये है कि उस नयी व्यवस्था में भी अमरीका के समर्थकों का खासा दबदबा रहेगा। गौरतलब है कि इन तमाम उभरती हुई ताकतों में भारत को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का बोलबाला नहीं है। सारे देशों ने अपनी भाषा के बल पर तरक्की की है। इसलिए, ये कहना कि अंग्रेजी में ही ज्ञान की गंगोत्री छुपी हुई है- मानसिक दीवालिएपन से कम नहीं। हां, हिंदुस्तान जैसे मुल्क में अंग्रेजी का अपना अलग तरह का योगदान है और इसने अतीत में (या एक हद तक अभी भी) हमारी विभिन्नताओं से अंटे परे समाज को जोड़ने में एक पुल का काम जरुर किय़ा। इसने आजादी की लड़ाई में पूरे देश के युवाओं को एक मंच पर लाया,साथ ही पश्चिम में हुए सदियों के विकास को एक झटके में हमारे दहलीज पर ला पटका। लेकिन इसकी इतनी गहरी जड़े सिर्फ इस कारण से नहीं जमी है...इसकी वजह तो हमारा आपसी झगड़ा है कि आजादी के बाद किसी एक भाषा को हम आम सहमति से पूरे देश में मनवा नहीं पाए। विशाल क्षेत्र में बोली-समझी जानेवाली हिंदी अपने मुल्क में मान्य नहीं हो पाई..और अंग्रेजी को वो दर्जा आराम से मिल गया।
लेकिन जो सबाल यहां मुंह बाए खड़ा है वो ये कि क्या दुनिया में अंग्रेजी का ये जलबा बहुत दिन तक कायम रह पाएगा ? भूमंडलीकण के इस दौर में बाजार राजनीति को प्रभावित कर रहा है..साथ ही लोगों के जीवनशैली और संस्कृति को भी। साफ है इन सारे बदलावों से भाषा अपने आप को बहुत दिन तक नहीं बचा पाएगी। तमाम आकलन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि दुनिया की छोटी-छोटी भाषाओं और जीवनशैलियों का वजूद खतरे में है, और बढ़ते शहरीकरण के दौर में सिर्फ बड़ी भाषाएं/संस्कृतियां ही अपना वजूद बचा पाएंगी। दुनिया के स्तर पर अगर बात करें..तो चीन और भारत अपने मानव संसाधन और भू-सामरिक स्थिति की वजह से दुनिया में अपना खास मुकाम बनाने वाले हैं...और चाईनीज आज के दौर में अंग्रेजी के बाद किसी भी देश में सबसे ज्यादा सीखी जाने वाली भाषा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अपने ही देश में जेएनयू के भाषा संकाय में एडमिशन लेने वालों की होड़ है जहां चाईनीज के लिए सबसे कठिन परीक्षा देनी पड़ती है। दूसरी तरफ,अपने देश के एलीटों में या राजनैतिक-आर्थिक सत्ता संस्थानों में हिंदी की हालत भले ही बहुत सुखदायक न हो, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में हिंदी सीखने की ललक, मंथर गति से ही सही, बढ़ रही है। आज दुनिया की तकरीबन 45 फीसदी आवादी वाले ये दोनों देश बड़ी तेजी से सियासी और कारोबारी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। अगर ये दोनों मुल्क अपने सियासी मुद्दो को तेजी से सुलझा लें...तो आपसी कारोबार करने के लिए अंग्रेजी की कोई जरुरत नही् रह जाएगी।
अगर आनेवाले पचास- सौ सालों में ऐसा होता है तो दुनिया की सियासत का केंद्र अमरीका-यूरोप से खिसक कर एशिया के इन देशों में आ जाएगा। और इतिहास गवाह है कि भाषाएं वहीं लोकप्रिय होती है जिनका सियासत और कारोबार में दखल होता है। इसका बेहतरीन उदाहरण प्राचीन भारत के संदर्भ में संस्कृत, मध्यकाल में फारसी और आधुनिक काल में अग्रेजी जलबा नहीं है...? क्या इन्ही हालातों का फायदा अंग्रेजी को नहीं मिलता रहा है..? रही बात रिसर्च और ज्ञान विज्ञान की तो ये तमाम चीजें आर्थिक व्यवस्था से जुडी है। कल को अगर चीन और भारत की माली हातल सुधरती है, तो कोई ताज्जुब नहीं कि बेहतरीन रिसर्च हमारे यहां भी होंगे। और आज जो पूरे दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, भय और उम्मीदों,सियासी कलावाजियों-दांवपेंचों-धमकियों का केंद्रेबिन्दु, वाशिंगटन-लंदन बना हुआ है...वो कल को बीजींग-नई दिल्ली भी बन सकता है। लेकिन ऐसा होने में वक्त लगेगा। तारीख में सौ-पचास साल बहुत ज्यादा नहीं होते...और बहुत सारी बातें उन हालातों पर निर्भर करेगा जो दुनिया की सियासत पर असर डालेंगे। (जारी)
