Friday, July 11, 2008

अंग्रेजी कैसे मरेगी...-1

अनुनाद जी ने बड़ा ही दिलचस्प सवाल उठाया है कि क्या अंग्रेजी नहीं मरेगी ?...हलांकि पहली नजर में ये सवाल किसी को भी बेतुका और अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन अगर गौर से देखें तो इसके कुछ लक्षण उभरने लगे हैं। आज अंग्रेजी सीखने की जो होड़ दुनिया में देखने को मिल रही है उसकी अहम वजह ये है कि दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान और कारोबार अंग्रेजी में ही धड़कता है। तकरीबन दो सदियों से दुनिया में अंग्रेजी का इंस्फ्रास्ट्रक्चर इतना मजबूत हो गया है कि उसे हिलाना किसी के लिए भी नामुमकिन दिखता है। दुनिय़ा के बेहतरीन रिसर्च वर्क अंग्रेजी में हो रहे हैं.. और एक आकलन के मुताबिक मैजूदा दौर में तकरीबन 60 फीसदी छपे हुए शब्द अंग्रेजी भाषा के हैं। जाहिर है इसके पीछे अंग्रेजी बोलने बाले देशों की आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व है। पहले इंग्लैन्ड और अब अमरीका का दबदबा, अंग्रेजी को पूरी दुनिया में अपना रुतबा दिखाने का मौका दे रहा ह।

लेकिन फर्ज कीजीए..अगर ये हालात बदल जाएं तो क्या होगा। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गई, लेकिन ये चरण भी अब पूरा होने वाला है। जाहिर है, अमरीका भी इससे अनजान नहीं। आनेवाली दुनिया में जो आर्थिक और सत्ता संरचना उभरने वाली है वो बहुध्रुवीयता की तरफ साफ इशारा कर रही है, जिसमें चीन, भारत, रुस, ब्राजील, बियतनाम, जापान और ईयू(जर्मनी-फ्रांस) की बड़ी भूमिका रहनेवाली है। कहीं न कहीं अमरीका भी इस व्यवस्था का हिमायती है क्योंकि वो कभी नहीं चाहेगा कि दुनिया फिर से द्विध्रुवीय बन जाए( और जिसका स्वभाविक नेता चीन बन जाए)-इससे ज्यादा मुफीद उसे दुनिया का वहुध्रुवीय बन जाना लगता है। और इसकी वजह ये है कि उस नयी व्यवस्था में भी अमरीका के समर्थकों का खासा दबदबा रहेगा। गौरतलब है कि इन तमाम उभरती हुई ताकतों में भारत को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का बोलबाला नहीं है। सारे देशों ने अपनी भाषा के बल पर तरक्की की है। इसलिए, ये कहना कि अंग्रेजी में ही ज्ञान की गंगोत्री छुपी हुई है- मानसिक दीवालिएपन से कम नहीं। हां, हिंदुस्तान जैसे मुल्क में अंग्रेजी का अपना अलग तरह का योगदान है और इसने अतीत में (या एक हद तक अभी भी) हमारी विभिन्नताओं से अंटे परे समाज को जोड़ने में एक पुल का काम जरुर किय़ा। इसने आजादी की लड़ाई में पूरे देश के युवाओं को एक मंच पर लाया,साथ ही पश्चिम में हुए सदियों के विकास को एक झटके में हमारे दहलीज पर ला पटका। लेकिन इसकी इतनी गहरी जड़े सिर्फ इस कारण से नहीं जमी है...इसकी वजह तो हमारा आपसी झगड़ा है कि आजादी के बाद किसी एक भाषा को हम आम सहमति से पूरे देश में मनवा नहीं पाए। विशाल क्षेत्र में बोली-समझी जानेवाली हिंदी अपने मुल्क में मान्य नहीं हो पाई..और अंग्रेजी को वो दर्जा आराम से मिल गया।

