Sunday, December 12, 2010

...ये बनाना रिपब्लिक क्या बला है ?

आजकल जिसे देखो, वहीं बनाना रिपब्लिक का नाम लेता जा रहा है। बात शुरू हुई नीरा राडिया से, फिर रतन टाटा ने तस्दीक किया कि हम बनाना रिपब्लिक में रहते हैं। इधर हमारे कामरेड भाईलोग सालों से ये बात कहते आ रहे थे, पर किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था। आखिरकार हमने आजिज आकर अपने एक दोस्त से पूछ ही लिया कि मियां ये बनाना रिपब्लिक क्या बला है? उसका कहना था कि यू नो… जब रिपब्लिक बनाना की तरह हो जाए तो उसे बनाना रिपब्लिक कहते हैं! मैंने कहा कि अर्थ स्‍पष्‍ट करो। तो उसने कहा कि जिस देश को लोग पके हुए केले की तरह मनमर्जी दबा दें, तो वो बनाना रिपब्लिक हो जाता है!

इधर हाजीपुर से एक भाई ने फोन पर दावा किया कि बनाना रिपब्लिक का नाम हाजीपुर के केला बागान पर पड़ा है! उसका तर्क था कि जैसे गंगा किनारे के दियारा में (नदी के किनारे का इलाका) ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस चलती है’, वही हाल बनाना रिपब्लिक का भी होता है! मुझे लगा कि ये सही परिभाषा है। वैसे हाजीपुर के ही एक दूसरे सज्जन ने फोन किया कि ऐसा कहना हाजीपुर के केला बागान का अपमान है और इस पर मानहानि का मामला बन सकता है! आखिर ‘दियारा’ के भी कुछ अपने नियम-कानून होते हैं, उसकी तुलना आप बनाना रिपब्लिक से कैसे कर सकते हैं?

खैर, इस सवाल ने मुझे भी कई दिनों तक परेशान किया। फिर महर्षि गूगल ने बताया कि बनाना रिपब्लिक दरअसल उसे कहते हैं, जहां वाकई जिसकी लाठी उसकी भैंस होती है।

दरअसल, बनाना रिपब्लिक का नामकरण एक अमेरिकी लेखक ओ हेनरी ने 20वीं सदी के शुरुआती सालों में किया था। हेनरी साहब ने 1904 में ‘कैबेज एंड किग्स’ नामकी अपने लघुकहानी संग्रह में इसका ज़िक्र किया था, जब वे अमेरिकी कानूनों से बचने के लिए होंडुरस में रह रहे थे। होंडुरस, उत्तरी अमेरिकी महाद्वीप मे ही है, मैक्सिको-ग्वाटेमाला से बिल्कुल सटा हुआ, उसके दक्षिण में।

बनाना रिपब्लिक का केले से वाकई संबंध है। दरअसल, जब बागवानी कृषि के लिए बड़े पैमाने पर गुलामों और दासों का उपयोग किया जा रहा था, तो उस समय भूस्वामियों ने बुरी तरह गुंडागर्दी मचा रखी थी। बागवानी कृषि में बड़े पैमाने पर केले का उत्पादन होता था और दासों से जानवरों की तरह काम लिया जाता था। ये भूस्वामी आपस में भी लड़ते थे और साथ ही उन देशों की सत्ता को इन्होंने अपनी रखैल बना लिया था। उन भूस्वामियों की बड़ी-बड़ी कंपनियां थीं, जो केले का निर्यात अमेरिका और यूरोप के बाजारों में करती थीं। कहते हैं कि पहली बार जब इसका निर्यात यूरोपियन मार्केट में हुआ, तो उसमें हज़ार फीसदी का मुनाफा हुआ था! उसी केले की बागवानी के नाम पर ऐसे देशों को बनाना रिपब्लिक कहा गया। जहां नियम-कायदों की जगह ताकत, पूंजी और भाई-भतीजावाद का नंगा खेल चलता था। केले को डॉलर में बदलने का ये सिलसिला 19वीं सदी के शुरुआत में चालू हुआ था।


