Saturday, May 2, 2009

दलित, समाज, सरकार और हकीकत-2

आजादी के तकरीबन छह दशक बाद भी दलितों की मूल समस्याएं क्या हैं। दलितों की मूल समस्या ये है कि उनके पास अभी भी देश में उपलब्ध भौतिक परिसंपत्तियों का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है जिसके फलस्वरुप गरीबी और उससे पैदा हुई तमाम तकलीफों का समना दलितों को करना पड़ता है। गरीबी की वजह से दलितों में भयावह अशिक्षा है, उनकी जन्मदर ज्यादा है और वो सिर्फ शारीरिक श्रम के बदौलत जीवन जीने को अभिशप्त हैं। उनमें अशिक्षा की एक वजह सदियों के शोषण और समाजिक पृथिक्करण-अलगाव-भेदभाव की वजह से कम जागरुकता का होना भी है जैसा कि अन्य समुदायों में नहीं है। तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद अत्यधिक आकांक्षा और संघर्ष के बल पर ही एक दलित आगे बढ़ पाता है। इसको आप सोसलाईजेशन भी कह सकते है। उनके पास उस सोसलाईजेशन का अभाव है जो किसी सवर्ण या पिछड़े को स्वभाविकत: ही तरक्की करने का हौसला देती है।

दलितों में सोशलाईजेशन न होने की मुख्य वजह हमारे समाज की क्रूर संरचना है जिसने उन्हे गांव से अलग या फिर एक खास लोकेलिटी में बसने को मजबूर किया है। वो लोगों से उस तरीके से घुलमिल नहीं पाते जिस तरह से दूसरे वर्ग के बच्चे मिलते जुलते हैं। अभी भी गांवो में दलितों का मेलजोल दूसरे वर्गों के साथ सिर्फ कामकाजी स्तर तक सीमित है, वो समाजिक रुप नहीं ले पाया है। इससे वो उन तमाम अनुभवों, सूचनाओं और रास्तों से बंचित हो जाते हैं जो अन्य समुदायों को सहज सुलभ है। इस बात को शहरी आईने में नहीं समझा जा सकता जहां आईआईटी या दूसरे संस्थानों में सारे बच्चे परस्पर घुलमिल कर रहते हैं। हलांकि यदाकदा वहां भी इस तरह के भेदभाव की खबर आती ही रहती है।

भौतिक परिसंपत्तियों में उनकी भागीदारी और सोशलाईजेशन सिर्फ ऐसी समस्या नहीं है जिसे जादू की छड़ी से दूर की जा सके। दरअसल यह एक मनोविज्ञान है जिसका इलाज सिर्फ सर्वांगीन साक्षरता और समाजिक आन्दोलनों से ही संभव है।

लेकिन सवाल ये है कि भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी कैसे बढ़े ? ध्यान देने की बात ये भी है कि यहां हम खाते पीते शहरी-सरकारी नौकरीवाले दलित की बात नहीं कर रहे। भौतिक परिसंपत्तियों में दलितों की भागीदारी का एक रास्ता देश में सही ढ़ंग से लागू किया गया भूमिसुधार हो सकता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं सका। दूसरा रास्ता ये है कि दलित अपने मेहनत के बल पर जमीन खरीदें और अपनी उत्पादकता बढ़ाएं। लेकिन इस राह में भी तमाम बाधाएं है।

दरअसल, सदियों के छूआछूत की प्रथा की वजह से दलितों का मेलजोल अभीतक जमीन की मल्कियत रखनेवाले वर्गों के साथ नहीं हो पाया है। तकरीबन पूरे हिंदुस्तान की जमीन या तो सवर्णों के कब्जे में हैं या मध्यमवर्ती दबंग जातियों के। ऐसे में जब कोई जमीन बिकता भी है तो वो सवर्णों के हाथ से निकलकर मध्यमवर्ती जातियों के हाथ ही आता है। ऐसा अक्सर होता है कि उचित मूल्य देने का बावजूद एक दलित वो जमीन नहीं खरीद पाता जबकि मध्यमवर्ती जातियां वो जमीन उसी दर पर ले लेती है। ऐसा किसी नीति के तहत भले ही न किया जाता हो, लेकिन समाज की संरचना ही ऐसी है कि अमूमन ऐसा ही होता है।

इसे समझने के लिए कई बातें समझनी आवश्यक है। हमारे देश में जातियों का ऐसा पदानुक्रम बना हुआ है जिसमें दलितों को छूआछूत की वजह से गांवों में कई ऐसे काम नहीं मिल पाते जो वो आसानी से कर सकते हैं। उत्तर भारत में खासकर बिहार की बात करें तो पानी चलनेवाली जातियों का एक सिद्धांत हैं। इसके मुताबिक गैर-दलित जातियों का पानी ब्राह्मण और सवर्ण पी सकते हैं। इसके वजह से घरेलू काम करने और समाजिक मेलजोल बढ़ाने में मध्यमवर्ती जातियों को आसानी होती है जो उनके व्यापक सोशलाईजेशन का आधार है। ये काम दलितों के लिए बर्जित हैं। उदाहरण के लिए एक यादव, कोईरी, कुर्मी या नाई एक ब्राह्मण के घर उसी थाली में या उसी के कप में चाय पी सकता है जबकि दलित ऐसा नहीं कर सकते।

दलितों के साथ इतना अन्याय किया गया है, उन्हे इतना अलग थलग रखा गया है कि किसी भी गैर-दलित का पंडित ब्राह्मण ही होता है लेकिन दलितों के यहां ब्राह्मण पूजा करवाने नहीं जाते। ये ऐसी भयावह स्थिति है जिसमें किसी भी मध्यमवर्ती जाति को सवर्णों के साथ उठने बैठने और घुलने मिलने में आसानी होती है जबकि दलितों के साथ ऐसा नहीं हो पाता। कुल मिलाकर मध्यमवर्ती जातियां, सवर्णों से समाजिक रुप से ज्यादा निकट हैं और इसका फायदा उन्हे तमाम चीजों में मिला है। यहीं पर जब भौतिक संपत्तियों के हस्तांतरण की बात आती है तो दलित पीछे छूट जाता है। उसे लाख काबिलियत के बावजूद इसका एक छोटा सा हिस्सा ही मिल पाता है, और फिर सरकारी प्रयासों का ही आसरा रह जाता है।(जारी)

4 comments:

कडुवासच said...

... prabhaavashaalee abhivyakti !!!

ravishndtv said...

इस विषय को आगे बढ़ाइये।

sushant jha said...

रवीशजी...आपकी टिप्पणी मेरे लिए बड़ी प्रेरणा है।

neeta said...

गंभीर विषय पर अच्छी पोस्ट