Thursday, September 24, 2009

दून-लंदन में पढ़ा शख्स कोबाद गांधी भी हो सकता है, राहुल गांधी ही नहीं...

टीवी पर कोबाद गांधी की खबर आ रही थी। आफिस में साथ करनेवाले एक मेरे मित्र ने उसे धोखे से राहुल गांधी समझ लिया। वजह ? वजह ये कि वो गांधी भी दून और लंदन में पढ़ा था। मतलब ये कि अधिकांश लोग यहीं सोचते हैं कि एक नक्सली दून और लंदन में कैसे पढ़ सकता है ? उसे तो फटेहाल या दीनहीन होना चाहिए। पेट की भूख ही किसी को नक्सली बना सकती है ! क्या वाकई ऐसा है?

विश्वदीपक मेरे मित्र है, एक टीवी चैनल में काम करते है। हमारी सप्ताहिक मुलाकातों में अक्सर इस विषय पर गंभीर बतकुट्टौवल होती है कि वाकई नक्सलवाद या अतिवामपंथ का हमारे देश में कोई भविष्य है। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि वामपंथ ही अप्रसांगिक हो गया है। इसकी वजह वे ये गिनाते हैं कि सोबियत ढ़ह गया, चीन बदल गया और अपने यहां बंगाल में उसका किला कमजोर पड़ गया है। तो क्या यहीं वामपंथ की प्रसांगिकता या परिभाषा है। विश्वदीपक कहता है कि अगर नक्सली समस्या पर हम दिल्ली के पाश इलाके के किसी फ्लैट में बहस कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि वो हमारे ड्राईंग रुम में घुस गया है।


ये तर्क मुझे परेशान कर देता है, लेकिन वाकई इस तर्क में दम है। उसका ये भी कहना है कि वो कौन सी वजहें है जिस वजह से अचानक ग्रामीण विकास मंत्रालय पिछले कुछ सालों में ‘एलीट’ मंत्रालय बन गया है, और राहुल गांधी ‘नरेगा’ की माला जप रहे हैं? इसकी ये वजह नहीं कि देश के संभ्रान्त शासक वर्ग का हृदय परिवर्तन हो गया है, बल्कि इसकी वजह दांतेवाड़ा और लातेहार की गरजती बंदूके हैं जिससे हिंदुस्तान का सत्ताधारी एलीट घवरा गया है। ये नक्सलवाद की पहली विजय है। वो दिल्ली की सत्ता पर भले ही कब्जा न कर सके लेकिन उसके संघर्षों ने लुटियंस जोन में बैठों शासकों को प्रतीकात्मक रुप से ही बदलने को जरुर मजबूर कर दिया है।

कुछ आंकड़ों पर गौर करने की जरुरत है। देश में पिछले 60 साल में साक्षरता बढ़ी है, आमदनी बढ़ी है, लोगों का जीवनस्तर बढ़ा है। ये आंकड़े खुशफहमी पैदा करते हैं। लेकिन सवाल को जरा पटल दीजिए। क्या पिछले साठ साल में सकल निरक्षरों की तादाद में कमी आई है ? क्या गरीबों की सकल तादाद में कमी आई है, भले ही फीसदी में कमी जरुर आ गई हो ? देश की एक बड़ी आबादी निरक्षर है, गरीबी रेखा से नीचे है और स्तरीय मानकों पर उसके जीवन जीनें की दूर-2 तक अभी कोई संभावना नहीं है। हालत इतनी खराब है कि देश के उद्योगपतियों को सिर्फ जीवनयापन की कीमत पर सस्ते मजदूर मिलते हैं और देश के कई अंबानी दुनिया के रईसों में शुमार हो गए हैं। वे इसलिए अमीर नहीं हुए कि उन्होने किसी इनोवेटिव उत्पाद का आविष्कार किया हो और दुनिया के बाजारों में भर दिया हो। ये नितांत सस्ते श्रम का मायाजाल है।

ऐसी हालत में अगर 70-80 करोड़ लोग एक स्तरहीन जिंदगी जी रहे हैं और गुस्सा, खींझ, बीमारी, कुपोषण और निरक्षरता की हालात में फंसे हैं तो क्या ये हालात नक्सलवादी आंदोलन के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया नहीं कराती ? गृहमंत्रालय के आंकड़े बता रहे हैं कि देश के तकरीबन एक चौथाई जिले माओवादियों के असर में है या उनका वहां कुछ प्रभाव है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री तक बार-बार चिंता जाहिर करते हैं कि माओबादी सबसे बड़ा खतरा है तो वे मजाक नहीं कर रहे होते-उनकी जुबान से एक अज्ञात भय झलकता है। वक्त आ गया है हम इस समस्या को वास्तविकता के स्तर पर झेंले न कि सिर्फ लफ्फाजी करके। अगर हम दून और लंदन में पढ़े हर आदमी को राहुल गांधी समझने की गलती करेंगे तो नक्सली वाकई राजधानी तक आ जाएंगे।

7 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

नक्सली की समस्या भयावह है | पर हमारे आपके सोचे क्या होगा, अपनी सरकार को वोट बैंक की राजनीति से फुर्सत मिले तब तो कुछ और सोचेंगे ?

ghughutibasuti said...

कोबाद गाँधी जैसे व्यक्ति का नक्सलवाद से जुड़ना ही समस्या की गंभीरता को बताता है। किसी भी व्यक्ति की पीठ जब दीवार से लग जाए तो वह हिंसक हो सकता है। बहुत से सुधारों की आवश्यकता है। सुधार होंगे तो समस्या भी सुलझ जाएगी।
घुघूती बासूती

प्रमोद ताम्बट said...

कोबाद गांधी को लेकर सबसे बड़ी चिंता व्यवस्था की यह है कि दून जैसे संस्थान से एक नक्सली कैसे पैदा हो गया जिसे जबकि ऐसे संस्थान बनाए ही इसलिए गए हैं ताकि व्यवस्था के पिट्ठू तैयार किए जा सके।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.log.co.in

Pratibha Katiyar said...

आपके मित्र विश्वदीपक गलत नहीं कहते सुशांत जी.

Jayram Viplav said...

yahan bhi kai log sakriy hain jo khuleaam apni id mein batate hain ki wo naksali karykarta hain .


samasya to to idhar bhi gambhir hai

संगीता पुरी said...

मैं थोडी देर अपनी सीट पर नहीं थी .. आपका मैसेज समय पर नहीं देख सकी .. अफसोस है .. पर आगे बात अवश्‍य होगी !!

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

विश्वदीपक सही है, वह ठीक ही तो कह रहे हैं कि नक्सलवाद हमारे घर में घुस आया है। हम इससे डर रहे हैं, जो सच नहीं है। हमें बातचीत के जरिए हल निकलाना होगा। हां, रांची में फ्रांसिस की हत्या से बहुत दुख हुआ, खासकर उनके बेटे अभिषेक की करुण पुकार सुनकर..वह बदला लेने की प्रतिज्ञा ले रहा है..। मैं असमंजस हूं नक्सलवाद को लेकर..हाल ही में बीबीसी सुन रहा था, नक्सली नेता से बीबीसी संवाददाता पूछता है-कोबद ने गांधी क्यों लगाई..क्या वह भी गांधी है..नक्सली नेता बोलता है- मेरा गांधी मार्क्सवादी माओवादी है....मैं हैरान हूं..परेशान हूं..