लेकिन जो सबाल यहां मुंह बाए खड़ा है वो ये कि क्या दुनिया में अंग्रेजी का ये जलबा बहुत दिन तक कायम रह पाएगा ? भूमंडलीकण के इस दौर में बाजार राजनीति को प्रभावित कर रहा है..साथ ही लोगों के जीवनशैली और संस्कृति को भी। साफ है इन सारे बदलावों से भाषा अपने आप को बहुत दिन तक नहीं बचा पाएगी। तमाम आकलन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि दुनिया की छोटी-छोटी भाषाओं और जीवनशैलियों का वजूद खतरे में है, और बढ़ते शहरीकरण के दौर में सिर्फ बड़ी भाषाएं/संस्कृतियां ही अपना वजूद बचा पाएंगी। दुनिया के स्तर पर अगर बात करें..तो चीन और भारत अपने मानव संसाधन और भू-सामरिक स्थिति की वजह से दुनिया में अपना खास मुकाम बनाने वाले हैं...और चाईनीज आज के दौर में अंग्रेजी के बाद किसी भी देश में सबसे ज्यादा सीखी जाने वाली भाषा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अपने ही देश में जेएनयू के भाषा संकाय में एडमिशन लेने वालों की होड़ है जहां चाईनीज के लिए सबसे कठिन परीक्षा देनी पड़ती है। दूसरी तरफ,अपने देश के एलीटों में या राजनैतिक-आर्थिक सत्ता संस्थानों में हिंदी की हालत भले ही बहुत सुखदायक न हो, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में हिंदी सीखने की ललक, मंथर गति से ही सही, बढ़ रही है। आज दुनिया की तकरीबन 45 फीसदी आवादी वाले ये दोनों देश बड़ी तेजी से सियासी और कारोबारी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। अगर ये दोनों मुल्क अपने सियासी मुद्दो को तेजी से सुलझा लें...तो आपसी कारोबार करने के लिए अंग्रेजी की कोई जरुरत नही् रह जाएगी।

अगर आनेवाले पचास- सौ सालों में ऐसा होता है तो दुनिया की सियासत का केंद्र अमरीका-यूरोप से खिसक कर एशिया के इन देशों में आ जाएगा। और इतिहास गवाह है कि भाषाएं वहीं लोकप्रिय होती है जिनका सियासत और कारोबार में दखल होता है। इसका बेहतरीन उदाहरण प्राचीन भारत के संदर्भ में संस्कृत, मध्यकाल में फारसी और आधुनिक काल में अग्रेजी जलबा नहीं है...? क्या इन्ही हालातों का फायदा अंग्रेजी को नहीं मिलता रहा है..? रही बात रिसर्च और ज्ञान विज्ञान की तो ये तमाम चीजें आर्थिक व्यवस्था से जुडी है। कल को अगर चीन और भारत की माली हातल सुधरती है, तो कोई ताज्जुब नहीं कि बेहतरीन रिसर्च हमारे यहां भी होंगे। और आज जो पूरे दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, भय और उम्मीदों,सियासी कलावाजियों-दांवपेंचों-धमकियों का केंद्रेबिन्दु, वाशिंगटन-लंदन बना हुआ है...वो कल को बीजींग-नई दिल्ली भी बन सकता है। लेकिन ऐसा होने में वक्त लगेगा। तारीख में सौ-पचास साल बहुत ज्यादा नहीं होते...और बहुत सारी बातें उन हालातों पर निर्भर करेगा जो दुनिया की सियासत पर असर डालेंगे। (जारी)

3 comments:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

बढ़िया लेख, जय हिन्दी, जय हिन्दू जय हिन्दुस्तान!

Batangad said...

विचार अच्छा है। थोड़ी दूर की कौड़ी दिखता है

दीपान्शु गोयल said...

एक दिन हिन्दी अपनी ताकत जरुर हासिल करेगी। बस हमें हिन्दी पर विश्वास बनाये रखने की जरुरत है