लेकिन फर्ज कीजीए..अगर ये हालात बदल जाएं तो क्या होगा। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गई, लेकिन ये चरण भी अब पूरा होने वाला है। जाहिर है, अमरीका भी इससे अनजान नहीं। आनेवाली दुनिया में जो आर्थिक और सत्ता संरचना उभरने वाली है वो बहुध्रुवीयता की तरफ साफ इशारा कर रही है, जिसमें चीन, भारत, रुस, ब्राजील, बियतनाम, जापान और ईयू(जर्मनी-फ्रांस) की बड़ी भूमिका रहनेवाली है। कहीं न कहीं अमरीका भी इस व्यवस्था का हिमायती है क्योंकि वो कभी नहीं चाहेगा कि दुनिया फिर से द्विध्रुवीय बन जाए( और जिसका स्वभाविक नेता चीन बन जाए)-इससे ज्यादा मुफीद उसे दुनिया का वहुध्रुवीय बन जाना लगता है। और इसकी वजह ये है कि उस नयी व्यवस्था में भी अमरीका के समर्थकों का खासा दबदबा रहेगा। गौरतलब है कि इन तमाम उभरती हुई ताकतों में भारत को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का बोलबाला नहीं है। सारे देशों ने अपनी भाषा के बल पर तरक्की की है। इसलिए, ये कहना कि अंग्रेजी में ही ज्ञान की गंगोत्री छुपी हुई है- मानसिक दीवालिएपन से कम नहीं। हां, हिंदुस्तान जैसे मुल्क में अंग्रेजी का अपना अलग तरह का योगदान है और इसने अतीत में (या एक हद तक अभी भी) हमारी विभिन्नताओं से अंटे परे समाज को जोड़ने में एक पुल का काम जरुर किय़ा। इसने आजादी की लड़ाई में पूरे देश के युवाओं को एक मंच पर लाया,साथ ही पश्चिम में हुए सदियों के विकास को एक झटके में हमारे दहलीज पर ला पटका। लेकिन इसकी इतनी गहरी जड़े सिर्फ इस कारण से नहीं जमी है...इसकी वजह तो हमारा आपसी झगड़ा है कि आजादी के बाद किसी एक भाषा को हम आम सहमति से पूरे देश में मनवा नहीं पाए। विशाल क्षेत्र में बोली-समझी जानेवाली हिंदी अपने मुल्क में मान्य नहीं हो पाई..और अंग्रेजी को वो दर्जा आराम से मिल गया।
लेकिन जो सबाल यहां मुंह बाए खड़ा है वो ये कि क्या दुनिया में अंग्रेजी का ये जलबा बहुत दिन तक कायम रह पाएगा ? भूमंडलीकण के इस दौर में बाजार राजनीति को प्रभावित कर रहा है..साथ ही लोगों के जीवनशैली और संस्कृति को भी। साफ है इन सारे बदलावों से भाषा अपने आप को बहुत दिन तक नहीं बचा पाएगी। तमाम आकलन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि दुनिया की छोटी-छोटी भाषाओं और जीवनशैलियों का वजूद खतरे में है, और बढ़ते शहरीकरण के दौर में सिर्फ बड़ी भाषाएं/संस्कृतियां ही अपना वजूद बचा पाएंगी। दुनिया के स्तर पर अगर बात करें..तो चीन और भारत अपने मानव संसाधन और भू-सामरिक स्थिति की वजह से दुनिया में अपना खास मुकाम बनाने वाले हैं...और चाईनीज आज के दौर में अंग्रेजी के बाद किसी भी देश में सबसे ज्यादा सीखी जाने वाली भाषा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अपने ही देश में जेएनयू के भाषा संकाय में एडमिशन लेने वालों की होड़ है जहां चाईनीज के लिए सबसे कठिन परीक्षा देनी पड़ती है। दूसरी तरफ,अपने देश के एलीटों में या राजनैतिक-आर्थिक सत्ता संस्थानों में हिंदी की हालत भले ही बहुत सुखदायक न हो, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में हिंदी सीखने की ललक, मंथर गति से ही सही, बढ़ रही है। आज दुनिया की तकरीबन 45 फीसदी आवादी वाले ये दोनों देश बड़ी तेजी से सियासी और कारोबारी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। अगर ये दोनों मुल्क अपने सियासी मुद्दो को तेजी से सुलझा लें...तो आपसी कारोबार करने के लिए अंग्रेजी की कोई जरुरत नही् रह जाएगी।