बाद में लोग कैरिबियन द्वीप समूहों के अलावा कई लैटिन अमेरिकी देशों को बनाना रिपब्लिक कहने लगे। वजह साफ थी। यहां लाठी का नंगा नाच होता था। वैसे इन देशों में व्यापक पैमाने पर केले की खेती करने का काम रेल पटरी बिछाने वाली अमेरिकी कंपनी के मालिक हेनरी मेग्स और माईनर कीथ ने किया था, जिसने मजदूरों को खाना खिलाने के लिए रेलवे पटरियों के किनारे केले की खेती शुरू की। बाद में यह केला सोना उगलने लगा और इसे लेकर खून-खराबे, सत्ता पलट और मजदूरों पर अमानुषिक अत्याचार शुरू हो गये।

कहते हैं कि केले की खेती से इतना मुनाफा होने लगा कि केला कंपनियों ने वहां की सत्ता का दुरुपयोग कर कई इलाकों पर कब्जा कर लिया। माईनर कीथ जो रेल पटरी बिछाते थे, उन्होंने कई केला कंपनियों के साथ अपनी रेल पटरी कंपनी का विलय कर इतनी बड़ी कंपनी बना ली कि उन्होंने अमेरिका के 80 फीसदी केला कारोबार पर ही कब्जा कर लिया! अब वे ‘बनाना किंग’ बन गये। इसके लिए हर उपलब्ध साधन अपनाये गये। हालत ये हो गयी कि इन केला कंपनियों ने दक्षिण अमेरिका, कैरिबियाई द्वीप समूह और केंद्रीय अमेरिका के लाखों लोगों को भूमिहीन बनाकर बंधुआ मजदूर बना लिया गया। इन मजदूरों को सीमित रूप से भोजन और यौन संबंध बनाने की आजादी मिली हुई थी।

ये केला कंपनियां इतनी ताकतवर थीं कि इन्होंने सीआईए के साथ मिलकर कई देशों में तख्ता पलट कराया और कई राष्ट्रपतियों की हत्या कर दी गयी। पाब्लो नेरुदा ने लैटिन अमरीकी देशों में इन केला कंपनियों के राजनीतिक प्रभुत्व की अपनी कविता ‘ला यूनाईटेड फ्रूट कंपनी’ में भर्त्सना भी की।

उस हिसाब से देखा जाए तो केला कंपनियों की तरह अपने यहां कंपनियां ज़मीन से लेकर स्पेक्ट्रम तक की लूटमार करती ही रहती हैं। तो फिर टाटा साहब का कहना ठीक है कि हम बनाना रिपब्लिक हो गये हैं! अंग्रेजी में ये शब्द कितना अच्छा लगता है…!

Monday, October 11, 2010

असली एंग्री यंग मैन तो तुम थे जेपी....!

गनीमत है कि अमिताभ का जन्म 2 अक्टूबर को नहीं हुआ। नहीं तो लोग बापू को भी भूल जाते। क्या फर्क पड़ता है कि आज 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन है। बिग बी का भी जन्मदिन आज ही है। जेपी के बारे में टीवी और अखबारों में शायद ही कहीं छपा हो। एक पत्रकार ने कहा कि जेपी को चलाने से टीआरपी नहीं मिलती। बात सही है। टीआरपी तो बिग बी उगल रहे हैं। शायद लालू-नीतीश भी जेपी को भूल गए हों। चुनाव प्रचार में बिजी होंगे। क्या पता कहीं माला-वाला चढ़ा दिया हो।
हां, बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकारी ने जरुर जेपी को याद किया। लेकिन गलत संदर्भ में। उन्होंने कहा कि आज जेपी (और नानाजी देशमुख भी) के जन्मदिन को बीजेपी कर्नाटक में अपनी सरकार बचा कर सेलीब्रेट कर रही है। सही बात है। लेकिन बीजेपी ने जिस तरह से स्पीकर की सत्ता का अपने पक्ष में इस्तमाल करके सरकार बचाई है जेपी तो उसी के खिलाफ थे। जेपी ने 1974 में इंदिरा-बनाम राजनारायण मुकदमे में हार के बाद लोकसभा स्पीकर को मनमर्जी फैसला लेनेवाला बताया था। इसे उस वक्त स्पीकर की गुंडागर्दी बताया गया। लेकिन बीजेपी, अपनी जीत को जेपी के जन्मदिन को सुपुर्द किए जा रही है!

