इंडिया टुडे ने हिंदी पट्टी के 20 शहरों का सर्वे किया है। सर्वे में पटना को सातवां स्थान मिला है जो काफी उत्साहजनक लगता है। गौरतलब है कि अगर कंम्प्यूटर को विकास का पैमाना माना जाए तो सिर्फ 4 शहर ही पटना को पछाड़ पाए हैं। पटना में प्रति परिवार कंम्प्यूटर की मौजूदगी तकरीबन 9.5 फीसदी है जो दिल्ली के मुकाबले (10.5 फीसदी) थोड़ा ही कम हैं। हां, चंडीगढ़, जयपुर नोएडा इससे आगे हैं। प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से भी पटना सातवें जगह पर है और 13 शहर इससे पीछे हैं। इससे इस मिथक को तोड़ने में थोड़ी सी मदद मिलेगी कि बिहार, हिंदी पट्टी में सबसे पिछड़ा सूबा है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जो ज्यादा चिंताजनक है।
यहां सवाल ये है कि जो राज्य विकास के सारे मापदंड पर नीचे से अब्बल आता हो उसकी राजधानी कैसे सातवें जगह पर है। माना की ये सर्वे सिर्फ हिंदी पट्टी के शहरों का है लेकिन फिर भी हिंदी पट्टी में भी तो बिहार का स्थान सबसे नीचे है। तो आंकड़ों में घालमेल कैसे हो गया।
इसका साफ मतलब है कि पूरा बिहार तो बहुत ही पीछे है, लेकिन सूबे की सारी मलाई पटना में जमा हो गई है। दूसरी बात ये कि इन 20 शहरों में तो दूसरे सूबों के कई शहर शामिल हैं लेकिन बिहार में ये सौभाग्य सिर्फ पटना को ही मिल पाया है। ये साबित करता है कि बिहार में कितना कम शहरीकरण हुआ है और जो हुआ भी है तो उसमें पटना का हिस्सा कितना ज्यादा है। हमने सर्वे में ये पाया है कि पटना में कंम्प्यूटर की मौजूदगी लखनऊ, लुधियाना, गुड़गांव, भोपाल और देहरादून से भी ज्यादा है। इसका मतलब ये है कि दूसरे शहरों में इतनी संपन्नता के बावजूद आबादी की संरचना कितनी सही और संतुलित है, और सारे तबके वहां मौजूद हैं लेकिन पटना में पूरे बिहार का मलाईदार तबका जमा हो गया है।
ऐसा भी नहीं कि पटना में गरीब नहीं है, लेकिन इसका एक मतलब ये भी है कि जो अमीर हैं उन्होने बेतहाशा दौलत जमा कर ली है। तभी तो ऐसे एक-एक घर कई-कई कंम्प्यूटर होंगे-तभी तो इतनी ज्यादा मौजूदगी दिख रही है और वो पटना के आर्थिक रुप से सातवें पोजीशन पर ले आये हैं। एक बात ये भी है कि भले ही यूपी, बिहार से आबादी में दो गुना बड़ा हो लेकिन उसके 7 शहर इस सर्वे में मौजूद है-ये बात अपने आप में इस बात की गवाह है कि यूपी में बिहार से कई गुना ज्यादा शहरीकरण हुआ है। दूसरी बात ये भी कि यूपी के सारे शहर सरकारी शहर नहीं है-लखनऊ और इलाहाबाद को छोड़ दें- तो यूपी के सारे शहर कारोबारी शहर हैं जो काफी पोजिटिव बात है। जबकि पटना अभी तक सिर्फ बाबूओं-नेताओं का ही शहर है-जिनके भ्रष्टाचार ने पटना को पैसे के मामले में इतना ऊंचा खड़ा कर दिया है।
कुल मिलाकर सर्वे ने साफ इशारा किया है कि भले ही हम पटना की पोजिशनिंग पर कुछ पल के लिए इतरा लें, लेकिन एक भयावह और स्याह तस्वीर जो सामने आई है वो ये कि बिहार में अभी भी शहरीकरण कितना कम है, पटना में कितनी बड़ी तादाद में भ्रष्ट पैसा जमा हो गया है और सूबे में उद्योग और कारोबार की हालत कितनी खस्ता है। अभी तक द्वितीय श्रेणी के शहर-भागलपुर, गया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और पूर्णिया कोई जगह नहीं पाये हैं। हां, एक ही बात सुकून की है कि पटना में अपराध कम हुआ है और लोग देर रात तक आइसक्रीम खाने निकलने लगे हैं। नीतिश कुमार के सड़को का सुफल शायद पांच-दस साल बाद मिले, लेकिन उनके लिए ये सर्वे एकमात्र यहीं उपलब्धि सामने लाई है।
Sunday, December 28, 2008
Saturday, December 27, 2008
पूनम की पुकार...
प्रवीण आज अमेरिका चला गया, एल एंड टी ने उसे अपने प्रोजेक्ट पर शिकागो भेज दिया। लेकिन उसी के साथ पढ़नेवाली पूनम की नसीब ऐसी नहीं थी। वो आज दो बच्चों की मां बन चुकी है और अपने पति की सेवा करते हुए अपनी जिंदगी बिता रही है। पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि पूनम के साथ इस व्यवस्था ने घनघोर अन्याय किया है। बात साल 95 की होगी। मेरा बोर्ड का रिजल्ट आ चुका था, और उस समय प्रवीण और पूनम 6 ठी क्लास में पढ़ते थे। मधुबनी के सुदूर गांव का एक स्कूल जहां टीचर के नाम पर चार लोग थे जिनका ज्यादा वक्त खेती करने में ही बीतता था-दोनों उसी में पढ़ते थे। पूनम अपने क्लास में फर्स्ट आती थी, और प्रवीण सेकेंड। लेकिन व्यवस्था ने पूनम को जिंदगी में सदा के लिए सेंकेंड बना के रख दिया।
प्रवीण के पिता कटक में एक दुकान में काम करते थे, वे 7वीं में प्रवीण को लेकर चले गए।जबकि पूनम के पिता की सरकारी नौकरी थी, उसकी माली हालत भी ठीक थी-फिर भी पूनम अपनी आभा नहीं बिखेर पाई। प्रवीण ने ग्यारवीं के बाद राउरकेला के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लिया, चार साल बाद एल एंड टी मे सलेक्शन हुआ और आज वो शिकागो में है। दूसरी तरफ तीन बहनों में बड़ी पूनम ने दसवीं में अच्छा रिजल्ट आने के बाद मधुबनी के कालेज में दाखिला भी लिया था। लेकिन वो आगे नहीं पढ़ पाई। एक दिन मेरी दीदी ने पूनम से उसके पढ़ाई के बारे में पूछा भी था। पूनम ने कहा था-दीदी..मां-पापा में रोज लड़ाई होती है कि पूनम की ज्यादा पढाई उसकी शादी में दिक्तत पैदा कर सकती है। बस पूनम ने धीरे-धीरे पढ़ाई से किनारा कर लिया और अगले दो साल के बाद उसकी शादी कर दी गई। पूनम का तमाम टैलेंट सिलाई-कढ़ाई और स्वेटर के नए डिजायन तैयार करने में जाया खर्च हो गया।