अगर आनेवाले पचास- सौ सालों में ऐसा होता है तो दुनिया की सियासत का केंद्र अमरीका-यूरोप से खिसक कर एशिया के इन देशों में आ जाएगा। और इतिहास गवाह है कि भाषाएं वहीं लोकप्रिय होती है जिनका सियासत और कारोबार में दखल होता है। इसका बेहतरीन उदाहरण प्राचीन भारत के संदर्भ में संस्कृत, मध्यकाल में फारसी और आधुनिक काल में अग्रेजी जलबा नहीं है...? क्या इन्ही हालातों का फायदा अंग्रेजी को नहीं मिलता रहा है..? रही बात रिसर्च और ज्ञान विज्ञान की तो ये तमाम चीजें आर्थिक व्यवस्था से जुडी है। कल को अगर चीन और भारत की माली हातल सुधरती है, तो कोई ताज्जुब नहीं कि बेहतरीन रिसर्च हमारे यहां भी होंगे। और आज जो पूरे दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, भय और उम्मीदों,सियासी कलावाजियों-दांवपेंचों-धमकियों का केंद्रेबिन्दु, वाशिंगटन-लंदन बना हुआ है...वो कल को बीजींग-नई दिल्ली भी बन सकता है। लेकिन ऐसा होने में वक्त लगेगा। तारीख में सौ-पचास साल बहुत ज्यादा नहीं होते...और बहुत सारी बातें उन हालातों पर निर्भर करेगा जो दुनिया की सियासत पर असर डालेंगे। (जारी)
Monday, July 7, 2008
तीन लड़कियां- एक कहानी.....
रागिनी के मां-बाप उसके जन्म के कुछ ही दिन बाद ऊपर चले गए। रागिनी को उसके चाचा-चाची ने पाला। वह उन्हे ही 'मम्मी-पापा' कहती है। शुरु में चाचा-चाची का व्यवहार ठीक था। लेकिन बाद में बात-बात पर उसे ताना मिलने लगा। रागिनी को घर का सारा काम करना पड़ता। रागिनी की हालत उस घर में एक बिना बेतन के नौकरानी से ज्यादा नहीं थी। लेकिन उस घर में कोई ऐसा भी था जो उसे लेकर सहानुभुति रखता था। और वो था रागिनी का चचेरा भाई दिनेश। दिनेश जब बड़ा हुआ तो उसने अपने घर में इस जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई। काफी जोर-जबर्दस्ती के बाद दिनेश ने रागिनी का एडमिशन गाजियाबाद के एक एमबीए कॉलेज में करा दिया। आज रागिनी एक मल्टीनेशनल में काम करती है और 20 हजार कमाती है। लेकिन उसके दुख का अंत अभी नहीं हुआ है... उसके 'मम्मी-पापा' आज भी महिना के शुरु में आ धमकते हैं और उससे सारा पैसा छीन ले जाते हैं। रागिनी का भाई उसे अपनी मर्जी के किसी लड़के से शादी करने के लिए कह रहा है...लेकिन रागिनी ऐसे दहशत के साये में जीती आई है कि उसे लगता है कि उसके मम्मी पापा उसे गोली मार देंगे।
माधवी की कहानी इससे थोड़ी अलग है। माधवी के मां-बाप भी बहुत कम उम्र में उसे छोड़कर इश्वर के प्यारे हो गए। उसे भी उसके चाचा-चाची ने पाला। माधवी पढ़ने में जहीन थी। उसने वेस्ट बंगाल इन्जिनियरिंग क्लीयर किया और उसका दाखिला जादवपुर युनिवर्सिटी में हो गय़ा। कहानी तब उलझ गयी जब माधवी की चचेरी बहन की शादी ठीक हुई। माधवी देखने में सुन्दर थी,जहीन थी और इंजिनयरिंग कर ही रही थी। लगे हाथों घर वालों ने माधवी की शादी की बात उसके चचेरी बहन के देवर से चलाई। उसकी बहन का देवर माधवी को मन ही मन चाहने भी लगा।इधर माधवी अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के को पसंद करती थी।वक्त का फेर देखिये...शायद माधवी की तकदीर ही ठीक नहीं थी। माधवी के बहन के देवर ने माधवी की शादी उसके साथ न होते देख खुदकुशी कर ली...और माधवी का सहपाठी लड़का जिसे वो पसंद करती थी...वह भी उससे शादी से मुकर गया। माधवी डिप्रेसन में चली गई। माधवी को काफी मशक्कत के बाद सत्यम कम्प्यूटर में काम मिल गया है..और कंपनी उसे कैलिफोर्निया भेज रही है। माधवी अभी 2-3 साल वहां रह कर अपना सारा गम भुलाना चाहती है। लेकिन रिश्तेदार हैं कि उसकी बहन के देवर की खुदकुशी का सारा दोष माधवी के सर मंढ़ रहे हैं...लेकिन इसमें माधवी का क्या कसूर है ?