खैर, बात जेपी की हो रही थी। कई लोग कहते हैं कि जेपी सारे चेले लंपट और उचक्के निकले। उनका इशारा लालू-मुलायम की तरफ होता है। यूं, मुलायम जेपीआईट नहीं है, वे अपने को लोहियाईट कहते हैं। इस तरह के आरोप पूर्वाग्रह से भरे होते हैं, उसमें गंभीरता कम होती है। जेपी आन्दोलन से जो सबसे अहम परिवर्तन आया वो ये कि हमारे लोकतंत्र का समाजीकरण हो गया। अब संसद और विधानसभाएं सिर्फ साफ बोलने और पहनने वालों की जागीर नहीं रही। ऐसे में कुछ ऐसे भी लोग सामने जरुर आए जिन्हें सार्वजनिक जीवन में देखकर संभ्रान्तों को तकलीफ होती थी। ऐसे लोगों को जेपी के लंपट और उचक्के चेलों की संज्ञा दे दी गई!

जेपी और अमिताभ दो और वजहों से महत्वपूर्ण हैं। देश की आजादी के बाद जब सपने टूटने लगे थे और उम्मीदें दरकने लगी थीं तो दोनों ने ही अलग-अलग तरीकों से इसे अभिव्यक्त किया था। जेपी का इंदिरा विरोधी आन्दोंलन और अमिताभ का एंग्री यंग मैन एक ही चीज की वकालत कर रहा था। साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति बहुत पहले हो चुकी थी। रेणु, देश की आचंल को मैला साबित कर चुके थे, और श्रीलाल शुक्ल नेताओँ को रागदरबारी। माध्यम अलग-2 था। जेपी को भी इस बात का एहसास था कि उनके आन्दोंलन में कई विचारधाराओँ के लोग हैं जिनकी निष्ठाएं अलग-अलग हैं। लेकिन बावजूद इसके, गैर-कांग्रेसवाद का पहला प्रयोग वे कामयाब बनाना चाहते थे।