आज मैं प्रवीण के बारे में सोचता हूं जिसके टैलेंट का डंका मेरे गांव में बजता है। मिथिला के तमाम दहेजदाता उसके दरवाजे के चक्कर काट चुके हैं । सवाल ये है कि पूनम को ये मौका क्यों नही मिला। क्या सिर्फ दहेज ही एक फैक्टर था या ये भी पूनम को घर के नजदीक अच्छा कालेज नसीब नही हुआ। अगर पूनम कर्नाटक या केरल में पैदा हुई होती तो क्या वो इंजीनियर नहीं बन सकती थी...ये ऐसे सवाल हैं जो अभी भी नीतीश कुमार और अर्जुन सिंह के एजेंडे से गायब हैं, और लाखों पूनम ये सवाल इस मुल्क की व्यवस्था से पूछ रही है।
प्रवीण के पिता कटक में एक दुकान में काम करते थे, वे 7वीं में प्रवीण को लेकर चले गए।जबकि पूनम के पिता की सरकारी नौकरी थी, उसकी माली हालत भी ठीक थी-फिर भी पूनम अपनी आभा नहीं बिखेर पाई। प्रवीण ने ग्यारवीं के बाद राउरकेला के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लिया, चार साल बाद एल एंड टी मे सलेक्शन हुआ और आज वो शिकागो में है। दूसरी तरफ तीन बहनों में बड़ी पूनम ने दसवीं में अच्छा रिजल्ट आने के बाद मधुबनी के कालेज में दाखिला भी लिया था। लेकिन वो आगे नहीं पढ़ पाई। एक दिन मेरी दीदी ने पूनम से उसके पढ़ाई के बारे में पूछा भी था। पूनम ने कहा था-दीदी..मां-पापा में रोज लड़ाई होती है कि पूनम की ज्यादा पढाई उसकी शादी में दिक्तत पैदा कर सकती है। बस पूनम ने धीरे-धीरे पढ़ाई से किनारा कर लिया और अगले दो साल के बाद उसकी शादी कर दी गई। पूनम का तमाम टैलेंट सिलाई-कढ़ाई और स्वेटर के नए डिजायन तैयार करने में जाया खर्च हो गया।
आज मैं प्रवीण के बारे में सोचता हूं जिसके टैलेंट का डंका मेरे गांव में बजता है। मिथिला के तमाम दहेजदाता उसके दरवाजे के चक्कर काट चुके हैं । सवाल ये है कि पूनम को ये मौका क्यों नही मिला। क्या सिर्फ दहेज ही एक फैक्टर था या ये भी पूनम को घर के नजदीक अच्छा कालेज नसीब नही हुआ। अगर पूनम कर्नाटक या केरल में पैदा हुई होती तो क्या वो इंजीनियर नहीं बन सकती थी...ये ऐसे सवाल हैं जो अभी भी नीतीश कुमार और अर्जुन सिंह के एजेंडे से गायब हैं, और लाखों पूनम ये सवाल इस मुल्क की व्यवस्था से पूछ रही है।
Sunday, December 21, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-7
लेकिन एक बात जो यहां गौर करनेवाली है वो ये कि भारत के लिए इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा खतरा उस दौर में था जब अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाके सत्ता में थे और अलकायदा के साथ उनका खुलेआम गठजोड़ था। लेकिन उस वक्त तक भारत में इस्लामिक आतंकवाद का मतलब कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को खाद-पानी देना था न कि पूरे हिंदूस्तान में धमाके करते रहना। ये बात अलग है कि धमाकों का ब्लूप्रिंट जनरल जिया ने अस्सी के दशक में ही तैयार कर दिया था जिसका नाम उन्होने ब्लीड इंडिया इन्टू हंड्रेड कट्स रखा था। लेकिन 90 के दशक में जो भी आतंकी हमले भारत में हुए उसका मुख्य केंद्र कश्मीर ही था या उससे पहले पंजाब था। जब 2000 के दशक में अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद तालिबान की सत्ता खत्म हो गई और अलकायदा भी अमेरिका के निशाने पर आ गया तो भारत में वजाय हमले घटने के ये हमले और भी बढ़ते गये। ये कहानी कुछ दूसरे ही बात की तरफ इशारा करती है।
दरअसल,भारत में भी इस बीच कई परिवर्तन हुए। सत्ता में बीजेपी-नीत सरकार आ गई जिसने पहले से जारी कांग्रेसी पालीसी को बहुत तेजी से अमेरिका के नजदीक पहुंचा दिया। पाकिस्तान की चीन से बढ़ती नजदीकी और सोवियत संघ के पतन के बाद ये भारत की भी मजबूरी हो गई कि वो अमेरिकी के नजदीक आए। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक आतंकवाद के सीधे निशाने पर भारत को ला खड़ा किया जो पहले सिर्फ कश्मीर की आजादी तक सिमटा हुआ था। भारत की लड़ाई अब सिर्फ पाक परस्त इस्लामिक गुटों से नहीं रह गई, अब वो अंतरार्ष्ट्रीय इस्लामिक चरमपंथ के निशाने पर आ गया जो पहले सिर्फ इजरायल और अमेरिका को ही अपना दुश्मन मानता था।
पाकिस्तान के प्रभावी वर्ग को भी ये एहसास हो गया कि भारत से अब अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर दबाव डालकर कश्मीर को वापस नहीं लिया जा सकता। बीते दशको में भारत की सामरिक और आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती गई। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक चरमपंथ को फ्रस्टेट कर दिया। इसके अलावा उन्हे आतंकियों का क्षेत्रीय नेटवर्क तैयार करने में कोई दिक्तत नहीं हुई क्योंकि भारत में मुसलमानों का एक तबका अयोध्या और गोधरा कांड के बाद इस मुल्क की व्यवस्था से असंतुष्ट बैठा था।
लेकिन दुनियां के इतिहास में हाल के दिनों में जिन दो चीजों ने बहुत ही ज्यादा असर डाला है वो है अमेरिका मे 9/11 की घटना और इराक युद्ध। इन दोनों लड़ाईयों ने अमेरिकी की उपस्थिति एशिया में और मजबूत कर दी। अमेरिकी की बढ़ती दखलअंदाजी और किसी दूसरी ताकत की अनुपस्थिति में इस्लामिक गुटों का अमेरिकी विरोध-ये ऐसी वजहें है जो लंबे समय तक इस इलाके में इस्लामिक आतंकवाद की वजह बनी रहेंगी। तो क्या हम फिर घूम फिरकर वहीं नहीं आ गए जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में दखलअंदाजी की थी?
