संगम और आनंद भवन का जिक्र करने के लिए मैं खुद ही ललचा रहा हूं। लेकिन शादी वाली रात की इतनी यादें हैं कि मैं किस्सागो बनता जा रहा हूं। वैसे संगम भी तो हम शादी के बाद ही देख पाए थे। बहरहाल, शादी के दौरान दुल्हन का गमगीन चेहरा मुझे भावुक कर गया। यों, माहौल आधुनिक था-दूल्हा-दुल्हन दोनों हिंदुस्तान के मशहूर मेडिकल कॉलेज से एमडी कर रहे थे। लेकिन पता नहीं क्यों-शादी के दरम्यान कई बार राजीव की मेमेरी बहन बाबुल का घर छोड़ने का गम छुपा नहीं पाई। कई बार उसकी रुलाई, हमें रुला गई। राजीव की मामी काफी हंसोड़ हैं, थोड़ी पारंपरिक सी दिखती हैं। वे शादी के माहौल को खुशनुमा बना रही थी। वे बीच-बीच में ऐसे लतीफे सुनाती कि दुल्हा-दुल्हन हंसते-2 लोट पोट हो जाते। उन्होने मंडप में ही अपनी बेटी से कहा-बेटा, तुम शादी के लिए परेशान हो रही थी, अब आया न मजा, इसे ही शादी कहते हैं। निवेदिता के गालों पर लाली दौड़ गई। मामी ने दूल्हे का परिचय जिस अंदाज में अपने तमाम ननद-ननदोसि और उनके बच्चों से कराया-वो काबिले तारीफ था, लगा मामी अमेरिका से तो नहीं आई हैं!
शादी के मंडप के पास एक बड़ी ही गरिमामय महिला दिखीं। उनके व्यक्तित्व में गजब की आभा थी, गंभीरता थी उनमें नफासत और विद्वता का सम्मिश्रण था। हमनें दरयाफ्त की तो पता चला ये मोहिनी झा हैं जो इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील हैं। उनके पति अवधेश झा, युनिवर्सिटी में ही प्रोफेसर हैं और मिथिला समाज में भी सक्रिय हैं। बाद में पता चला कि मोहिनी झा, डॉ जयकांत मिश्र की भतीजी हैं। मैं फिर मैथिल नॉस्टेल्जिया में चला गया जिसका जिक्र मैनें पिछले पोस्ट में किया था। मुझे वो सूत्र मिलता नजर आ रहा था जिससे मैं उन लोगों के बारे में पता कर सकूं जिन्होने मैथिल मेधा का झंडा इलाहाबाद में गाड़ा था। लेकिन छुट्टी की कमी थी, अगले एक दिन में मुझे संगम और आनंद भवन जाना था, सो मैं उन लोगों से बातचीत नहीं कर पाया। अलबत्ता राजीव ने जरुर उनके यहां चाय नाश्ता किया।
उस शादी में एक और लड़की मौजूद थी। संदर्भ से हटकर भी उसका जिक्र जरुरी लगता है। वो प्रोफेसर पिता की बेटी थी। उसके पिता ने अपनी पत्नी की मौत के बाद बच्चियों को छोड़ दिया, वो कहां गुम हुआ पता नहीं। लड़की को मामा ने पाला था, लेकिन अब वो दिल्ली में अपने मामा के घर बतौर नौकरानी जैसी थी। वो दिल्ली के एक हिंदी कॉल सेंटर में 3-4 हजार रुपये की नौकरी करती थी। जब वो इलाहाबाद वापस आती तो कंपनी उसके पैसे काट लेती थी। उसके पास पहनने को बहुत ज्यादा कपड़े और सैंडिल नहीं थे। वो मेंहदी, कढ़ाई सिलाई कढ़ाई और कई दूसरे कामों में माहिर थी। अपने अंतर्मन में तकलीफों के इतने बड़े समंदर के बावजूद वो ऊपर से खुश थी, बल्कि सबके आकर्षण का केंद्र भी बनी हुई थी। मजे की बात ये कि उसी लड़की ने आम पड़ोसने वाले लड़के को कहा था-आम खट्टे हैं। राजीव ने उस लड़की को दिल्ली में मदद का भरोसा दिलाया, मैं राजीव की इस भावना से जबर्दस्त प्रभावित हुआ। मुझे लगा कि जिंदगी जब मुस्कराती है तो मन में ऐसे ही निस्वार्थ मदद की इच्छा जगती है...(जारी)
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3 comments:
बहुत खूब लिखा आपने अलाहबाद पर... आपकी लेखनी की चर्चा आई-नेक्स्ट में भी हुई इसके लिए बधाई. जारी रखिये मित्र...
रोचक और सजीव! साधुवाद।
इलाहाबाद का यह परिचय अच्छा लग रहा है। जारी रखिये।
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