10 तारीख को हमें इलाहाबाद से वापस आना था, मन कर रहा था कि काश कुछ दिन और रुक पाते। सुबह आठ बजे हमारी ट्रेन थी, गौरव हमें स्टेशन तक छोड़ने आया। हमने आते वक्त वो खूबसूरत केथेड्रल देखा जो स्टेशन के नजदीक ही है। हमने इलाहाबाद हाईकोर्ट भी देखा और उसके सामने फोटो खिचाया। हमें बड़ी मुश्किल से पुलिसवालों से मनुहार कर वहां पर फोटो खिंचाने की इजाजत मिली। वाकई इलाहाबाद हाईकोर्ट की इमारत अद्भुत है, हम उसकी भव्यता का अंदाजा लगाते रहे और सोचते रहे कि क्या वाकई हम उसी इमारत के सामने खड़े है जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता को हिला कर रख दिया था।
डीडी न्यूज में काम कर रहे मेरे दोस्त नितेंद्र सिंह की याद बरबस आ गई जिसने कई बार इलाहाबाद के जगराम चौराहा का जिक्र हमारे सामने किया था। रास्ते में ही जगराम चौराहा दिखा, हमने वहां चाय पी। वो किसी जगराम नामके किसी कारोबारी के नाम पर था, जिनकी पिछली पांच पीढ़ियों से वहां दुकान थी। हमें फोटो खींचते देख दुकान मालिक ने शुरु में पूछताछ की, बाद में उसने हमारा काफी सहयोग किया। नितेंद्र सिंह की जुबान में मिठास अब हमारी समझ में आ गई थी। हम उसके मुंह से सिविल लाईन और जगराम चौराहा का जिक्र इतनी बार सुन चुके थे, जितना हमने कनाट प्लेस के बारे में नहीं सुना था। खैर संगम से आते वक्त ही शाम को हमने सिविल लाईंस भी देखा था। इतना खुला इलाका आजकल बनाना मुश्किल है। पापा ने फोन कर कहा कि वहां के कॉफी हाउस की बात ही कुछ और है, लेकिन वो हम देख नहीं पाए।
हमारे पास वक्त की कमी थी जिस वजह से हम बहुत कुछ और नहीं देख पाए। हम हरिवंशराय बच्चन का घर नहीं देख पाए जहां अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ था। हम कटरा के पास से गुजरे जरुर लेकिन वहां हम वहां चाय लस्सी नहीं पी पाए-जिस कटरे पर राही मासूम रजा ने कटरा बी आरजू लिखा था। हम युनिवर्सिटी के अंदर बहुत घूम नहीं पाए जो अपने सुनहरे अतीत के लिए मशहूर है। हम उन जगहों पर जाना चाहते थे जहां पर महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, निराला, और बड़े-2 साहित्यकार रहते थे। हम उन इलाकों में घूमना चाहते थे जहां मेरे कई दोस्तों और सीनीयर्स की प्रेम कहांनियां परवान चढ़ी थी।
इलाहाबाद से मेरे परिवार का थोड़ा व्यक्तिगत नाता भी रहा है। मेरे पापा ने अपने जीवन का अहम हिस्सा यूपी के एक बड़े नेता और वहां के मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ बिताया था। वे उनके राजनीतिक सलाहकार थे। इस नाते मेरे पापा इलाहाबाद और यूपी के चप्पे से परिचित थे। बचपन से जो बातें मैं इलाहाबाद के बारे में सुनता आ रहा था, वो सब सामने थी। शायद ये भी एक वजह हो कि इलाहाबाद यात्रा को मैनें इस स्तर पर जिया था। ये मेरे लिए महज किसी छोटे से शहर की यात्रा भर नहीं थी-ये मेरे लिए मेरे अतीत के साथ मेरा साक्षात्कार भी था।
आखिर जब हम ट्रेन से दिल्ली के लिए रवाना हुए तो हम भावुक हो गए। इस शहर के साथ हमारा क्या नाता था जिसने हमें बांध कर रख लिया। हम अपने मन को बार-2 तसल्ली देते रहे कि हमें यहां फिर से आना है। राजीव ने तो यहां तक कहा कि हमारी शादी इलाहाबाद में ही होनी चाहिए, ताकि आना-जाना बना रहे। शायद किसी ने ठीक ही कहा है कि इस शहर का अगर कोई ग्रामदेवता है तो वो कामदेव ही होगा। वाकई हमें इलाहाबाद ने मोह लिया।...(अंतिम)
हमारे पास वक्त की कमी थी जिस वजह से हम बहुत कुछ और नहीं देख पाए। हम हरिवंशराय बच्चन का घर नहीं देख पाए जहां अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ था। हम कटरा के पास से गुजरे जरुर लेकिन वहां हम वहां चाय लस्सी नहीं पी पाए-जिस कटरे पर राही मासूम रजा ने कटरा बी आरजू लिखा था। हम युनिवर्सिटी के अंदर बहुत घूम नहीं पाए जो अपने सुनहरे अतीत के लिए मशहूर है। हम उन जगहों पर जाना चाहते थे जहां पर महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, निराला, और बड़े-2 साहित्यकार रहते थे। हम उन इलाकों में घूमना चाहते थे जहां मेरे कई दोस्तों और सीनीयर्स की प्रेम कहांनियां परवान चढ़ी थी।
इलाहाबाद से मेरे परिवार का थोड़ा व्यक्तिगत नाता भी रहा है। मेरे पापा ने अपने जीवन का अहम हिस्सा यूपी के एक बड़े नेता और वहां के मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ बिताया था। वे उनके राजनीतिक सलाहकार थे। इस नाते मेरे पापा इलाहाबाद और यूपी के चप्पे से परिचित थे। बचपन से जो बातें मैं इलाहाबाद के बारे में सुनता आ रहा था, वो सब सामने थी। शायद ये भी एक वजह हो कि इलाहाबाद यात्रा को मैनें इस स्तर पर जिया था। ये मेरे लिए महज किसी छोटे से शहर की यात्रा भर नहीं थी-ये मेरे लिए मेरे अतीत के साथ मेरा साक्षात्कार भी था।
आखिर जब हम ट्रेन से दिल्ली के लिए रवाना हुए तो हम भावुक हो गए। इस शहर के साथ हमारा क्या नाता था जिसने हमें बांध कर रख लिया। हम अपने मन को बार-2 तसल्ली देते रहे कि हमें यहां फिर से आना है। राजीव ने तो यहां तक कहा कि हमारी शादी इलाहाबाद में ही होनी चाहिए, ताकि आना-जाना बना रहे। शायद किसी ने ठीक ही कहा है कि इस शहर का अगर कोई ग्रामदेवता है तो वो कामदेव ही होगा। वाकई हमें इलाहाबाद ने मोह लिया।...(अंतिम)
12 comments:
वाकई मोह गया पूरा वृतांत!! आभार विस्तार से घूमवाने का.