आतंकी घटनाओं में बढ़ोत्तरी की एक दूसरी वजह ये भी है कि पाकिस्तान के कर्ताधर्ताओं को लगता है कि भारत आतंकी घटनाओं से तंग आकर कश्मीर पर समझौते को तैयार हो जाएगा। खासकर उस हालत में जब पाकिस्तान के पास एटम बम है। परमाणु बम आने के बाद पाकिस्तान के मनोबल में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है,अब उसे भारत के भस्मासुरी हमले से निजात का आश्वासन मिल गया है। लेकिन जो बात पाकिस्तान के लिए ज्यादा खतरनाक है वो ये कि अब अमेरिका की चिंताएं पाकिस्तान को लेकर बढ़ गई है। अमेरिका को लगातार इस भय में जीना है कि अगर एटम बम की पहुंच आतंकी हाथों तक हो गई तो इसका पहला शिकार नई दिल्ली न होकर इजरायल और अमेरिका होगा।
यहीं वो बिंदु है जो भारत के लिए आश्वासन देनेवाला है कि अब अमेरिका ज्यादा गंभीरता से पाक की नकेल कसने के लिए मजबूर है। पाकिस्तान में कट्टरपंथी या अराजक शासन का ज्यादा खतरनाक मतलब अमेरिका को दिन में तारे की तरह दिख रहा है। कोंडिलिजा राइस या गार्डन ब्राउस के दौरे की हड़बड़ी इस बात को लेकर नहीं थी कि ताज होटल में कुछ हिंदुस्तानी मर गए। उन्हे लगता है कि अगर भारत ने लड़ाई छेड़ दी तो फिर दाढ़ीवालों के हाथ में पाकिस्तानी बम चला जाएगा....और फिर अगला ताज.. लंदन या न्यूयार्क भी बन सकता है। एक अशांत,गरीब,कट्टरपंथी और अराजक पाकिस्तान सिर्फ भारत के लिए ही खतरनाक नहीं है बल्कि वो पश्चिमी देशों के लिए ज्यादा खतरनाक है।(जारी)
दरअसल,भारत में भी इस बीच कई परिवर्तन हुए। सत्ता में बीजेपी-नीत सरकार आ गई जिसने पहले से जारी कांग्रेसी पालीसी को बहुत तेजी से अमेरिका के नजदीक पहुंचा दिया। पाकिस्तान की चीन से बढ़ती नजदीकी और सोवियत संघ के पतन के बाद ये भारत की भी मजबूरी हो गई कि वो अमेरिकी के नजदीक आए। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक आतंकवाद के सीधे निशाने पर भारत को ला खड़ा किया जो पहले सिर्फ कश्मीर की आजादी तक सिमटा हुआ था। भारत की लड़ाई अब सिर्फ पाक परस्त इस्लामिक गुटों से नहीं रह गई, अब वो अंतरार्ष्ट्रीय इस्लामिक चरमपंथ के निशाने पर आ गया जो पहले सिर्फ इजरायल और अमेरिका को ही अपना दुश्मन मानता था।
पाकिस्तान के प्रभावी वर्ग को भी ये एहसास हो गया कि भारत से अब अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर दबाव डालकर कश्मीर को वापस नहीं लिया जा सकता। बीते दशको में भारत की सामरिक और आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती गई। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक चरमपंथ को फ्रस्टेट कर दिया। इसके अलावा उन्हे आतंकियों का क्षेत्रीय नेटवर्क तैयार करने में कोई दिक्तत नहीं हुई क्योंकि भारत में मुसलमानों का एक तबका अयोध्या और गोधरा कांड के बाद इस मुल्क की व्यवस्था से असंतुष्ट बैठा था।
लेकिन दुनियां के इतिहास में हाल के दिनों में जिन दो चीजों ने बहुत ही ज्यादा असर डाला है वो है अमेरिका मे 9/11 की घटना और इराक युद्ध। इन दोनों लड़ाईयों ने अमेरिकी की उपस्थिति एशिया में और मजबूत कर दी। अमेरिकी की बढ़ती दखलअंदाजी और किसी दूसरी ताकत की अनुपस्थिति में इस्लामिक गुटों का अमेरिकी विरोध-ये ऐसी वजहें है जो लंबे समय तक इस इलाके में इस्लामिक आतंकवाद की वजह बनी रहेंगी। तो क्या हम फिर घूम फिरकर वहीं नहीं आ गए जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में दखलअंदाजी की थी?
आतंकी घटनाओं में बढ़ोत्तरी की एक दूसरी वजह ये भी है कि पाकिस्तान के कर्ताधर्ताओं को लगता है कि भारत आतंकी घटनाओं से तंग आकर कश्मीर पर समझौते को तैयार हो जाएगा। खासकर उस हालत में जब पाकिस्तान के पास एटम बम है। परमाणु बम आने के बाद पाकिस्तान के मनोबल में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है,अब उसे भारत के भस्मासुरी हमले से निजात का आश्वासन मिल गया है। लेकिन जो बात पाकिस्तान के लिए ज्यादा खतरनाक है वो ये कि अब अमेरिका की चिंताएं पाकिस्तान को लेकर बढ़ गई है। अमेरिका को लगातार इस भय में जीना है कि अगर एटम बम की पहुंच आतंकी हाथों तक हो गई तो इसका पहला शिकार नई दिल्ली न होकर इजरायल और अमेरिका होगा।
यहीं वो बिंदु है जो भारत के लिए आश्वासन देनेवाला है कि अब अमेरिका ज्यादा गंभीरता से पाक की नकेल कसने के लिए मजबूर है। पाकिस्तान में कट्टरपंथी या अराजक शासन का ज्यादा खतरनाक मतलब अमेरिका को दिन में तारे की तरह दिख रहा है। कोंडिलिजा राइस या गार्डन ब्राउस के दौरे की हड़बड़ी इस बात को लेकर नहीं थी कि ताज होटल में कुछ हिंदुस्तानी मर गए। उन्हे लगता है कि अगर भारत ने लड़ाई छेड़ दी तो फिर दाढ़ीवालों के हाथ में पाकिस्तानी बम चला जाएगा....और फिर अगला ताज.. लंदन या न्यूयार्क भी बन सकता है। एक अशांत,गरीब,कट्टरपंथी और अराजक पाकिस्तान सिर्फ भारत के लिए ही खतरनाक नहीं है बल्कि वो पश्चिमी देशों के लिए ज्यादा खतरनाक है।(जारी)
Saturday, December 20, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-6
लेकिन जनरल जिया ने ऐसा क्यों किया..इसकी सटीक जानकारी किसी के पास नहीं। क्या वो एक धर्मांध व्यक्ति थे जिन्होने पाकिस्तानी सेना में मौलवियों और कट्टरपंथियं की बहाली करनी शुरु कर दी? इतिहास की किताबों में इसका संकेत नहीं मिलता। कायदे से देखा जाए तो जिन्ना, जुल्फिकार अली भुट्टो और जनरल जिया तीनों ही सेक्यूलर किस्म के आदमी माने जाते हैं जिनका लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की बेहतरी था। जिन्ना को एक शासक के रुप में अपना बेहतरीन दिखाने का मौका नहीं मिला, लेकिन जहां तक बात जुल्फिकार अली भुट्टो और जनरल जिया की है तो वो भी पाकिस्तान को एक विजनरी लक्ष्य नही दे पाए।
जुल्फिकार अली भुट्टो तो अपने मिजाज से इतने सामंती और गैर-लोकतांत्रिक थे कि उन्हे पूर्वी पाकिस्तान(बांग्लादेश) के नेता शेख मुजीब को सत्ता सौंपना भी गवारा नहीं था जिसके बाद पाकिस्तान का बंटवारा तक हो गया। यहां पाकिस्तान के शासन में सामंती-कट्टरपंथी और उच्चवर्गीय लोगों के लगातार वर्चस्व का एक अलग विमर्श है जिसकी वजह से पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र पनप नहीं पाया। लेकिन बात फिर घूम फिरकर वहीं आती है कि आखिर जनरल जिया ने पाकिस्तान की सेना और आईएसआई और प्रकारांतर से पूरे समाज को कट्टरपंथ की आग में क्यों झोंक दिया। वो कौन से हालात थे जिसने जिया को ऐसा करने को मजबूर कर दिया।