कई लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि ये जेपी ही थे जिन्होंने तत्कालीन जनसंघ को एक तरह से सियासी अछूतपना से निजात दिलाया था। लेकिन ये इल्जाम जेपी पर ही क्यों...! क्या लोहिया ने सन् '67 में पहली संविद सरकार में ऐसा ही नहीं किया था? जाहिर है, लोहिया का वो अधूरा प्रयोग साल 1977 में जाकर पूरा हुआ था। कांग्रेस इसलिए सत्ता में फिर से आ गई या आती रही कि कोई मजबूत विकल्प नही था। लोहिया इसका प्रयास करते रहे थे। जेपी ने उसे एक कदम आगे बढ़ाया।
जेपी इसका प्रयास करते रहे कि जनसंघ अपने कट्टर खोल से बाहर निकले और इसलिए जनता पार्टी भी बनाई गई। बाद में दोहरी सदस्यता पर जनसंघियों की जिद और दूसरे नेताओं की महात्वाकांक्षा की वजह से पार्टी टूट गई, ये अलग बात है। लेकिन जेपी ने अपने भर तो प्रयास किया ही था।
सन् 77 में बड़ा मुद्दा ये था कि मुल्क को इंदिरा गांधी की तानाशाही से मुक्ति दिलाई जाए। इस चक्कर में बेहतर विकल्प और कार्यक्रमों पर ध्यान नहीं दिया गया और जनता पार्टी आपसी अंतर्कलह का शिकार हो गई। लेकिन इसने देश को ये बता दिया कि मुल्क एक परिवार और एक पार्टी के बगैर भी चल सकता है। यहीं वो प्रयोग था जिसने बाद के दिनों में कांग्रेस को अपेक्षाकृत ज्यादा लोकतांत्रिक बनने या दिखने पर मजबूर किया। इसमें कोई शक नहीं कि सन् 1975-77 का आन्दोलन देश के इतिहास में एक दूसरे आजादी के आन्दोलन की तरह ही याद रखा जाएगा जिसने भारतीय लोकतंत्र का इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र सबकुछ बदल दिया।
जेपी को आंकने का पैमाना निश्चय ही लालू या मुलायम नहीं हो सकते। वैसे भी, लालू-मुलायम जिस देशज और व्यापक राजनीति की नुमाईंदगी करते हैं वो कांग्रेस के कलफ लगे हुए कुर्तों में नहीं थी। परवर्ती नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को जेपी पर नहीं थोपा जा सकता।
एक व्यक्ति के तौर पर जेपी शायद गांधी के बाद पहले भारतीय थे जिन्होंने दो-दो बार सत्ता को ठुकरा दिया था। नेहरुजी की मौत के बाद भी जेपी को कथित तौर पर ये मौका मिला था और आपातकाल के बाद तो खैर जनता पार्टी ही उनकी ब्रेनचाईल्ड ही थी। जब इंदिरा गांधी तानाशाह बन रही थी तो जेपी चंबल में डकैतों से आत्मसमर्पण करवा रहे थे। उनकी ये नैतिक सत्ता थी, डकैतों को सरकार पर यकीन नहीं था।
आज मुल्क जेपी की याद में जश्न मनाना जरुरी नहीं समझ रहा। शायद, सत्ता भी यहीं चाह रही है। लेकिन इस लोकतंत्र पर जब-जब खतरा आएगा और जब भी तानाशाही थोपने की कोशिशें होंगी, जेपी का नाम हमारे जेहन में बिजली सा जरुर कौंधेगा।

Thursday, September 23, 2010

मेरी यादों में अयोध्या...!

अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई थी तो उस वक्त मैं शायद 7वीं क्लास में था। गांव में किसी बुजुर्ग के मौत की बरसी का भोज था। बीबीसी पर खबर आई थी कि बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर दिया गया। लोगों ने उसे बाद में बीबीसी उर्दू पर विस्तार से सुना। पता नहीं बीबीसी वालों ने उस वक्त उसे क्या कहा था-मस्जिद या विवादित ढ़ांचा याद नहीं आता। लेकिन जो बात याद आती है वो ये कि खबर सुनते ही मानों लोगों में एक उन्माद सा छा गया था। कहने की जरुरत नहीं कि ये ब्राह्मणों का भोज था, पता नहीं दलितों और पिछड़ों में इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई। वैसे भी अपने आपको अपवार्डली मोबाईल मानने वाले ब्राह्मण-सवर्ण ज्यादातर बीबीसी सुनते थे और कुछ पढ़े लिखे पिछड़े-दलित भी। ये उस समय का एक दस्तूर सा था कि शाम को पटना आकाशवाणी की खबर के बाद लोग बीबीसी सुनते थे।

पटना में लालू प्रसाद नामका एक नेता मुख्यमंत्री बन चुका था और पिछड़ों में उन्हें लेकर एक उन्माद के हद तक आशावादिता थी। बिहार के सवर्ण उस दौर में सार्वजनिक स्थलों पर विवादों से बचने की भरसकर कोशिश करते थे। खाते- पीते लोगों ने बड़े पैमाने पर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए दिल्ली भेजना शुरु कर दिया था। बाबरी मस्जिद उस एक तबके के लिए बड़ा आश्वासन बनकर आया था जब उसे लगा कि इस बहाने कम से कम वो अपने आपको अलग-थलग होने से बचा सकता था। बाबरी ध्वंश के बाद मेरे सूबे में दंगे नहीं हुए थे, यूं तनाव जरुर था। इस दंगे के न होने में एक बड़ी भूमिका लालू प्रसाद की जरुर थी जिन्होंने पिछड़ों और दलितों को बहकने नहीं दिया था। यूं, इससे पहले बिहार, भागलपुर और सीतामढ़ी का कुख्यात दंगा झेल चुका था। लेकिन बाबरी ध्वंश के बाद ऐसी बात नहीं हुई। दो महीना बाद भोपाल से मेरे चचेरे भाई आए थे तो बिहार में आए पिछड़ा उभार पर मर्सिया गाने के बाद भोपाल में हुए हिंदू-मुस्लिम झगड़े पर जरुर सीना चौड़ी कर रहे थे।

