रागिनी के मां-बाप उसके जन्म के कुछ ही दिन बाद ऊपर चले गए। रागिनी को उसके चाचा-चाची ने पाला। वह उन्हे ही 'मम्मी-पापा' कहती है। शुरु में चाचा-चाची का व्यवहार ठीक था। लेकिन बाद में बात-बात पर उसे ताना मिलने लगा। रागिनी को घर का सारा काम करना पड़ता। रागिनी की हालत उस घर में एक बिना बेतन के नौकरानी से ज्यादा नहीं थी। लेकिन उस घर में कोई ऐसा भी था जो उसे लेकर सहानुभुति रखता था। और वो था रागिनी का चचेरा भाई दिनेश। दिनेश जब बड़ा हुआ तो उसने अपने घर में इस जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई। काफी जोर-जबर्दस्ती के बाद दिनेश ने रागिनी का एडमिशन गाजियाबाद के एक एमबीए कॉलेज में करा दिया। आज रागिनी एक मल्टीनेशनल में काम करती है और 20 हजार कमाती है। लेकिन उसके दुख का अंत अभी नहीं हुआ है... उसके 'मम्मी-पापा' आज भी महिना के शुरु में आ धमकते हैं और उससे सारा पैसा छीन ले जाते हैं। रागिनी का भाई उसे अपनी मर्जी के किसी लड़के से शादी करने के लिए कह रहा है...लेकिन रागिनी ऐसे दहशत के साये में जीती आई है कि उसे लगता है कि उसके मम्मी पापा उसे गोली मार देंगे।
माधवी की कहानी इससे थोड़ी अलग है। माधवी के मां-बाप भी बहुत कम उम्र में उसे छोड़कर इश्वर के प्यारे हो गए। उसे भी उसके चाचा-चाची ने पाला। माधवी पढ़ने में जहीन थी। उसने वेस्ट बंगाल इन्जिनियरिंग क्लीयर किया और उसका दाखिला जादवपुर युनिवर्सिटी में हो गय़ा। कहानी तब उलझ गयी जब माधवी की चचेरी बहन की शादी ठीक हुई। माधवी देखने में सुन्दर थी,जहीन थी और इंजिनयरिंग कर ही रही थी। लगे हाथों घर वालों ने माधवी की शादी की बात उसके चचेरी बहन के देवर से चलाई। उसकी बहन का देवर माधवी को मन ही मन चाहने भी लगा।इधर माधवी अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के को पसंद करती थी।वक्त का फेर देखिये...शायद माधवी की तकदीर ही ठीक नहीं थी। माधवी के बहन के देवर ने माधवी की शादी उसके साथ न होते देख खुदकुशी कर ली...और माधवी का सहपाठी लड़का जिसे वो पसंद करती थी...वह भी उससे शादी से मुकर गया। माधवी डिप्रेसन में चली गई। माधवी को काफी मशक्कत के बाद सत्यम कम्प्यूटर में काम मिल गया है..और कंपनी उसे कैलिफोर्निया भेज रही है। माधवी अभी 2-3 साल वहां रह कर अपना सारा गम भुलाना चाहती है। लेकिन रिश्तेदार हैं कि उसकी बहन के देवर की खुदकुशी का सारा दोष माधवी के सर मंढ़ रहे हैं...लेकिन इसमें माधवी का क्या कसूर है ?