कुछ जानकारों का कहना है कि इसके पीछ शीतयुद्ध के काल की परिस्थितियां जिम्मेवार हैं। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप को किसी भी चीज ने इतना नुक्सान नहीं पहुंचाया जितना अफगानिस्तान में सोवियत रुस की दखलअंदाजी ने। काबुल में सोवियत हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान अपने दोनों सीमाओं पर बड़ी ताकतों से घिर गया। पूर्वी इलाके में भारत और उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में रुस की बड़ी फौजी ताकत से निपटना उसके बूते की बात नहीं थी।
ऐसे में जनरल जिया के पास सिवाय अमेरिका की हर बात मानने के कोई चारा नहीं था। जिया ने ऐसे में सौदेवाजी की नीति अख्तियार की। अमेरिका से उन्हे जमकर पैसे और हथियार मिले। इस पैसे का इस्तेमाल रुस के खिलाफ मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा करने में किया गया। कश्मीर में भी तबतक भारतीय नेताओं की कुछ गलतियों से हालात खराब होने लगे थे। जिया ने पाकिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामी गुटों को मदद देनी शुरु की।यहीं से पाकिस्तानी सेना के इस्लामीकरण की शुरुआत हुई जिसने बाद में पूरे मुल्क को अपनी गिरफ्त में ले लिया(जारी)
जुल्फिकार अली भुट्टो तो अपने मिजाज से इतने सामंती और गैर-लोकतांत्रिक थे कि उन्हे पूर्वी पाकिस्तान(बांग्लादेश) के नेता शेख मुजीब को सत्ता सौंपना भी गवारा नहीं था जिसके बाद पाकिस्तान का बंटवारा तक हो गया। यहां पाकिस्तान के शासन में सामंती-कट्टरपंथी और उच्चवर्गीय लोगों के लगातार वर्चस्व का एक अलग विमर्श है जिसकी वजह से पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र पनप नहीं पाया। लेकिन बात फिर घूम फिरकर वहीं आती है कि आखिर जनरल जिया ने पाकिस्तान की सेना और आईएसआई और प्रकारांतर से पूरे समाज को कट्टरपंथ की आग में क्यों झोंक दिया। वो कौन से हालात थे जिसने जिया को ऐसा करने को मजबूर कर दिया।
कुछ जानकारों का कहना है कि इसके पीछ शीतयुद्ध के काल की परिस्थितियां जिम्मेवार हैं। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप को किसी भी चीज ने इतना नुक्सान नहीं पहुंचाया जितना अफगानिस्तान में सोवियत रुस की दखलअंदाजी ने। काबुल में सोवियत हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान अपने दोनों सीमाओं पर बड़ी ताकतों से घिर गया। पूर्वी इलाके में भारत और उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में रुस की बड़ी फौजी ताकत से निपटना उसके बूते की बात नहीं थी।
ऐसे में जनरल जिया के पास सिवाय अमेरिका की हर बात मानने के कोई चारा नहीं था। जिया ने ऐसे में सौदेवाजी की नीति अख्तियार की। अमेरिका से उन्हे जमकर पैसे और हथियार मिले। इस पैसे का इस्तेमाल रुस के खिलाफ मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा करने में किया गया। कश्मीर में भी तबतक भारतीय नेताओं की कुछ गलतियों से हालात खराब होने लगे थे। जिया ने पाकिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामी गुटों को मदद देनी शुरु की।यहीं से पाकिस्तानी सेना के इस्लामीकरण की शुरुआत हुई जिसने बाद में पूरे मुल्क को अपनी गिरफ्त में ले लिया(जारी)
Thursday, December 18, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-5
मुसलमानों को जंग लगा हुआ पाकिस्तान मिला है-जिन्ना
पाकिस्तान में रहनेवाले हरेक नागरिक आज से सिर्फ पाकिस्तानी है, उसे अपना धर्म और अपने विश्वास मानने की पूरी आजादी है-जिन्ना
हम ब्रेकफास्ट जैसलमेर में, लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे-याह्या खान
हम 1000 साल तक घास की रोटी खाएंगे, लेकिन इस्लामिक बम जरुर बनाएंगे-जुल्फिकार अली भुट्टो
अल्लाह ने अरबों के लिए तेल भेजा, पाकिस्तानियों के लिए रुसी-जनरल जिया उल हक
इसके बाद के दौर में पाक नेताओं ने ऐसे लच्छेदार और दुस्साहसी बयान देने बंद कर दिए क्योंकि तबतक 'अल्लाह के सिपाहियों' ने अफगानिस्तान से रुस को वापस कर दिया था और अमेरिका के लिए पाकिस्तान की अहमियत सिर्फ नकली मुस्कुराहट तक सिमट गई थी।लेकिन साल 1947 से अबतक पाकिस्तान के नेताओं के बयान उनकी मानसिकता को अच्छी तरह दिखाता है। जिन्ना जैसे नेता, जिनके व्यक्तित्व के बारे में बोलना सिर्फ विवाद पैदा करता हो, उन्होने भी माना था कि पाकिस्तान में रहनेवाले लोगों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। लेकिन जिन्ना के मरते ही ये बात हवा हो गई, और आज पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। पाकिस्तान के नेता शुरु से ही कितने लफ्फाज और जनता को गुमराह करनेवाले थे इसका उदाहरण पाकिस्तान के नेताओं का वो बयान था जो उन्होने सन 65 की लड़ाई के वक्त दिया था। चीन के हाथों 1962 में भारत की शिकस्त के बाद पाक नेताओं ने सोचा कि भारत के ठिगने से दिखनेवाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को चुटकियों में पटखनी दी जा सकती है और उनमें अपने लोगों के प्रति श्रेष्ठता की भावना इतनी ज्यादा थी कि बिना कुछ सोचे उन्होने 1965 में भारत पर हमला कर दिया। शायद जनरल याह्या खान ने ही कहा था कि हम लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे। लेकिन 65 में भारत के ठिगने से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को वो मात दी कि हिंदुस्तानी फौज लाहौर तक पहुंच गई।
मजे की बात देखिए, पाकिस्तानी नेताओं को फिर भी दाद देनी होगी। अब भारत को पटखनी देने का एकमात्र उपाय बचा था और वो था एटम बम। ये कोई सेनानायक नहीं, बल्कि जनता के दुलारे जुल्फिकार अली भुट्टो थे जिन्होने घास की रोटी खाकर इस्लामिक बम बनाने की बात की थी। उसके बाद आए जनरल जिया-पाकिस्तान के समकालीन इतिहास में सबसे काबिल,कूटनीतिज्ञ और विवादस्पद शासक जिनके योगदान का आकलन करना जानकारों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। जनरल जिया ने पाकिस्तान के ज्योग्राफिकल सिचुएशन का इतना बेहतरीन फायदा उठाया जितना कोई नहीं उठा पाया था। उन्होने सोवियत रुस का भय दिखा कर अमेरिका से मोटी रकम और हथियार बसूले। लेकिन जिया ने अपने नीतियों से इस उप-महाद्वीप को इतना नुक्सान पहुंचाया जिसकी शायद जिया ने भी कल्पना नहीं की होगी। जिया ने अमेरिका की सहायता करने के लिए और रुस को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए उस तालिबान को मदद देना शुरु किया जो आनेवाले वक्त में पूरे पाकिस्तान के इस्लामीकरण के लिए जमीन तैयार कर गई। सोवियत विघटन और उसके अफगानिस्तान से वापसी के बाद वहीं इस्लामी भस्मासुर अब पूरे उपमहाद्वीप के लिए नासूर बन गया है जिसे संभालना अब पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए, यहां तक की सेना के लिए भी वश की बात नहीं रह गई है। (जारी)
पाकिस्तान में रहनेवाले हरेक नागरिक आज से सिर्फ पाकिस्तानी है, उसे अपना धर्म और अपने विश्वास मानने की पूरी आजादी है-जिन्ना
