अंग्रेजी के बारे में मेरे पिछले पोस्ट में मैंने अपनी तरफ से सिर्फ अनुनाद जी के लिखे बिन्दुओं की व्याख्या करने की कोशिश की थी। पिछला पोस्ट आनेवाले वक्त में दुनिया के सियासी और कारोबारी हालात में बदलाव पर आधारित था लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसे हालात होंगे जो अंग्रेजी के दबदबे को चुनौती देंगे। इसमें से एक है आबादी का बदलता स्वरुप। पश्चिमी देशों और अमरीका को अपने मौजूदा माली हालत को बरकरार रखने के लिए बड़े पैमाने पर भारतीय और चीनी कर्मचारियों की जरुरुत पड़ रही है।
एक जापानी चिंतक ने कहा है कि आज से तकरीबन 400 साल बाद दुनिया से जापानी नस्ल खत्म हो जाएगी। अमरीका तो नौजवान और सतरंगा मुल्क होने के नाते दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी लोगों का स्वागत करता है लेकिन उन देशों का क्या होगा जो अपनी नस्लीय और जातीय चेतना को लेकर चौकन्ने और गर्वान्वित रहते हैं...? जाहिर है दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक तो भारतीय और चीनी लोगों की आबादी बढ़ेगी और साथ ही हमारी भाषा भी फैलेगी लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि एक भारतीय के अमरीका चले जाने से हिंदी कैसे फैलेगी..या वहां के लोग हिंदी क्यों बोलेेंगे..जबकि अंग्रेजी में उनका काम मजे में चल रहा है।
इसका जवाब भी बाजार में ही निहित है। आज बाजार अपेक्षाकृत बड़ी आबादी में बोली जाने वाली भाषाओं को जिंदा कर रहा है। आनेवाले सौ-दो सौ सालों में अगर भारतीयों की तादाद अमरीका में मौजूदा 25 लाख से बढ़कर 2-3 करोड़ हो जाती है तो वहां का बाजार इसे हाथों-हाथ लेगा...और माल बेचने के लिए हिंदी में विज्ञापन दिए जाएंगे...और सीमित स्तर पर ऐसा हो भी रहा है। मेरी दीदी जो कि कैलिफोर्निया में रहती हैं बताती है कि वहां केबल पर दिखने वाले एशियन चैनल हैं जहां अक्सर हिंदी के रिपोर्टरों का पद खाली रहता है।
हिंदी की व्यापकता इतनी है कि वो भारत के कई हिस्सों में भले ही न बोली जाए (समझते तो सब हैं भले ही वो ऐसा दिखावा न करें) लेकिन भारत के बाहर पाकिस्तान, ईरान और पूरे अरब जगत में समझी जाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उन देशों में अमिताभ बच्चन,शाहरुख खान और सास-बहू की लोकप्रियता है। दुबई में पता ही नहीं चलता कि भाषाई रुप से आप मुम्बई से बाहर हैं। कुल मिलाकर हिंदी में माल बेचने का बाजार भारत से बाहर भी 60-70 करोड़ का है और भारत को जोड़ देने से से यह डेढ़ अरब की आबादी तक जा पहुंचता है और अगर माल बिकेगा, तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और भाषा का फैलाव तो होना ही है।
दूसरी बात ये कि भारत और चीन अभी ही दुनिया में सर्विस और मेनुफैक्चरिंग सेक्टर का अड्डा बन गए हैं और सस्ते श्रम और बड़े बाजार होने के नाते दुनिया में बड़े रोजगार के अड्डे भी बन जाएंगे-ऐसी संभावना है। भारत और चीन में गोरे कर्मचारी दिखने लगे हैं, और आनेवाले वक्त में और बढ़ेंगे।(जबकि अब से पहले ऐसा सोचना भी पाप था)..जाहिर है उन्हें हमारी भाषा अपनानी होगी और एक बार ये चीज शुरु हुई तो इसकी भी पूरी संभावना है कि वो सिर्फ नौकरी तक नहीं रहेगी...जीवन के हर क्षेत्र में फैल जाएगी जैसा कि अपने यहां हम अंग्रेजी का देखते हैं। लेकिन क्या यह एक हसीन सपना नहीं है ? अभी यह एक सकारात्मक तर्कों के आधार पर की गई परिकल्पना है लेकिन हो सकता है सौ-दो सौ सालों में ऐसा हो भी जाए।
8 comments:
पढ़ते पढ़ते मन में इस पोस्ट की अन्तिम दो पंक्तिया बार बार दस्तक दे रही थी.... और फ़िर आपने भी लिख दिया...हो जाए बड़ी अच्छी बात है.... और गौरव होगा
लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि एक भारतीय के अमरीका चले जाने से हिंदी कैसे फैलेगी..या वहां के लोग हिंदी क्यों बोलेेंगे..जबकि अंग्रेजी में उनका काम मजे में चल रहा है।
ग़लत है आप का ये सवाल, क्योंकि :-
१. अमेरिकन यूनिवर्सिटी में तथा नासा में काम करने वाले भारतीयों ने संस्कृत में वेबसाईट बनाई है, जो मैंने ख़ुद देखी है.