ये वहीं दौर था जब बिहार- या यूं कहें कि पूरे उत्तर भारत- का पूरा का पूरा सवर्ण तबका कांग्रेस का दामन छोड़कर बीजेपी का मुरीद होने लगा था। उस वक्त अखबारों में नरसिंम्हा राव की तस्वीर ऐसे छपती थी जैसे वे आज के कलमाड़ी हों। वाजपेयी ने एक तबके में अपनी जगह बनानी शुरु कर दी थी। उसके बाद हम पटना आ गए थे और पढ़ाई लिखाई में व्यस्त होते गए। जब-जब बीजेपी उफान पर होती तो हमें लगता कि लालू का काट सामने आ रहा है।

वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो लोगों खासकर सवर्णों और कट्टरपंथी किस्म के हिंदिओं में उसी तरह की खुशी हुई थी जब बाबरी ढ़हाई गई थी। कुछ उदारपंथी किस्म के लोगों ने वाजपेयी में एक आश्वासन जरुर देखा था। वाजपेयी सरकार ने जब परमाणु परीक्षण करने का फैसला लिया तो लोगों ने इसे एक तरह के हिंदु उभार से कम नहीं देखा था। लेकिन बीजेपी के कोर वोटरों में तब निराशा होने लगी तब बीजेपी की सरकार ने गठबंधन को बचाने के लिए राममंदिर को किनारे करना शुरु कर दिया। इसके उलट उन वोटरों ने जब प्रमोद महाजनों, अरुण शौरियों-जेटलियों को कारोबारियों के समर्थकों की भूमिका में देखा तो शायद उन्हें लगा कि बीजेपी को तो उन्होंने इसके लिए वोट किया ही नहीं था। साल 2004 आते-आते बीजेपी विकास के नाम पर इंडिया शाईनिंग का नारा भले ही गढ़ बैठी लेकिन उसके कोर समर्थकों में कोई उत्साह बाकी नहीं था। पार्टी औंधे मुंह गिरी। लगा कि कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क ही नहीं है।

ऊपर की व्याख्या जरुर दक्षिणपंथी किस्म की लग सकती है लेकिन ये मेरे जैसे इंसान का नितांत निजी अनुभव है जो खास सामाजिक परिस्थियों में पले-बढ़े होने की वजह पैदा हुआ था।

वाजपेयी सरकार के मध्याह्न काल तक हिंदुओं के एक वर्ग में जो उम्मीद बाकी थी वो साल 2010 तक आते-आते बिल्कुल खत्म हो चुकी है। अब जमीन पर कोई तनाव नहीं है। यूं, ये एक ऐसा मसला जरुर है जो काफी संवेदनशील है और कुछ भी भविष्यवाणी करना खतरनाक है। लेकिन साल 2010 तक आते-आते लगभग पूरा का पूरा राजनीतिक और समाजिक तबका इस बात का लगभग मुरीद हो चुका है कि जो होगा वो अब अदालत के फैसले से ही होगा।