हम ब्रेकफास्ट जैसलमेर में, लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे-याह्या खान
हम 1000 साल तक घास की रोटी खाएंगे, लेकिन इस्लामिक बम जरुर बनाएंगे-जुल्फिकार अली भुट्टो
अल्लाह ने अरबों के लिए तेल भेजा, पाकिस्तानियों के लिए रुसी-जनरल जिया उल हक
इसके बाद के दौर में पाक नेताओं ने ऐसे लच्छेदार और दुस्साहसी बयान देने बंद कर दिए क्योंकि तबतक 'अल्लाह के सिपाहियों' ने अफगानिस्तान से रुस को वापस कर दिया था और अमेरिका के लिए पाकिस्तान की अहमियत सिर्फ नकली मुस्कुराहट तक सिमट गई थी।लेकिन साल 1947 से अबतक पाकिस्तान के नेताओं के बयान उनकी मानसिकता को अच्छी तरह दिखाता है। जिन्ना जैसे नेता, जिनके व्यक्तित्व के बारे में बोलना सिर्फ विवाद पैदा करता हो, उन्होने भी माना था कि पाकिस्तान में रहनेवाले लोगों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। लेकिन जिन्ना के मरते ही ये बात हवा हो गई, और आज पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। पाकिस्तान के नेता शुरु से ही कितने लफ्फाज और जनता को गुमराह करनेवाले थे इसका उदाहरण पाकिस्तान के नेताओं का वो बयान था जो उन्होने सन 65 की लड़ाई के वक्त दिया था। चीन के हाथों 1962 में भारत की शिकस्त के बाद पाक नेताओं ने सोचा कि भारत के ठिगने से दिखनेवाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को चुटकियों में पटखनी दी जा सकती है और उनमें अपने लोगों के प्रति श्रेष्ठता की भावना इतनी ज्यादा थी कि बिना कुछ सोचे उन्होने 1965 में भारत पर हमला कर दिया। शायद जनरल याह्या खान ने ही कहा था कि हम लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे। लेकिन 65 में भारत के ठिगने से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को वो मात दी कि हिंदुस्तानी फौज लाहौर तक पहुंच गई।
मजे की बात देखिए, पाकिस्तानी नेताओं को फिर भी दाद देनी होगी। अब भारत को पटखनी देने का एकमात्र उपाय बचा था और वो था एटम बम। ये कोई सेनानायक नहीं, बल्कि जनता के दुलारे जुल्फिकार अली भुट्टो थे जिन्होने घास की रोटी खाकर इस्लामिक बम बनाने की बात की थी। उसके बाद आए जनरल जिया-पाकिस्तान के समकालीन इतिहास में सबसे काबिल,कूटनीतिज्ञ और विवादस्पद शासक जिनके योगदान का आकलन करना जानकारों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। जनरल जिया ने पाकिस्तान के ज्योग्राफिकल सिचुएशन का इतना बेहतरीन फायदा उठाया जितना कोई नहीं उठा पाया था। उन्होने सोवियत रुस का भय दिखा कर अमेरिका से मोटी रकम और हथियार बसूले। लेकिन जिया ने अपने नीतियों से इस उप-महाद्वीप को इतना नुक्सान पहुंचाया जिसकी शायद जिया ने भी कल्पना नहीं की होगी। जिया ने अमेरिका की सहायता करने के लिए और रुस को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए उस तालिबान को मदद देना शुरु किया जो आनेवाले वक्त में पूरे पाकिस्तान के इस्लामीकरण के लिए जमीन तैयार कर गई। सोवियत विघटन और उसके अफगानिस्तान से वापसी के बाद वहीं इस्लामी भस्मासुर अब पूरे उपमहाद्वीप के लिए नासूर बन गया है जिसे संभालना अब पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए, यहां तक की सेना के लिए भी वश की बात नहीं रह गई है। (जारी)
Wednesday, December 17, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-4
बहुत दिनों पहले जनसत्ता के साहित्य विशेषांक मे चाणक्य सेन का लिखा पाकिस्तान डायरी पढ़ने का मौका मिला। चाणक्य सेन ने बेहतरीन अंदाज में समझाया था कि पाकिस्तान की मानसिकता क्या है और वहां के लोग क्या सोचते हैं। सेन ने इस किताब में अपने कई पाकिस्तान दौरों के यादों को साझा किया है कि कैसे जनरल जिया ने पाकिस्तानी सेना और समाज का सांस्थानिक इस्लामीकरण करना शुरु किया था जो 90के दशक के बाद एक विशाल बटबृक्ष बन गया।
पाकिस्तान की बीमारी ये है कि वहां जनता में सेना को बहुत ही सम्मान प्राप्त है और लोकतंत्र की जड़े कभी मजबूत नहीं हो पाई। शुरु से ही नेताओं ने भी इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, वो सेना का दुरुपयोग करते रहे ये सोचे बिना की ये सेना आनेवाले दिनों में उन्ही के लिए भस्मासुर साबित होगी। पाकिस्तान की जनता सोचती है कि सेना ही एक ऐसी संस्था है जो उसे भारत के 'कोप' से छुटकारा दिला सकती है। चाणक्य सेन ने लिखा है कि किस तरह पाकिस्तान का मध्यमवर्ग भी उसी अंदाज में सोचता है, मौज-मस्ती उड़ाता है और अपने बच्चों को अमेरिका के यूनिवर्सिटियों में पढ़ाने की फिक्र में दिनरात लगा रहता है। लेकिन उसका आकार इतना छोटा है कि उस पर कट्टरपंथी जमात हावी हो गई है।
पाकिस्तान के एक बड़े पत्रकार ने चाणक्यसेन को कहा कि सेन साब... पाकिस्तान के जन्म के तुरंत बाद नियति ने उसे छल लिया। हिंदुस्तान में गांधी की हत्या के बाद भी दूसरी पंक्ति के नेताओं की एक कतार थी, और नेहरु ने बखूबी मुल्क को लंबे समय तक एक ठोस नेतृत्व दे दिया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो पाया। पाकिस्तान में जिन्ना के मरने के बाद वो मुल्क लोकतांत्रिक अस्थिरता का शिकार हो गया और सेना ने सत्ता में दखलअंदाजी कर दी। पाकिस्तान के नेता भी बांग्लादेश को दबाने के लिए सेना को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे, साथ ही देश में कभी भी हिंदुस्तान की तर्ज पर समाजिक और आर्थिक समानता लाने की बात नहीं सोची गई। भारत की तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकसित नहीं किया गया और सेना ही एकमात्र संस्था बच गई जो मुल्क को आपतकाल में संभाल सके। इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं है, वैसे भी जब राजनीतिक संस्थाएं फेल हो जाती हैं तो ऐसा ही होता है।
इसके आलावा भारत से हुई कई लड़ाईयों में हार ने भी पाकिस्तान के जनता के मन ये भावना भर दी कि अगर कोई तारणहार है तो फौज ही है, नेताओं के भरोसे मुल्क को छोड़ा नहीं जा सकता। और आज कोई नेता अगर इमानदारी से मुल्क में लोकतंत्र लाना भी चाहता है तो जनता में वो भरोसा नहीं है,अलबत्ता अब धीरे-धीरे माहौल बन रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सेना,आईएसआई और कट्टरपंथी इतनी आसानी से लोकतंत्र को जड़ जमाने देंगे और खुद को परदे के पीछे कर लेंगे... हाल दिनों में जिस नेता ने भी पाकिस्तान में सेना को काबू में करने की कोशिश की सेना ने तिकड़म करके उसका तख्ता पलट दिया और इसके ताजा उदाहरण नवाज शरीफ हैं जिन्हे मुशर्रफ ने बेदखल कर दिया था। अब जरदारी भी वहीं काम करना चाहते हैं,और सेना उन्हे कब तक काम करने देगी कहना मुश्किल है।(जारी)