एक तीसरी कहानी भी है...और वो बिल्कुल अलग है। हिंदी के एक बड़े और मशहूर न्य़ूज चैनल की उभरती हुई न्यूज एंकर...लेकिन उसका दर्द ये है कि वो अपनी मर्जी से टेलिविजन के पर्दे पर नहीं आ रही। भगवान ने पूनम को हरेक नेमत बख्शी है। वो बला की खूबसूरत है, जहीन है, कन्फिडेन्ट है, और स्पष्ट उच्चारण के साथ खनकती हुई आवाज की मलिका है। कुल मिलाकर उसमें वो सब है जो एक न्यूज एंकर में होना चाहिए। लेकिन पूनम क्या चाहती है...किसी ने उससे आज तक नहीं पूछा। पूनम शुरु के कुछ दिन न्यूज चैनल में गुजारने के बाद एक सुकून की जिंदगी जीना चाहती थी...जिसमें उसका एक पति हो...उसके बच्चे हों...और वो अपने परिवार के लिए अपने आप को न्यौंछावर कर देने का ख्वाब देखती थी। लेकिन, शायद वक्त को ये मंजूर न था। पूनम के पिता हाई कोर्ट में वकील थे...और मां एक स्कूल में शिक्षिका। पूनम के पिता पिछले तीन सालों से हॉस्पिटल में है...और घर की माली हालत चरमरा गई है। आज पूनम को अपनी छोटी बहन के पढ़ाई का खर्च भी देखना है और पिता का इलाज भी। पूनम के लिए न्यूज चैनल में काम करना आज मजबूरी है। शायद अगले पांच साल तक जब तक पूनम की बहन अपने पैर पर न खड़ी हो जाए। इसी वजह से पूनम अभी शादी भी नहीं करना चाहती। लेकिन दुनिया समझती है कि पूनम...न्यूज चैनल की सतरंगी दुनिया में कामयाबी का पैमाना है।
इन तीनों कहानियों में क्या समानता है..? .इन कहानियों में गरीबी का तत्व तकरीबन नदारद है। ये शहरी मध्यम वर्ग के संघर्षरत लड़कियों की दुखभरी दास्तान है जहां हालात, एक अदृश्य विलेन के रुप में आज भी मौजूद है।जहां रागिनी के मां-बाप के उससे पैसा छीन कर ले जाने के बावजूद भी वो किसी मनपसंद युवक से शादी करने में हिचकती है...वहीं हमारा जड़ समाज माधवी की बहन के देवर के आत्महत्या करने पर माधवी को ही कसूरवार ठहरा रहा है।पूनम इसलिए शादी नहीं कर रही कि फिर उसके पिता और बहन का क्या होगा..?.सवाल यह भी है कि क्या ऐसे दिलेर लड़के हैं जो इन लड़कियों का हाथ थाम सकें..?.उन्हे उनके मंजिल तक पहुंचाने के वादे के साथ उनका हम कदम बन सकें..? जातीय जकड़न और तंग दायरों में कैद समाज की व्यवस्था आसानी से ऐसा नहीं होने देगी..। .लेकिन नहीं...शायद कहीं विद्रोह की चिंगारी धधक रही है।शायद... लाखों-करोड़ों नौजबान, परंपरा के नाम पर उस मैले-कुचैले कपड़े को उतार फेंकने को बैचेन हो रहे हैं...और आनेवाला वक्त रागिनी, माधवी और पूनम जैसी लड़कियों के इस्तकबाल को मचल रहा है।