मुझे अपनी दादी की बात याद आती है। वो एक धार्मिक महिला थी जो रह-रह कर प्रयाग, बनारस, मथुरा-बृंदावन और जगन्नाथजी की चर्चा करती थी। लेकिन अयोध्या का जिक्र उसमें शायद ही आता था। पता नहीं या मेरी दादी की ही बात थी या शायद मेरे पूरे इलाके में ही ऐसी बात थी। अयोध्या को लेकर कभी कोई फेसिनेशन नहीं था। कुछ बुजुर्ग कहते हैं कि मिथिला के लोगों में वैसे भी अयोध्या को लेकर कोई बहुत लगाव नहीं था जहां सीता के साथ ऐसा बुरा बर्ताव हुआ था ! यहां मैं थोड़ा क्षेत्रीय हो रहा हूं। पता नहीं मामला क्या है। बाबरी जब ध्वंश हुआ था तो ऐसा लगता है कि मेरे गांव के लोगों में खासकर ब्राह्मणों में वो तात्कालिक उन्माद ही था जो लालू यादव के गद्दीनशीं होने की स्थिति में खुशी का कोई क्षण खोजने के लिए भी आया था। बाद में सारी बातें हवा हो गई। आज मेरे गांव में लोग उसी तरह उदासीन है। कुछ लोग जो उत्साहित लगते हैं वे शहरों में ही लगते हैं जहां टीवी चैनल और मीडिया के दूसरे माध्यम उन्हें रह-रह कर इस बात की याद दिला ही देते हैं।

अपने देश में दलितों का मसला अंबेदकर और गांधी ने मिल-बैठकर सुलझाया था। पिछड़ा आरक्षण का मसला संसद और अदालत ने सुलझाया था। पता नहीं अयोध्या का क्या होगा। लोग तो कह रहे हैं कि अदालत का फैसला मान लेंगे। अच्छी बात है। लेकिन अगर समाजिक रुप से सर्वसम्मत फैसला हो तो शायद हल और भी मजबूत हो। लेकिन दिक्कत ये है कि गांधी और अंबेदकर जैसे कद्दावर हमारे बीच फिलहाल तो नहीं है। फिर भी हम उम्मीद क्यों छोड़ें ?

Monday, August 30, 2010

यूपीएससी परीक्षा में धांधली का आरोप

हाल ही में जब एमसीआई का चेयरमैन 2 करोड़ रुपया घूस लेते हुए पकड़ा गया था तो लोगों ने उसे पहली ऐसी घटना माना था जिसमें कोई इतना बड़ा अधिकारी सरेआम घूस लेते पकड़ाया हो। यूं, कईयों ने उसे सुखराम कांड से तुलना करने की भी कोशिश की थी। लेकिन हाल ही में यूपीएससी पर जो घोटाले के आरोप लगे हैं वे इससे कहीं बड़े घोटाले को अंजाम दे सकते हैं। क्योंकि यूपीएससी ऐसा संस्थान है जो देश पर हुकूमत करने वाले नौकरशाहों को चुनता है। अगर यहां पर घोटाले की बात साबित हो जाती है तो वाकई एक एक सीट की बोली 5 या 10 करोड़ो में लगी होगी।

भारत के इतिहास में अभी तक यूपीएससी को गाय, गंगा और ब्राह्मण की तरह पवित्र माना जाता रहा है! यूं, राज्यों में लोकसेवा आयोगों को लोग दशकों से घोटाला करते देख रहे हैं और बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में तो इसके चेयरमैन तक जेल रहे हैं। रेलवे बोर्ड की भी यहीं हालत है। कुल मिलाकर हिंदुस्तान में कोई ऐसा सरकारी विभाग नहीं बचा जहां पैसा लेकर नौकरी न बांटी जाती हो। हां, इसके प्रतिशत में फर्क हो सकता है कि कितने सीट जेनुइन चुने गए और कितने पैसे लेकर। लेकिन अभी तक यूपीएससी पर कोई खुलेआम आरोप नहीं लगा था। एक बार यूपीएससी के प्रश्नपत्रों को लेकर सवाल जरुर उठा था जिसमें रांची के एक प्रेस से संबंधित कई लोगों ने यूपीएससी इक्जाम में कामयाबी पा ली थी। लेकिन उसके बाद से प्रश्नपत्रों की छपाई का काम अमेरिका भेज दिया गया।