एक तीसरी कहानी भी है...और वो बिल्कुल अलग है। हिंदी के एक बड़े और मशहूर न्य़ूज चैनल की उभरती हुई न्यूज एंकर...लेकिन उसका दर्द ये है कि वो अपनी मर्जी से टेलिविजन के पर्दे पर नहीं आ रही। भगवान ने पूनम को हरेक नेमत बख्शी है। वो बला की खूबसूरत है, जहीन है, कन्फिडेन्ट है, और स्पष्ट उच्चारण के साथ खनकती हुई आवाज की मलिका है। कुल मिलाकर उसमें वो सब है जो एक न्यूज एंकर में होना चाहिए। लेकिन पूनम क्या चाहती है...किसी ने उससे आज तक नहीं पूछा। पूनम शुरु के कुछ दिन न्यूज चैनल में गुजारने के बाद एक सुकून की जिंदगी जीना चाहती थी...जिसमें उसका एक पति हो...उसके बच्चे हों...और वो अपने परिवार के लिए अपने आप को न्यौंछावर कर देने का ख्वाब देखती थी। लेकिन, शायद वक्त को ये मंजूर न था। पूनम के पिता हाई कोर्ट में वकील थे...और मां एक स्कूल में शिक्षिका। पूनम के पिता पिछले तीन सालों से हॉस्पिटल में है...और घर की माली हालत चरमरा गई है। आज पूनम को अपनी छोटी बहन के पढ़ाई का खर्च भी देखना है और पिता का इलाज भी। पूनम के लिए न्यूज चैनल में काम करना आज मजबूरी है। शायद अगले पांच साल तक जब तक पूनम की बहन अपने पैर पर न खड़ी हो जाए। इसी वजह से पूनम अभी शादी भी नहीं करना चाहती। लेकिन दुनिया समझती है कि पूनम...न्यूज चैनल की सतरंगी दुनिया में कामयाबी का पैमाना है।
इन तीनों कहानियों में क्या समानता है..? .इन कहानियों में गरीबी का तत्व तकरीबन नदारद है। ये शहरी मध्यम वर्ग के संघर्षरत लड़कियों की दुखभरी दास्तान है जहां हालात, एक अदृश्य विलेन के रुप में आज भी मौजूद है।जहां रागिनी के मां-बाप के उससे पैसा छीन कर ले जाने के बावजूद भी वो किसी मनपसंद युवक से शादी करने में हिचकती है...वहीं हमारा जड़ समाज माधवी की बहन के देवर के आत्महत्या करने पर माधवी को ही कसूरवार ठहरा रहा है।पूनम इसलिए शादी नहीं कर रही कि फिर उसके पिता और बहन का क्या होगा..?.सवाल यह भी है कि क्या ऐसे दिलेर लड़के हैं जो इन लड़कियों का हाथ थाम सकें..?.उन्हे उनके मंजिल तक पहुंचाने के वादे के साथ उनका हम कदम बन सकें..? जातीय जकड़न और तंग दायरों में कैद समाज की व्यवस्था आसानी से ऐसा नहीं होने देगी..। .लेकिन नहीं...शायद कहीं विद्रोह की चिंगारी धधक रही है।शायद... लाखों-करोड़ों नौजबान, परंपरा के नाम पर उस मैले-कुचैले कपड़े को उतार फेंकने को बैचेन हो रहे हैं...और आनेवाला वक्त रागिनी, माधवी और पूनम जैसी लड़कियों के इस्तकबाल को मचल रहा है।
9 comments:
और अब आपकी तबियत कैसी है सर.. फिलहाल समय का बेहतर सदुपयोग कर रहे हैं...कुछ लिखना वक्त को संजोने की तरह होता है...और ये काम आप बखूबी कर रहे हैं
सुबोध जी...तबीयत धीरे-धीरे ठीक हो रही है...जल्द ही ऑफिस आउंगा।
aajkal itna dabbupan wah bhi padhi-likhi aatmnirbhar ladkiyon me!! thode aschary ki baat hai.fir kisi ke kuchh sonchane se kya frk padhta hai.yah sankraman kaal hai jab naari apni kahani khud likh rahi hai.yah buri baten bhi jaldi badal jayegi
लवली जी...यहीं तो आश्चर्य की बात है कि इतनी सवल होकर भी ये लड़किया कई दफा अपने आपको असहाय पाती है।
kahaniya bhut achhi thi. me aapki baat se sahamat hun.
इन्हें कहानियां कहना सही नहीं होगा....ये जिन्दगी की कड़वी सच्चाई है....चकाचौंध भरी टीवी की दुनिया में सभी चीजें चमकदार नहीं होतीं..पूनम भी शायद उसी की एक कड़ी हैं...
ये कहानिया नही है...बस कुछ आप बीती है....घर चाहे बंगलौर में हो या कलकत्ता या बिहार ...कमोबेश जुदा किस्म की परेशानिया लड़कियों को झेलनी पड़ती है.......ओर वे झेल रही है अपने अस्तित्व की लड़ाई ?
very interesting story, but i have one doubt to u that u always written about sad story, bhaiya kabhi kabhi love story bhi to likhiye aur vaishali ki chinta mat kariye jab tak mai hoon vaishli ko koi nahi jala sakta. tabiyat kaisi hai? hopefully now u r allright.
इसमे कोई शक नहीं की तीन लड़कियों के माध्यम से आपने नारी की जिस स्थिति का वर्णन किया है वो काबिलेतारीफ है, लेकिन सुशांत जी क्या आपने कभी सोचा की क्यों लड़िकयां यह सब सहने को मजबूर है। रचना वर्मा आपकी एक सहयोगी
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