माधवी की कहानी इससे थोड़ी अलग है। माधवी के मां-बाप भी बहुत कम उम्र में उसे छोड़कर इश्वर के प्यारे हो गए। उसे भी उसके चाचा-चाची ने पाला। माधवी पढ़ने में जहीन थी। उसने वेस्ट बंगाल इन्जिनियरिंग क्लीयर किया और उसका दाखिला जादवपुर युनिवर्सिटी में हो गय़ा। कहानी तब उलझ गयी जब माधवी की चचेरी बहन की शादी ठीक हुई। माधवी देखने में सुन्दर थी,जहीन थी और इंजिनयरिंग कर ही रही थी। लगे हाथों घर वालों ने माधवी की शादी की बात उसके चचेरी बहन के देवर से चलाई। उसकी बहन का देवर माधवी को मन ही मन चाहने भी लगा।इधर माधवी अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के को पसंद करती थी।वक्त का फेर देखिये...शायद माधवी की तकदीर ही ठीक नहीं थी। माधवी के बहन के देवर ने माधवी की शादी उसके साथ न होते देख खुदकुशी कर ली...और माधवी का सहपाठी लड़का जिसे वो पसंद करती थी...वह भी उससे शादी से मुकर गया। माधवी डिप्रेसन में चली गई। माधवी को काफी मशक्कत के बाद सत्यम कम्प्यूटर में काम मिल गया है..और कंपनी उसे कैलिफोर्निया भेज रही है। माधवी अभी 2-3 साल वहां रह कर अपना सारा गम भुलाना चाहती है। लेकिन रिश्तेदार हैं कि उसकी बहन के देवर की खुदकुशी का सारा दोष माधवी के सर मंढ़ रहे हैं...लेकिन इसमें माधवी का क्या कसूर है ?
एक तीसरी कहानी भी है...और वो बिल्कुल अलग है। हिंदी के एक बड़े और मशहूर न्य़ूज चैनल की उभरती हुई न्यूज एंकर...लेकिन उसका दर्द ये है कि वो अपनी मर्जी से टेलिविजन के पर्दे पर नहीं आ रही। भगवान ने पूनम को हरेक नेमत बख्शी है। वो बला की खूबसूरत है, जहीन है, कन्फिडेन्ट है, और स्पष्ट उच्चारण के साथ खनकती हुई आवाज की मलिका है। कुल मिलाकर उसमें वो सब है जो एक न्यूज एंकर में होना चाहिए। लेकिन पूनम क्या चाहती है...किसी ने उससे आज तक नहीं पूछा। पूनम शुरु के कुछ दिन न्यूज चैनल में गुजारने के बाद एक सुकून की जिंदगी जीना चाहती थी...जिसमें उसका एक पति हो...उसके बच्चे हों...और वो अपने परिवार के लिए अपने आप को न्यौंछावर कर देने का ख्वाब देखती थी। लेकिन, शायद वक्त को ये मंजूर न था। पूनम के पिता हाई कोर्ट में वकील थे...और मां एक स्कूल में शिक्षिका। पूनम के पिता पिछले तीन सालों से हॉस्पिटल में है...और घर की माली हालत चरमरा गई है। आज पूनम को अपनी छोटी बहन के पढ़ाई का खर्च भी देखना है और पिता का इलाज भी। पूनम के लिए न्यूज चैनल में काम करना आज मजबूरी है। शायद अगले पांच साल तक जब तक पूनम की बहन अपने पैर पर न खड़ी हो जाए। इसी वजह से पूनम अभी शादी भी नहीं करना चाहती। लेकिन दुनिया समझती है कि पूनम...न्यूज चैनल की सतरंगी दुनिया में कामयाबी का पैमाना है।
इन तीनों कहानियों में क्या समानता है..? .इन कहानियों में गरीबी का तत्व तकरीबन नदारद है। ये शहरी मध्यम वर्ग के संघर्षरत लड़कियों की दुखभरी दास्तान है जहां हालात, एक अदृश्य विलेन के रुप में आज भी मौजूद है।जहां रागिनी के मां-बाप के उससे पैसा छीन कर ले जाने के बावजूद भी वो किसी मनपसंद युवक से शादी करने में हिचकती है...वहीं हमारा जड़ समाज माधवी की बहन के देवर के आत्महत्या करने पर माधवी को ही कसूरवार ठहरा रहा है।पूनम इसलिए शादी नहीं कर रही कि फिर उसके पिता और बहन का क्या होगा..?.