अब सवाल ये नहीं बचा कि 22 जुलाई को सरकार बचेगी या नहीं...मान लीfजए बच भी जाएगी...तो क्या कर लेगी...कुछ लोकलुभावन घोषणाएं और भावनात्मक रुप से लोगों को उत्तेजित करने वाले नारे। बाद बाकी तो...इन 7-8 महीनों में यूपीए सिर्फ इसी बात का इंतजार करेगी की महंगाई कम हो जाए तो थोड़ी जान बचे। लेकिन सरकार की साख को जो बड़ी क्षति हुई है उसकी भरपाई करना बहुत ही मुश्किल है। पहली बात ये कि आम जनता में ये गलत मेसेज गया है कि सरकार अल्पमत में है और किसी भी कीमत पर कुर्सी का मोह नहीं छोड़ना चाहती। ये बात अपने आप में पिछले चार साल से बड़ी मेहनत से अर्जित मनमोहन की सादगी और सोनिया के त्याग को धूमिल करने के लिए काफी है। दूसरी बात ये कि सरकार ने जिन लोगों का साथ लिया है उनकी जनता में छवि अच्छी नहीं है। बीजेपी भले ही अतीत में भ्रष्टाचार के आरोपों से नहीं बच पाई हो...लेकिन इस वक्त आडवाणी का लाल सलाम और दलाल सलाम का जुमला लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया है।
तीसरी बात ये कि सरकार के बच जाने के सूरत में भी लोग ये नहीं मान पाएंगे कि पैसे का लेन देन नहीं हुआ। सरकार विरोधियों के इल्जाम और अंबानी भाइयों के दिल्ली दौरों को जनता के सामने सही नहीं ठहरा पाएगी। और ऐसे में अगर चुनाव 7-8 महीने दूर भी हों तो कांग्रेस विपक्षी हमलों को नहीं झेल पाएगी। विपक्ष का आरोप समय के साथ एक-एक इंच बढ़ता जाएगा...और चुनाव के वक्त ये चरम पर होगा।
वाम दलों के साथ सरकार के चार साल तक होने का एक बड़ा फायदा कांग्रेस को मिला था। बाबरी ढ़ांचा के गिरने के बाद कांग्रेस, मुसलमानों में बदनाम हो गई थी और इसकी सेक्यूलर छवि तार तार हो गई थी। ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ था कि कांग्रेस को वाम नजदीकी होने की वजह से फिर से सेक्यूलर होने का तमगा मिल रहा था। आज भी हिंदुस्तान में सेक्यूलरिज्म का सबसे भरोसेमंद, टिकाऊ और ठोस सिपहसलार वामपंथी पार्टियों को ही माना जाता है। जाहिर है पिछले चार साल से मीडिया से लेकर समाज के हर बौद्धिक हलकों में धमक रखने वाली वाम मशीनरी ने सोनिया और कांग्रेस के खिलाफ अपना अभियान तकरीबन बंद कर रखा था। साथ ही यहीं वो मशीनरी थी और लिख्खाड़ो का एक कुनबा था जिसने साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सोनिया गांधी की महिमामयी इमेज गढ़ी थी। लेकिन कांग्रेस को अब ये प्रिविलेज नहीं मिल पाएगा। अब उसे एक तरफ तुलनात्मक रुप से मजबूत दिखने वाले बीजेपी के भावनात्मक नारों से लड़ना होगा दूसरी तरफ दिनरात काम करने वाले वाम प्रचारतंत्र को भी झेलना होगा।
सबसे बड़ी बात ये कि वामपंथी और मायावती का गठोजोड़ इस बात का प्रचार करने में नहीं चूकेगा कि परमाणु करार सिर्फ देश के विरोध में ही नहीं है...बल्कि ये मुसलमानों की विरोधी भी है। हाल के दिनों में पूरी दुनिया के मुसलमानों में जिस तरह अमरीका विरोधी भावनाएं घर कर रही है उससे कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का कोप भी झेलना पड़ सकता है। जाहिर है, कांग्रेस डिफेंसिव विकेट पर खड़ी है। ऐसे में 22 जुलाई को वह अगर विश्वासमत जीत भी जाती है तो वो क्या कर लेगी?
1 comment:
बहुत खूब लिखा
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