पाकिस्तान की बीमारी ये है कि वहां जनता में सेना को बहुत ही सम्मान प्राप्त है और लोकतंत्र की जड़े कभी मजबूत नहीं हो पाई। शुरु से ही नेताओं ने भी इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, वो सेना का दुरुपयोग करते रहे ये सोचे बिना की ये सेना आनेवाले दिनों में उन्ही के लिए भस्मासुर साबित होगी। पाकिस्तान की जनता सोचती है कि सेना ही एक ऐसी संस्था है जो उसे भारत के 'कोप' से छुटकारा दिला सकती है। चाणक्य सेन ने लिखा है कि किस तरह पाकिस्तान का मध्यमवर्ग भी उसी अंदाज में सोचता है, मौज-मस्ती उड़ाता है और अपने बच्चों को अमेरिका के यूनिवर्सिटियों में पढ़ाने की फिक्र में दिनरात लगा रहता है। लेकिन उसका आकार इतना छोटा है कि उस पर कट्टरपंथी जमात हावी हो गई है।
पाकिस्तान के एक बड़े पत्रकार ने चाणक्यसेन को कहा कि सेन साब... पाकिस्तान के जन्म के तुरंत बाद नियति ने उसे छल लिया। हिंदुस्तान में गांधी की हत्या के बाद भी दूसरी पंक्ति के नेताओं की एक कतार थी, और नेहरु ने बखूबी मुल्क को लंबे समय तक एक ठोस नेतृत्व दे दिया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो पाया। पाकिस्तान में जिन्ना के मरने के बाद वो मुल्क लोकतांत्रिक अस्थिरता का शिकार हो गया और सेना ने सत्ता में दखलअंदाजी कर दी। पाकिस्तान के नेता भी बांग्लादेश को दबाने के लिए सेना को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे, साथ ही देश में कभी भी हिंदुस्तान की तर्ज पर समाजिक और आर्थिक समानता लाने की बात नहीं सोची गई। भारत की तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकसित नहीं किया गया और सेना ही एकमात्र संस्था बच गई जो मुल्क को आपतकाल में संभाल सके। इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं है, वैसे भी जब राजनीतिक संस्थाएं फेल हो जाती हैं तो ऐसा ही होता है।
इसके आलावा भारत से हुई कई लड़ाईयों में हार ने भी पाकिस्तान के जनता के मन ये भावना भर दी कि अगर कोई तारणहार है तो फौज ही है, नेताओं के भरोसे मुल्क को छोड़ा नहीं जा सकता। और आज कोई नेता अगर इमानदारी से मुल्क में लोकतंत्र लाना भी चाहता है तो जनता में वो भरोसा नहीं है,अलबत्ता अब धीरे-धीरे माहौल बन रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सेना,आईएसआई और कट्टरपंथी इतनी आसानी से लोकतंत्र को जड़ जमाने देंगे और खुद को परदे के पीछे कर लेंगे... हाल दिनों में जिस नेता ने भी पाकिस्तान में सेना को काबू में करने की कोशिश की सेना ने तिकड़म करके उसका तख्ता पलट दिया और इसके ताजा उदाहरण नवाज शरीफ हैं जिन्हे मुशर्रफ ने बेदखल कर दिया था। अब जरदारी भी वहीं काम करना चाहते हैं,और सेना उन्हे कब तक काम करने देगी कहना मुश्किल है।(जारी)
Sunday, December 14, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-3
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ब्राउन साहब पाकिस्तान को हड़काकर भारत के घाव पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहे है। दरअसल ये पाकिस्तान को अमेरिका की ही झिड़की है जिसे बुश साहब अलग-अलग नेताओं से पाकिस्तान को दिलवा रहे हैं। पहले राइस, फिर अमेरिकी सेना के कमांडर-इन-चीफ और अब इग्लैंड के प्रधानमंत्री। हो सकता है अगला दौरा सरकोजी और जापान के प्रधानमंत्री का हो,जो इसी स्टाइल में पाक को हड़काएं और भारत को पुचकारें। ऐसा नहीं लगता कि इसबार अमेरिका को भारत पर कुछ ज्यादा ही प्यार उमड़ आया है? तो आखिर ये माजरा क्या है कि मुम्बई में मजह 'कुछेक सौ हिन्दुस्तानियों' की मौत ने अमेरिका को विचलित कर दिया है। मामले में कुछ गड़वड़ जरुर है।
अमेरिका की चिंता ये नहीं है कि कुछ हिन्दुस्तानी होटल ताज में मर गए। उसकी अभी की चिंता ये है कि भारत कहीं सीमा पर फौज न तैनात कर दे। दूसरी बात जो भारत ने संकेत दिया है वो ये कि पाकिस्तान की वांह कुछ ज्यादा मरोड़ों नहीं तो बात नहीं बनेगी। ब्राउन साब जब इस्लामाबाद में थे उसी वक्त पाक ने आरोप लगाया कि भारत के लड़ाकू विमान पाक में घुस गए है जिसका भारत ने खंडन कर दिया। ये पुरानी युद्ध रणनीति है जो दबाव बनाने के लिए की जाती है। हो सकता है भारत के विमान पाक के क्षेत्र में जानबूझकर घुसे हों ताकि ब्राउन साब और भी ज्यादा तल्खी से जरदारी से बात करे।... और इसका असर ब्राउन के बयान पर दिखा भी।
लेकिन अमेरिका की चिंता इससे भी बढ़कर है। दरअसल,अमेरिका ये जानता है कि इराक और अफगानिस्तान हमलों के बाद दुनियां की लगभग पूरी इस्लामी आबादी उसके खिलाफ है,और इस्लामी आतंकवाद की जो सबसे पुख्ता और उपजाऊ जमीन है वो पाकिस्तान में ही बच गई है। लेकिन पाकिस्तान की ज्यादातर आबादी तालिबान और कट्टरपंथियों की हिमायती हो गई है। बदकिस्मती से उसने तालिबान को अमरीकी साम्राज्यवाद से लड़ने का एकमात्र तारणहार मान लिया है। अमेरिका की मुश्किलें दोहरी हैं। अतीत में भी, और अभी भी आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान उसका हिमायती रहा है,लेकिन दिक्तत अब ये है कि सारे आतंकवादी, तालिबानी, उनके थिंक टैंक और उनको ठोस मदद पहुंचा पा सकने वाले पाकिस्तान में पनाह पा गए हैं। अब पाक की जमीन पर उसी की जनता को मारना अमेरिका के लिए मुश्किल हो रहा है। वो जितना मिसाइल दागता है ,पाकिस्तान की जनता उतनी ही नाराज होती है । अमेरिका के भरोसेमंद जरदारी के लिए उतनी ही मुश्किलें पैदा होती जा रही है। तो रास्ता एक ही है कि अमेरिका खुद सीधे पाकिस्तान में कार्रवाई न करके पाकिस्तान की सरकार से करवाए। लेकिन जरदारी ऐसा करके खुद की कब्र कैसे खोदेंगे । जनता उन्हे नहीं पीटेगी? तो एक बीच वाला रास्ता बचा है। वो ये कि जरदारी जनता को ये बताएंगे कि अमेरिकी प्रेसर झेलना मुश्किल है इसलिए वो कार्रवाई कर रहे हैं । जनता इस बात से एक हद तक कंविन्स भी हो जाएगी ।
...और यहीं काम अमेरिका कर रहा है। वो जानता है कि भारत कोई मांग मांगेगा तो पाकिस्तान की पुरानी कुंठा जाग जाएगी, वो सिरे से मुकर जाएगा। लेकिन अमेरिका दबाव देगा, तो सब ठीक है। दरअसल,अमेरिका को भी मुम्बई हमलों ने एक नायाब मौका दिया है कि पाकिस्तान पर नकेल कसे । इसके लिए इस बार ठोस बहाना मौजूद है और पाकिस्तान से उसकी पुरानी दोस्ती भी आड़े नहीं आएगी। वो ये दिखाता रहेगा कि वो पाकिस्तान के खिलाफ नहीं,बल्कि आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करवा रहा है । अमेरिका जानता है कि जब तक पाकिस्तान में आतंकी मौजूद हैं वो अफगानिस्तान को काबू नही कर सकता जहां उसके डेढ़ लाख फौजियों की जान सांसत में है । इसके अलावा अमेरिका को भारत से कोई मुहब्बत नहीं है कि वो इतनी मेहनत कर रहा है। (जारी)
