बहरहाल, शादी के मौके पर हम जम कर सजे संवरे। हमने कई कोणों से अपने चेहरे को संवारा। युनिवर्सिटी कैम्पस की कई लड़कियां मौके पर मौजूद थी। दो बातें बार-2 हमारे जेहन में आती रही कि आखिर इलाहाबाद की लड़कियों में इतनी नैसर्गिक सुन्दरता क्यों है ? या फिर प्रोफेसरों की बेटियां ही ऐसी होती है ? हम अभी भी इस बात का मंथन कर रहे हैं। पता नहीं किस वास्तुशिल्पी ने इलाहाबाद को गढ़ा था, ये मासूमियत, ये नैसर्गिकता और ये मिठास इलाहाबाद में जितना था..उससे कम वहां की लड़कियों में नहीं था। खैर, हम भी थोड़े रौब में थे - आखिरकार अब बेरोजगार जो नहीं थे और मीडिया से भी थे। हम इस अहं पर मुस्करा रहे थे कि दुनिया की सारी बातें हमें मालूम है।
हमने दुल्हे दुल्हन के बैठने के मंच के पास अपना फोटो सेशन करवाया। राजीव के मां-पापा, और उसकी आधा दर्जन मौसियों ने साथ फोटो खिचवाया-जो अभी-2 बनारस से लौटी थी। ये सदियों का मिलन लगता था, कुछ मौसियां नेहरुकालीन थी तो कुछ राजीव युग(राजीव गांधी के युग की और मेरे दोस्त ‘राजीव’ के युग की भी) की। वो हिंदुस्तान के अलग-2 शहरों से आई थीं और अपने बेटों की तारीफ में मशगूल थीं। वर्षों पुरानी निन्दाएं और आलोचनाएं उनकी बातचीत का अहम हिस्सा था। एक मौसी जिनका आध्यात्मिक विषयों में खासा दखल है, उन्होने हमें टीवी से आया जानकर आस्था चैनल पर उनके प्रस्तुत होने की संभावनाएं भी टटोल ली।
बहरहाल, शादी में वहीं हुआ जो अमूमन होता है। वरमाला की रस्म को ‘बिना न्यूज एलीमेंट के इंडिया टीवी के शो की तरह’ आधे घंटे तक ताना गया। कुछ चुटकुले हुए, फोटो सेशन हुआ। शादी में शामिल युवाओं-युवतियों के नैन मिले, संभावनाएं तलाशी गई और मोबाईल नंबर, मेल आई़डी का भी आदान प्रदान हो गया। मजे की बात ये कि इसमें हमारे आधुनिक होते बुजुर्गों की सहमति थी-उन्हे ये अंतर्जातीय विवाह के ‘सदमे’ का सुकूनभरा विकल्प लग रहा था।
वाकई ये शादी यादगार थी। इलाहाबाद की सारी सड़कें मानों जौहरी विवाह स्थल की तरफ मुड़ गई थी। मामा के अतिथियों में युनिवर्सिटी के प्रोफेसर, कई भावी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वीसी, आला अफसरान और नेता शामिल थे। बिहार में बनने वाले नए केंद्रीय विश्वविद्यालय के वीसी प्रो. जनक पांडे का तो जलवा ही देखने लायक था। उनके आभामंडल में नहाने के लिए कई लोग आतुर दिखे।
ये शादी विशुद्ध मैथिल रीतिरिवाज से हुई। मामा के फ्लैट से लगा हुआ एक आंगननुमा जमीन है, जिसके चारो ओर पेड़ ही पेड़ लगे हुए थे। राजीव के नाना संस्कृत के बड़े आचार्य हुए थे, जिनका मुंगेर और भागलपुर के इलाके में खासी ख्याति थी। वाजपेयी सरकार में पीएमओ में ओसडी रहे और अभी जेडी-यू सांसद एन के सिंह के वे गुरु भी थे। जाहिर है, राजीव के मामा और उसके छहों मौसियों पर संस्कृत का बड़ा असर था। शादी के बीच में जब कोई रस्म होता और पौराणिक रीति थम जाता...