Saturday, May 9, 2009

दलित, समाज, सरकार और हकीकत- 4

एक सवाल ये भी है कि दलितों के बच्चों को कमसे कम क्लास दसवीं तक कैसे स्कूल में रोक कर रखा जाए। देखने में ये आया है कि जैसे ही वो 12-14 साल के होते हैं उनपर परिवार चलाने की जिम्मेवारी आ जाती है, उनका परिवार इतना बड़ा होता है, उनके परिवार में अशिक्षा-जनित जागरुकता की कमी इतनी होती है कि उन्हे पढ़ाई जारी रखने में बड़ी मशक्कत होती है। सरकार ने स्कूलों में दोपहर का भोजन लागू करके इस दिशा में थोड़ा सा प्रयास किया है लेकिन सिर्फ ये कदम काफी नहीं है।

दोपहर का भोजन तो सिर्फ मिडिल स्कूल तक ही मिल पाता है, उससे आगे ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं है। हमारे देश के स्कूलों में सबसे ज्यादा ड्रॉप आउट दर अगर किसी की है तो वो दलितों के बच्चों की ही है। अगर यहां हम उनकी तुलना आदिवासियों से करें तो वहां स्थिति थोड़ी सी भिन्न है। सरकार से इतर इसाई मिशन और कई दूसरे संस्थाओं ने वहां शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर काम किया है, लेकिन दलितों के लिए खासकर के मैदानों में रहनेवाले दिलितों के बीच ये संस्थाएं काम नहीं कर रही। अभी तक हमारे देश की सरकारें इस ड्राप आउट को रोकने का कोई मुकम्मल तरीका नहीं खोज पाईं हैं।

यहां मामला उलझ जाता है। हमारी व्यवस्था ने संविधान में दलितों को आबादी के हिसाब से आरक्षण देकर अपने आपको जिम्मेदारियों से मुक्त कर लिया है। तो फिर सवाल ये है कि जिस वर्ग के पास जमीन नहीं है, शिक्षा में तमाम दिक्कते हैं वो अपनी तरक्की कैसे करे। क्या सिर्फ उसके घर के पास स्कूल खोल देने से वो अपनी पढ़ाई पूरी करके उन वर्गों के समकक्ष आ पाएगा जिनके घर पीढ़ियों से शिक्षा की ज्योति और संसाधनों की बरसात में नहाए हुए हैं ?

यहां कुछ साहसिक कदम उठाने की जरुरत है। सरकार कुछ ऐसे प्रोत्साहन के कदम उठा सकती है जिससे दलितों के बच्चे कम से कम हाई स्कूल या उससे ऊपर तक की शिक्षा ले सके। सरकार दलितों के बच्चों को प्रतिदिन कक्षा में उपस्थित होने के एवज में एक न्यूनतम राशि दे सकती है और ऐसे स्कूलों को सम्मानित कर सकती है जहां दलितों के बच्चे अच्छा परफॉर्म करते हों।

सरकार ऐसा भी कर सकती है कि दलितों के लिए एक न्यूनतम शिक्षा स्तर के बाद एक ब्याजमुक्त कर्ज की व्यवस्था करे जिससे वो अपना कोई व्यापार खडा कर सकें। मेरा मानना है कि दलितों के लिए वैसे भी सरकार को न्यूनतम ब्याज पर व्यापारिक ऋण का इंतजाम करना चाहिए। अगर कोई दलित दसबीं पास कर जाता है तो उसे कम से कम 25,000 रुपये प्रोत्साहन राशि के तौर पर मिलनी चाहिए। ये कदम कुछ वैसा ही होगा जैसे सरकार लाड़ली योजना के तहत कई सूबों में लड़कियों के जन्म पर कुछ रकम बैंको में जमा करवाती है।

दूसरी बात जो अहम है वो ये कि दलितों की आबादी का एक बड़ा वर्ग मेहनत मजदूरी करके कमाता है। सरकार ने नरेगा लागू किया है जो अच्छा कदम है लेकिन इसमें न्यूनतम मजदूरी इतनी कम है कि ये नाकाफी लगता है। वर्तमान में शायद सरकार रोजगार गारंटी योजना के तहत 65 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 100 का रोजगार देती है, इसे बढ़ाकर 100 रुपये प्रतिदिन करने की जरुरत है। (जारी)

2 comments:

संगीता पुरी said...

आमदनी की कमी के कारण दलित बच्‍चे नहीं पढ पाते .. ऐसी बात नहीं है .. वास्‍तव में उनमें जागरूकता की कमी होती है .. उससे कम आमदनी वाले जागरूक परिवार में लाख कष्‍ट के बावजूद बच्‍चे को पढाया जाता है।

sushant jha said...

संगीताजी, जागरुकता जिस चीज का नाम है क्या वो सिर्फ पैसे से आता है ? इस सवाल पर विचार कीजिए की एक दलित के बच्चे में जागरुकता क्यों नहीं आता और एक ब्राह्मण या कायस्थ का बच्चा कमजोर आर्थिक हालात के बावजूद जागरुक रहता है।इसकी वजहे सदियों के के शोषण,पृथिक्करण, अलगाव, और सोशलाईजेशन में छिपा हुआ है- न कि इसमें कि दूसरे वर्गों के बच्चे पैदाइशी जहीन होते हैं। दूसरी बात ये कि हम यहां विराट दलित वर्ग की बात कर रहे हैं न कि कुछ खास अपवादों की।