इस बार यूपीएससी के उम्मीदवारों ने आरोप लगाया है कि पीटी की परीक्षा में भारी पैमाने पर धांधली हुई है। यूपीएससी ने घोषणा की थी कि वो पीटी में करीब 18,000 रिजल्ट देगा जो इसबार रिक्तियों की भारी संख्या को देखते हुए लाजिमी भी था। लेकिन यूपीएससी ने रिजल्ट दिए सिर्फ 12,000. यूपीएससी ने इसकी कोई वजह नहीं बताई और न ही आरटीआई के तहत वो इसकी जानकारी देना चाहता है। लेकिन ऐसा करना यूपीएससी का कोई अपराध नहीं लगता। लेकिन आंखे तो तब खुली रह जाती है कि यूपीएससी मिनिमम कट ऑफ मार्क नहीं बताना चाहता। क्योंकि ऐसी खबरें है कि कुछ ऐसे लड़को को पीटी में पास घोषित कर दिया गया है जो इक्जाम में बैठे ही नहीं थे। दूसरी तरफ जिन लड़कों ने पिछले साल आईपीएस का इक्जाम पास कर लिया था वे इस बार पीटी में खेत रहे। हलांकि कई दफा ऐसा होता है, लेकिन अगर ऐसे तकरीबन 100 से ज्यादा उम्मीदवारों के साथ हो जरुर घोटाले की गंध आती है। दूसरी तऱफ कुछ ऐसे लड़के हैं जिन्होंने जीएस में महज 20 सवाल बनाए थे उनका हो गया लेकिन 50 सवाल हल करने वाले खेत रहे।

कई छात्र इस बार के इक्जाम में क्षेत्रीय भेदभाव का आरोप भी लगा रहे हैं। हलांकि इसकी संभावना कम है। हिंदीभाषी इलाके के कई छात्रों का कहना है कि क्षेत्रविशेष के ज्यादातर उम्मीदवारों को पास करवा दिया गया है और हिंदी इलाकों के छात्रों का नाम काट दिया गया है।

यूपीएसी उम्मीदवारों ने इसके लिए यूपीएससी कार्यालय के सामने धरना दिया और जंतर-मंतर पर भी वे धरना दे चुके हैं। लेकिन उनकी आवाज को सुनने को कोई तैयार नहीं है। आश्चर्यजनक बात ये है कि मीडिया का एक बड़ा तबका उनकी बातों को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी मीडिया में तो फिर भी उनके बारे में कुछ न कुछ छपा है लेकिन अंग्रेजी मीडिया ने इस तरफ से बिल्कुल अपनी आंख मूंद ली है। यूपीएससी को ये गुरुर है कि सांविधानिक संस्था होने के नाते कोई उस पर सवाल उठा ही नहीं सकता। उम्मीदवारों को अब आशा की एक ही किरण दिखाई देती है और वो है सुप्रीम कोर्ट। अपनी तरफ से उन्होंने सोशल मीडिया पर भी इसके लिए कई तरह के लेख लिखे हैं। लेकिन कई उम्मीदवार खुलकर आना नहीं चाहते, उन्हें भय है कि आनेवाले सालों में भी यूपीएससी के आका उन्हे ब्लैकलिस्ट न कर दे।