तो राजीव की मौसियां और उसके मामा बड़े ऊंचे स्वर में संस्कृत के श्लोंकों का और वैदिक ऋचाओं का पाठ करने लगते। वे विभोर हो जाते। वड़ पक्ष के लोग ये देखकर दंग थे, उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें। लड़कियां जम्हाई लेने लगती, हम उस जम्हाई को अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश करते ! ये वाकई एक अविस्मरणीय क्षण था, कि एक इंटरनेशनल रिलेशन का अंग्रेजीदां प्रोफेसर, जो जॉन हापकिन्स जैसे विश्वविद्यालयों में लेक्चर देता है, कैसे संस्कृत का इतना अच्छा ज्ञाता था। राजीव के स्वर्गीय नानाजी की छाप वहां चप्पे-2 पर मौजूद थी। राजीव की मौसियों का-जो पुरानी पीढ़ी की नुमांइदगी कर रही थीं- संस्कृत पर इतनी जबर्दस्त पकड़ देखकर हमें यकीन हो चला कि वाकई मैत्रेयी, गार्गी और अनुसुया इसी जमीन पर पैदा हुई हैं...(जारी)
11 comments:
सुशांत जी, मेरी पाचों मौसियां...एक तो मेरी मां ही है न...।
क्या कहें दोस्त, इलाहाबाद जगह ही ऐसी है. मैने अपनी जवानी का सबसे उत्श्रन्खल वक़्त वहीं बिताया.... सिविल लाइंस, ममफोर्डगंज, कटरा चौराहा, युनिवर्सिटी रोड, किराए की साईकिल, IAS बनने की होड़, seniors से 'फिराक़', 'बच्चन', महादेवी वर्मा, प्रेमचंद, Shakespeare, Tennyson, Keats, Shelly, Tolstoy पर बहस... extra classes के बाद Teachers के साथ hostel में शराबनोशी, Karl Marx को हर मार्क्सवादी के सामने गाली बकना, प्रयाग संगीत समिति में होते नाटक और संगीत सभाएँ, रात रात भर नेतराम और जगाती में पूरियाँ खाना... ये सब सिर्फ़ और सिर्फ़ इलाहाबाद में ही हो सकता था. और हाँ... क्लास की लड़कियों की खोज ख़बर रखना और उसके बाद सही अड्डे पर पहुँच जाना (उनमें से कई तो अब नानी या दादी बन चुकी हैं).
llikhte rhiye allahabad kee anvrt ktha.
पहले तो सुशांत के लेखन पर - सुशांत की लेखनी में एक चीज है जो सृजनात्मकता के बेहद करीब है.हमेशा रही है, इधर थोडी और निखर आई है.सुशांत इलाहाबाद के बहाने इतिहास साहित्य आम और खास सबको छू कर निकले हैं.यात्रा संस्मरण लिखना एक कठिन विधा है,लेकिन कहना न होगा सुशांत इसमें कामयाब हैं. शुभकामनाएं
दूसरी बात इलाहाबाद पर- मोटे तौर पर ये शहर मेरी स्मृतियों में धर्मवीर भारती की पंक्तियों के साथ उभरता है.यानि गुनाहो का देवता उपन्यास का बेहद रोमांटिक शहर. जो शेष है उसका संबंध विश्वविधालय की छात्र राजनीति से है.लेकिन सबकांशियसली इलाहाबाद तो किसी भी हिन्दुस्तानी का हिस्सा है.आखिरकार राजनीति और साहित्य का संगम जो यहां है.
Sushant Jee aapne mere Allahabad ghumne ka jo dili chahat thi use jhakjhor ke rakh diya hai aur main shayad main aapki nazaron ki tarah na dekh sakun lekin main kam se kam ek baar Allahabad jaunga zarur..
ye mera aapse wada hai........
जारी रहो मित्र. आनन्द विभोर हैं.
ओह बहुत सुन्दर,
बहुत बारीक प्रस्तुतीकरण है
पिछली पोस्ट पर कमेन्ट नहीं कर पाए मगर पढ़ ली है
वीनस केसरी
जारी रखें .. अच्छा चल रहा है।
"युनिवर्सिटी कैम्पस की कई लड़कियां मौके पर मौजूद थी। दो बातें बार-2 हमारे जेहन में आती रही कि आखिर इलाहाबाद की लड़कियों में इतनी नैसर्गिक सुन्दरता क्यों है ? या फिर प्रोफेसरों की बेटियां ही ऐसी होती है ?"
आज :) दे रहे है, कुछ बाते अलगी पोस्ट के लिये।
Bhaiya man na padega. aaj bhi aise lekhak hamare beech hain jo har chhoti cheez ko itni barikiyan se likhte hain.
apke lekh ne to hamara man moh liya.
-Saurabh Jha
mere nanihaal ki etni tareef ke liye shukriya
Post a Comment