सवाल यह भी है कि क्या ऐसे दिलेर लड़के हैं जो इन लड़कियों का हाथ थाम सकें..?.उन्हे उनके मंजिल तक पहुंचाने के वादे के साथ उनका हम कदम बन सकें..? जातीय जकड़न और तंग दायरों में कैद समाज की व्यवस्था आसानी से ऐसा नहीं होने देगी..। .लेकिन नहीं...शायद कहीं विद्रोह की चिंगारी धधक रही है।शायद... लाखों-करोड़ों नौजबान, परंपरा के नाम पर उस मैले-कुचैले कपड़े को उतार फेंकने को बैचेन हो रहे हैं...और आनेवाला वक्त रागिनी, माधवी और पूनम जैसी लड़कियों के इस्तकबाल को मचल रहा है।
Friday, July 4, 2008
नासाज तबीयत और दार्शनिक भाव....
इधर कुछ दिनों से तबीयत खराब चल रही है। डॉ ने आराम करने को कहा है। ऑफिस नहीं जा रहा हूं। मन वहीं सब खाने को करता है जो मना किया गया है। हमेशा कोल्ड ड्रिंक और फ्रिज का पानी ही पीने को मन करता है। पिछले 7 महिने में ऑफिस से एक भी छुट्टी नहीं लेने का शायद इकट्ठे ही खामि याजा भुगत रहा हूं।हाल में एक लड़की से बात होने लगी है। लेकिन मुई तबीयत ने उधर भी रुचि कम कर दी है। मैं कभी-कभी सोंचता हूं कि क्या आपके स्वास्थ्य़ का असर आपके दिल पर भी पड़ता है...ऑफिस में क्या चल रहा है..कुछ पता ही नहीं चलता। दोस्तों के स्वास्थ्य शुभकामना संदेश फोन पर अक्सर आते हैं। दुनिया से कनेक्टेड इसलिए हूं कि सामने इंटरनेट है। आजकल राजीव के घर स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं। वैसे भी, तंदुरुस्ती के दिनों में भी ज्यादातर वक्त वहीं बिताता हूं।मन कभी-कभी अजीव दार्शनिक हो जाता है। सोचा करता हूं...कि मैं एक-एक पल अपने लिए बचाया करता था। सिर्फ अपने लिए...कि उसका उपयोग पढ़ने में या किसी से मिलने में करुंगा...लेकिन वक्त की एक करवट ने पिछले एक सप्ताह से मुझे हिलने से भी मना कर दिया है। इंसान की कुछ भी औकात नहीं है। बिल्कुल ही औकात नहीं है।
पता नहीं कैसे घर पर लोगों को पता चल गया है। मां-पापा का रोज ही दो तीन बार फोन आने लगा है। उनसे झूठ बोल-बोल कर परेशान हूं। मां को तो दिलाशा देना ही पड़ता है। आज तो राजीव के मां-पापा का भी फोन आ गया। मैं ऐसे फोनों से बेतरह चिढ़ जाता हूं। लेकिन शायद ये बड़े लोगों की बाते हैं। हम अभी बहुत बच्चे हैं इन चीजों को समझने के लिए। कई चीजें आपके हाथ में नहीं होती...बिल्कुल ही नहीं होती।
पता नहीं कैसे घर पर लोगों को पता चल गया है। मां-पापा का रोज ही दो तीन बार फोन आने लगा है। उनसे झूठ बोल-बोल कर परेशान हूं। मां को तो दिलाशा देना ही पड़ता है। आज तो राजीव के मां-पापा का भी फोन आ गया। मैं ऐसे फोनों से बेतरह चिढ़ जाता हूं। लेकिन शायद ये बड़े लोगों की बाते हैं। हम अभी बहुत बच्चे हैं इन चीजों को समझने के लिए। कई चीजें आपके हाथ में नहीं होती...बिल्कुल ही नहीं होती।
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