अमेरिका की चिंता ये नहीं है कि कुछ हिन्दुस्तानी होटल ताज में मर गए। उसकी अभी की चिंता ये है कि भारत कहीं सीमा पर फौज न तैनात कर दे। दूसरी बात जो भारत ने संकेत दिया है वो ये कि पाकिस्तान की वांह कुछ ज्यादा मरोड़ों नहीं तो बात नहीं बनेगी। ब्राउन साब जब इस्लामाबाद में थे उसी वक्त पाक ने आरोप लगाया कि भारत के लड़ाकू विमान पाक में घुस गए है जिसका भारत ने खंडन कर दिया। ये पुरानी युद्ध रणनीति है जो दबाव बनाने के लिए की जाती है। हो सकता है भारत के विमान पाक के क्षेत्र में जानबूझकर घुसे हों ताकि ब्राउन साब और भी ज्यादा तल्खी से जरदारी से बात करे।... और इसका असर ब्राउन के बयान पर दिखा भी।
लेकिन अमेरिका की चिंता इससे भी बढ़कर है। दरअसल,अमेरिका ये जानता है कि इराक और अफगानिस्तान हमलों के बाद दुनियां की लगभग पूरी इस्लामी आबादी उसके खिलाफ है,और इस्लामी आतंकवाद की जो सबसे पुख्ता और उपजाऊ जमीन है वो पाकिस्तान में ही बच गई है। लेकिन पाकिस्तान की ज्यादातर आबादी तालिबान और कट्टरपंथियों की हिमायती हो गई है। बदकिस्मती से उसने तालिबान को अमरीकी साम्राज्यवाद से लड़ने का एकमात्र तारणहार मान लिया है। अमेरिका की मुश्किलें दोहरी हैं। अतीत में भी, और अभी भी आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान उसका हिमायती रहा है,लेकिन दिक्तत अब ये है कि सारे आतंकवादी, तालिबानी, उनके थिंक टैंक और उनको ठोस मदद पहुंचा पा सकने वाले पाकिस्तान में पनाह पा गए हैं। अब पाक की जमीन पर उसी की जनता को मारना अमेरिका के लिए मुश्किल हो रहा है। वो जितना मिसाइल दागता है ,पाकिस्तान की जनता उतनी ही नाराज होती है । अमेरिका के भरोसेमंद जरदारी के लिए उतनी ही मुश्किलें पैदा होती जा रही है। तो रास्ता एक ही है कि अमेरिका खुद सीधे पाकिस्तान में कार्रवाई न करके पाकिस्तान की सरकार से करवाए। लेकिन जरदारी ऐसा करके खुद की कब्र कैसे खोदेंगे । जनता उन्हे नहीं पीटेगी? तो एक बीच वाला रास्ता बचा है। वो ये कि जरदारी जनता को ये बताएंगे कि अमेरिकी प्रेसर झेलना मुश्किल है इसलिए वो कार्रवाई कर रहे हैं । जनता इस बात से एक हद तक कंविन्स भी हो जाएगी ।
...और यहीं काम अमेरिका कर रहा है। वो जानता है कि भारत कोई मांग मांगेगा तो पाकिस्तान की पुरानी कुंठा जाग जाएगी, वो सिरे से मुकर जाएगा। लेकिन अमेरिका दबाव देगा, तो सब ठीक है। दरअसल,अमेरिका को भी मुम्बई हमलों ने एक नायाब मौका दिया है कि पाकिस्तान पर नकेल कसे । इसके लिए इस बार ठोस बहाना मौजूद है और पाकिस्तान से उसकी पुरानी दोस्ती भी आड़े नहीं आएगी। वो ये दिखाता रहेगा कि वो पाकिस्तान के खिलाफ नहीं,बल्कि आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करवा रहा है । अमेरिका जानता है कि जब तक पाकिस्तान में आतंकी मौजूद हैं वो अफगानिस्तान को काबू नही कर सकता जहां उसके डेढ़ लाख फौजियों की जान सांसत में है । इसके अलावा अमेरिका को भारत से कोई मुहब्बत नहीं है कि वो इतनी मेहनत कर रहा है। (जारी)
Tuesday, December 9, 2008
मुम्बई हमले और पाकिस्तान-2
पाकिस्तान ने कुछ आतंकी संगठनों पर कार्रवाई का नाटक किया है, और मसूद अजहर को सीमित रुप से नजरबंद कर दिया गया है। दूसरी तरफ जरदारी ने एक बयान में कहा कि भारत में आतंकी हमला पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ कमजोर करेगा। जरदारी का ये बयां एक मजबूर और कमजोर लोकतांत्रिक नेता की दिखती है जो बहुत अर्थो में सच्चाई के करीब है।
पाकिस्तान चौतरफ दबाव में है, और असली दबाव है अमेरिका का दबाव। एक तरफ अमेरिका को ये डर सता रहा है कि कहीं भारत सीमा पर सेना न लगा दे-ऐसी सूरत में पाकिस्तान अपनी सीमा अफगान सीमा से हटा लेगा और अमेरिका की सेना वहां फंस जाएगी। और यहीं वजह है कि अमेरिका जी जान से दबाव डाल कर पाकिस्तान को कुछ कार्रवाई करते हुए देखना चाहता है। जरदारी की तो हालत और भी खराब है। अगर वो ज्यादा कार्रवाई करते हैं तो जनता और सेना बिगड़ जाएगी और वो खुद पैदल कर दिए जाएगें। दरअसल पाकिस्तान की दिक्कत बड़ी अजीब है। वो भारत के दबाव में कुछ नहीं करना चाहता, अमेरिका के दबाव को आराम से झेल लेगा। उसमें उसकी कोई बेइज्जती नहीं है, और दबाव को इंकार करने की कूब्बत भी नहीं है।
भारत में इधर चुनाव की वजह से पाकिस्तान पर दबाव वाली बात कुछ समय के लिए धीमी पड़ गई थी। लेकिन यूपीए सरकार जनता के जबर्दस्त दबाव में है और उसे पाकिस्तान पर लगातार दबाव देते हुए दिखना होगा। और मनमोहन सरकार इस मोर्चे पर किसी कीमत पर बीजेपी से पिछड़ना नहीं चाहती, और वो भरसक कोशिश करेगी की पाकिस्तान की तरफ कठोर दिखे ताकि इसका फायदा वो आनेवाले लोकसभा चुनाव में उटा सके। अगर भारत सरकार पाकिस्तान से एक भी आतंकवादी को वापस लाने में कामयाब हो गई तो ये सरकार के लिए बड़ा तुरुप का इक्का साबित होगा।
पाकिस्तान चौतरफ दबाव में है, और असली दबाव है अमेरिका का दबाव। एक तरफ अमेरिका को ये डर सता रहा है कि कहीं भारत सीमा पर सेना न लगा दे-ऐसी सूरत में पाकिस्तान अपनी सीमा अफगान सीमा से हटा लेगा और अमेरिका की सेना वहां फंस जाएगी। और यहीं वजह है कि अमेरिका जी जान से दबाव डाल कर पाकिस्तान को कुछ कार्रवाई करते हुए देखना चाहता है। जरदारी की तो हालत और भी खराब है। अगर वो ज्यादा कार्रवाई करते हैं तो जनता और सेना बिगड़ जाएगी और वो खुद पैदल कर दिए जाएगें। दरअसल पाकिस्तान की दिक्कत बड़ी अजीब है। वो भारत के दबाव में कुछ नहीं करना चाहता, अमेरिका के दबाव को आराम से झेल लेगा। उसमें उसकी कोई बेइज्जती नहीं है, और दबाव को इंकार करने की कूब्बत भी नहीं है।
भारत में इधर चुनाव की वजह से पाकिस्तान पर दबाव वाली बात कुछ समय के लिए धीमी पड़ गई थी। लेकिन यूपीए सरकार जनता के जबर्दस्त दबाव में है और उसे पाकिस्तान पर लगातार दबाव देते हुए दिखना होगा। और मनमोहन सरकार इस मोर्चे पर किसी कीमत पर बीजेपी से पिछड़ना नहीं चाहती, और वो भरसक कोशिश करेगी की पाकिस्तान की तरफ कठोर दिखे ताकि इसका फायदा वो आनेवाले लोकसभा चुनाव में उटा सके। अगर भारत सरकार पाकिस्तान से एक भी आतंकवादी को वापस लाने में कामयाब हो गई तो ये सरकार के लिए बड़ा तुरुप का इक्का साबित होगा।
Wednesday, December 3, 2008
मुम्बई हमला और पाकिस्तान-1