badhiya likha aapne ,fir aaiyega apne allahabad.
bahut achi rachna aur kafi achi mehnat bhi.
very lovely post.
तूने मोह लिया इलाहाबाद सीरीज में आपने अपने भाव को बहुत सुन्दरता से लेखनी में ढाला है
आज जब इस सीरीज की अंतिम कड़ी पढी तो लगा की मुझे तो इसकी आदत सी हो गई है और इसे बिलकुल भी समाप्त नहीं होना चाहिए.
अंतिम कड़ी पढ़ कर दिल उदास हो गया :(
वीनस केसरी
Great...the nomadic writer inside you has justified each & every post. Congrats Boss!
भाई सुशांत, इलाहाबाद पर लिखने को आपने कहा है, अब मैं क्या लिखूं? सारा कुछ तो आपने बयां कर दिया.. मजा़ आ गया गुरु। बेहद शानदार.. मेरे अनुभव भी आपकी ही तरह हैं, सच मानिए.. मेरे दिल की बात आपके पोस्ट में हैं। चलो अपने ब्लॉग पर मैं इलाहाबाद के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा आगे बनारस के बारे में ही लिखूंगा। साधु..साधु
bahut badhiya likha. mai toak bar me hi pura padh gayi.ab to mera bhi man allahabad jaane ka kar raha hai
अद्धभूत.... आंख के दोनों कोर भींग गए। पता नहीं क्यों .... आपकी लेखनी से कौन सा इलाहाबाद देखा। आपके एक पाठक ने जैसा बताया बिल्कुल वैसा ही मेरे मन में भी इलाहाबाद की छवि गढ़ी है... गुनाहों के देवता की शुरूआती पंक्तियों के साथ इलाहाबाद खुद से जोड़ता है। नेहरू का कांग्रेस उतना इलाहाबाद से नहीं जोड़ता जितना आनंद भवन जोड़ता है। आपकी लेखनी छुती है .... हृदय के किसी किनारे ... अब दब कर बैठ गए सनातन हिन्दु ( संघ वाली नहीं ) को। आप डुबकी लगा रहे थे संगम में ... लगा सारे मैथिलों ने गंगा स्नान कर लिया। इसी क्रम में बच्चन जी का ज़िक्र आया। इलाहाबाद के बेवफा कवि.... या कहें कि बेवफा शहर के बेपरवाह कवि। बहरहाल फिराक साहब की जानकारी में अंग्रेजी के एक पूर्ण जानकार और थे ... पंडित अमरनाथ झा। जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में झा जी अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष थे तभी फिराक साहब और बच्चन जी ( जिन्हें अमरनाथ झा जी ने स्कूल की टिचरी से मुक्ति दे अंग्रेजी का प्रोफेसर बनाया था ) उसी विभाग में अंग्रेजी पढ़ाते थे। बच्चन जी के व्यक्तिव पर झा जी की गबरैलु स्वभाव का बहुत असर है। लेकिन इन सबमें आपके यात्रा संस्मरण ने भीतर बैठी इलाहाबाद को अपनी नज़रों से देखने की इच्छा को थोड़ा सहलाया और दुलराया भी। काफी हाउस की उस कुर्सी टेबल को भी देख आते जिसने छायावादियों को पैदा किया। अंत में इलाहाबाद घर नहीं है तो क्या ससुराल तो बनाया ही जा सकता है। कबिरा के बाज़ार में खड़े दुल्हे अपने अरमानों को इस कदर निचोड़ कर सामने रख रहे हैं .... कोई तो मरहम लगाए। इंतजार है इलाहाबाद अपनी आंखों से देखने का। अब इंतजार है सुशांत झा के ससुराल इलाहाबाद घुमने का। २९ साल के इंतजार में कुछ पल और सही......
आप की तस्वीर देख के ऐसा महसूस हुआ कि आप कुछ सेहत की तरफ़ भी ध्यान दें...........भाई
Sushant Babu bahut neek.
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