२. विदेश जाने वाले भारतीय अपना समूह बनाते हैं और अपने त्यौहारों पर मिलते जुलते हैं.
वे अपनी संस्कृति नहीं भूलते हैं. हाँ ये बात अलग है उन सभी के बच्चे उनका अनुसरण नहीं करते हैं पर कईयों के तो अपने मंदिरों में जाते हैं, पूजा करते हैं. सिखों के बच्चे भी अपने गुरुओं से सबद सीखते हैं.
अतः उनके जाने से कमज़ोर होने के बजाय मज़बूत होगी अपनी भाषा. आख़िर अपना देश, अपनी धरती, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा नाम की भी कोई चीज़ होती है.
गुरु माया जी, आपने मेरी कल्पना को बल प्रदान किया है। मैं इसी उधेरबुन में था कि क्या सारे के सारे अनिवासी भारतीय हिंदी को फैलाने में मदद दे रहें है या फिर सिर्फ अंग्रेजी में रुपान्तरित हो रहे हैं। धन्यवाद सर।
दुनिया पर छाने वाली हिन्दी वैसी नहीं होगी जैसी की आज है, या जैसी ब्लॉग, पत्रिकाओं, सम्पादकीय, पुस्तकों में देखने में आती है. वह कुछ विकृत हिंगलिश खिचड़ी जैसी होगी जिसे देवनागरी में लिखा जाएगा.
उसे हिन्दी कहा ज़रूर जाएगा पर वह काफी अलग होगी, शायद 'एमटीवी रोडीज़' वाली हिन्दी.
कैसे कमजोर होगी अंग्रेजी...आपका विश्लेषण स्तरीय लगा..मेरी मानें तो जब तक खुद हिन्दी वाले..अपने को दीन हीन मानते..समझते रहेंगे..अंग्रेजी का दायरा बढ़ता जाएगा..लेकिन सच ये भी है कि आज के माहौल में अंग्रेजी को दरकिनार करना भी मुमकिन नहीं..
bhasa aur arth jo samnavay aapne is lekh ke jarie prastute kiya hai wah bahut hi kabile tarif hai,par mai yahan ak aur baat kahana chahunga hindi ke bolne walo ki sankhaya hindi ki jivan ke liye khafi hai, par hindi bolene walo ki aatma bhi english ka sarir dharan karna chahti hai,jo hindi ke liye khatre jaan padta hai
झा साहब आप बेहतर एनालिस्ट है, मैं सगर्व आपमें अगला योगेन्द्र यादव वा सुधीश पचौरी देख रहा हूं। मैथिली का एक ब्लाग शुरु क्यो नहीं करते? मातृभाषा के प्रति इतना कर्तव्य तो है ही।
मंजीत आपको धन्यवाद...हलांकि योगन्द्र यादव और सुधीश पचौरी के साथ मेरी तुलना मेरे साथ ज्यादती है। जहां तक मैथिली का ब्लॉग शुरु करने की बात है, मैं इस पर विचार कर रहा हूं।
Post a Comment