मुम्बई में हुए आतंकी हमलों के तुरंत बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा था कि वे आईएसआई के चीफ को भारत भेजेंगे, लेकिन कुछ ही देर बाद वो इससे मुकर गए। पाकिस्तान के अंदुरुनी हलकों में इसका इतना विरोध हुआ कि जरदारी, आईएसआई के मुखिया के बदले एक डेलिगेशन भेजने की बात करने लगे। भारत ने जब इधर कड़े संकेत देने की तैयारी की तो आनन फानन में पाकिस्तान ने इसे भुनाने की कोशिश शुरु की, और पश्चिमी सीमावर्ती कबीलाई इलाके से फौज को हटाकर पूर्वी सीमा पर भेजने की बात करने लगा। ये मूलत: अमेरिका को ब्लैकमेल करने की कोशिश थी कि वो भारत पर दबाव डाले और भारत को सीमा पर सेना का जमावड़ा करने से रोके। इसका फायदा भी मिला,अमेरिका अफगानिस्तान में फंसे होने की वजह से पाकिस्तान फौज का संभावित असहयोग नहीं झेल पाया और अगले ही दिन कोंडलिजा राइस दिल्ली में दिखी। वो नपेतुले और सधे लहजे में पाकिस्तान को हड़काकर वापस जाएंगी लेकिन उनका मूल मकसद भारत को सेना का जमावड़ा करने से रोकना होगा।
दूसरी तरफ पाकिस्तान पहले की तरह ही आतंकियों को सौंपने से साफ मुकर गया। उसने कहा पहले सबूत दो,फिर मुकदमा हमारे यहां ही चलाया जाएगा। दरअसल ये पाकिस्तान लोकतांत्रिक नेताओं की बेबशी से ज्यादा कुछ नहीं है कि वो चाहकर भी कट्टरपंथी तत्व और सेना-आईएसआई के गठजोड़ के सामने लाचार हैं। याद कीजिए, कुछ ही महीने पहले जब पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार ने सत्ता संभाला ही था, आईएसआई को रक्षामंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय के अधीन करने का फैसला लिया गया था, लेकिन महज 24 घंटे में उसे बदलना पड़ा।
मुझे लगता है कि दोष जरदारी का नहीं है। जरदारी तो भारत से शांति चाहते हैं, जरदारी उसी कड़ी के नेता हैं जिस कड़ी में धीरे-धीरे मुशर्रफ बाद में अमेरिकी दबाव में ढ़ल गए थे। जरदारी अभी भी पाकिस्तान की विषाक्त हो चुकी मुख्यधारा से अलग थलग हैं और उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। देश के कट्टरपंथी,सेना- आईएसआई और विशाल अतंर्राष्ट्रीय इस्लामी अराजकतावादी गठजोड़(कह सकते हैं अलकायदा) के सामने वो एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनकी जान भी जा सकती है। ये कोशिश बाद में मुशरर्फ ने भी की थी, उन पर कई जानलेवा हमला भी हुआ और अंतत:उन्हे गद्दी छोड़नी पड़ी। अमेरिका के सामने जरदारी से ज्यादा लचीला,कामचलाऊ,भरोसेमंद और मौजूदा हालात में आधुनिक नेता कोई नहीं था-इसलिए एक जमाने के मिस्टर 10% को कुर्सी सौंप दी गई।
जरदारी के बयानों पर अगर गौर किया जाए तो वो एक भविष्य की सोच रखने वाले जिम्मेदार नेता दिखते रहे हैं जिसने भारत के साथ शांति के कई संकेत अतीत में दिए। लेकिन जब पिछले दिनों मुम्बई हमलों के बाद पाकिस्तान में सर्वदलीय बैठक हुई तो जरदारी अकेले पड़ गए। सभी ने भारत के सामने घुटने न टेकने की बात की और वो बैठक दरअसल कट्टरपंथी तत्वो के समर्थन का बैठक बन गया। जरदारी ने जब आईएसआई के चीफ को भारत भेजने की बात की तो उसकी अगली कड़ी दाऊद और अजहर मसूद को भारत सौंप देने की होनेवाली थी। लेकिन पाकिस्तान में आईएसआई का कद इतना सम्मानीय और राष्ट्रीय प्रतीक का है कि ये बात वहां के जनमानस को हजम नहीं हुई और जरदारी झख मार कर पलट गए। लोगों का मूड भांफकर जरदारी के हाथ पैर फूल गए,और वो पुराने जमाने के बोल बोलने लगे।
तो फिर भारत के सामने उपाय क्या हैं? फिलहाल हम ज्यादा चौकसी और सतकर्ता बढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। हमें उन छेदों को पाटना होगा जिससे आतंकवाद रिस-रिसकर हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। बीमारी, हमारी अंदुरुनी सियासत में हैं। हम कोई भी नियम कायदा नहीं बनाते, न ही आतंकवाद को रोकने के लिए साहसिक पहल करते हैं। अगर सारे राजनीतिक दल मिल बैठकर तय कर लें तो आतंकवाद को बहुत ही कम किया जा सकता है। ये कोई बड़ी चुनौती नहीं जिसका इलाज न हो।(जारी)
दूसरी तरफ पाकिस्तान पहले की तरह ही आतंकियों को सौंपने से साफ मुकर गया। उसने कहा पहले सबूत दो,फिर मुकदमा हमारे यहां ही चलाया जाएगा। दरअसल ये पाकिस्तान लोकतांत्रिक नेताओं की बेबशी से ज्यादा कुछ नहीं है कि वो चाहकर भी कट्टरपंथी तत्व और सेना-आईएसआई के गठजोड़ के सामने लाचार हैं। याद कीजिए, कुछ ही महीने पहले जब पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार ने सत्ता संभाला ही था, आईएसआई को रक्षामंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय के अधीन करने का फैसला लिया गया था, लेकिन महज 24 घंटे में उसे बदलना पड़ा।
मुझे लगता है कि दोष जरदारी का नहीं है। जरदारी तो भारत से शांति चाहते हैं, जरदारी उसी कड़ी के नेता हैं जिस कड़ी में धीरे-धीरे मुशर्रफ बाद में अमेरिकी दबाव में ढ़ल गए थे। जरदारी अभी भी पाकिस्तान की विषाक्त हो चुकी मुख्यधारा से अलग थलग हैं और उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। देश के कट्टरपंथी,सेना- आईएसआई और विशाल अतंर्राष्ट्रीय इस्लामी अराजकतावादी गठजोड़(कह सकते हैं अलकायदा) के सामने वो एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनकी जान भी जा सकती है। ये कोशिश बाद में मुशरर्फ ने भी की थी, उन पर कई जानलेवा हमला भी हुआ और अंतत:उन्हे गद्दी छोड़नी पड़ी। अमेरिका के सामने जरदारी से ज्यादा लचीला,कामचलाऊ,भरोसेमंद और मौजूदा हालात में आधुनिक नेता कोई नहीं था-इसलिए एक जमाने के मिस्टर 10% को कुर्सी सौंप दी गई।
जरदारी के बयानों पर अगर गौर किया जाए तो वो एक भविष्य की सोच रखने वाले जिम्मेदार नेता दिखते रहे हैं जिसने भारत के साथ शांति के कई संकेत अतीत में दिए। लेकिन जब पिछले दिनों मुम्बई हमलों के बाद पाकिस्तान में सर्वदलीय बैठक हुई तो जरदारी अकेले पड़ गए। सभी ने भारत के सामने घुटने न टेकने की बात की और वो बैठक दरअसल कट्टरपंथी तत्वो के समर्थन का बैठक बन गया। जरदारी ने जब आईएसआई के चीफ को भारत भेजने की बात की तो उसकी अगली कड़ी दाऊद और अजहर मसूद को भारत सौंप देने की होनेवाली थी। लेकिन पाकिस्तान में आईएसआई का कद इतना सम्मानीय और राष्ट्रीय प्रतीक का है कि ये बात वहां के जनमानस को हजम नहीं हुई और जरदारी झख मार कर पलट गए। लोगों का मूड भांफकर जरदारी के हाथ पैर फूल गए,और वो पुराने जमाने के बोल बोलने लगे।
तो फिर भारत के सामने उपाय क्या हैं? फिलहाल हम ज्यादा चौकसी और सतकर्ता बढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। हमें उन छेदों को पाटना होगा जिससे आतंकवाद रिस-रिसकर हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। बीमारी, हमारी अंदुरुनी सियासत में हैं। हम कोई भी नियम कायदा नहीं बनाते, न ही आतंकवाद को रोकने के लिए साहसिक पहल करते हैं। अगर सारे राजनीतिक दल मिल बैठकर तय कर लें तो आतंकवाद को बहुत ही कम किया जा सकता है। ये कोई बड़ी चुनौती नहीं जिसका इलाज न हो।(जारी)
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