Friday, August 27, 2010

रिलांयस-वेदांता कॉरपोरेट जंग और कांग्रेस का समीकरण

आपको मालूम है कि ये अनिल अग्रवाल कौन है ? मुकेश अंबानी और पी चिदंबरम वैसे भी किसी परिचय के मुंहताज नहीं हैं । इधर कुछ दिनों से जयराम रमेश भी याद करने लायक बन गए हैं। एक ग्लैमरस स्टोरी है जिसके ये अहम किरदार हैं। मधुर भंडारकर में अगर हिम्मत होती तो इसे जरुर पर्दे पर उतार देते और ‘कॉरपोरेट पार्ट टू’ बना देते। अब इस स्क्रिप्ट में राहुल गांधी की भी एंट्री हो चुकी है। राहुल गांधी ने नियामगिरी के उस पहाड़ी इलाके का दौरा किया है जहां बाक्साईट खनन का ठेका लेने में वेदांता को तगड़ा झटका लगा। राहुल गांधी ने खुलेआम कहा कि उन्ही की वजह से वेदांता को ये ठेका नहीं मिला और कि वे दिल्ली में आदिवासी हितों के एकमात्र पहरुआ हैं। आमीन।
चलिए अनिल अग्रवाल से शुरुआत करते हैं। उदार भारत के डालर अरबपतियों में दूसरे पोदान पर हैं ‘वेदांता रिसोर्स’ के मालिक अनिल अग्रवाल। साल 2009 में इनकी रैंकिंग पांचवी थी। यूं, मुकेश अंबानी से बहुत पीछे हैं लेकिन इनकी चमत्कारिक ग्रोथ रेट अंबानी के लिए यकीनन चिंता की बात होगी। अनिल अग्रवाल की जन्मस्थली पटना है । इस हिसाब से आप उन्हें पहला बिहारी डॉलर अरबपति भी कह सकते हैं! घनघोर किस्म के बिहारी चाहें तो अपना छाती चौड़ी कर सकते हैं! अग्रवाल ने पटना के मिलर स्कूल में पढ़ाई की जहां लालू प्रसाद यादव उनके सहपाठी हुआ करते थे। हाल ही में वो तब चर्चा में आए जब उन्होंने तेल और ऊर्जा के क्षेत्र की बड़ी कंपनी केर्न इंडिया पर 9।6 अरब डॉलर की बोली लगा दी।
अनिल अग्रवाल के पिता शहर पटना में एक छोटे से धातु कारोबारी हुआ करते थे जो बिजली विभाग के लिए एल्यूमिनियम का कंडक्टर बनाते थे। सन् ‘76 में अनिल अग्रवाल ने स्टरलाइसट इंडस्ट्रीज नाम की कंपनी बनाई जिसे धातु कारोबार के फील्ड में आसमान चूमना था। जी हां, ये वहीं स्टरलाइट थी जिसने बीजेपी के राज में बाल्को को भारत सरकार से खरीद लिया था। बाद में साल 1986 में अग्रवाल ने ‘वेंदांता रिसोर्स’ नाम की कंपनी की नींव डाली। साल 2002 में अग्रवाल ने हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड को भी खरीद लिया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
अनिल अग्रवाल और उनकी वेदांता पर भ्रष्टाचार और धांधली के कई आरोप लगे। बाल्को अधिग्रहण के वक्त भी और हाल ही में नियामगिरी हिल्स में बाक्साइट के खदान हथियाने की कोशिशों को लेकर भी। एन सी सक्सेना कमेटी ने वहां चल रही माईनिंग को अवैध करार दे दिया। वेदांत पर जमीन हड़पने, फर्जी दस्तावेजों के आधार पर लंजीगढ़ (उड़ीसा) में एल्यूमिनियम रिफाइनरी खोलने के आरोप लगाए गए। उन्होंने तमाम नियम कानून ताक पर रख दिया और ऐसा मीडिया मैनेज किया कि मुख्यधारा की मीडिया इस खबर को सिर्फ सूंघकर रह गई।

बहुत दिन नहीं हुए जब हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम वेदांता के एक डायरेक्टर हुआ करते थे। बाद में जब उन्हें गृहमंत्री बनाया गया तो अरुंधती राय ने कहा कि वे तो वेदांता के खनन हितों की सुरक्षा के लिए चौकीदार बने है। कई लोगों को अरुंधती सही भी लगी। बहरहाल, वेदांता उस वक्त विवादों में फंस गई जब उड़ीसा के नियामगिरी की पहाड़ियों में बाक्साइट के खदानों के लिए उड़ीसा सरकार हजारों आदिवासियों को उजाड़ने पर आमादा हो गई। पुनर्वास के बदले में आदिवासियों को 30 किलोमीटर दूर बने अपार्टमेंटनुमा मकानों में बसा दिया जाना था! लेकिन जिस दिन वेदांता ने केर्न इंडिया पर दावा ठोका, उसी दिन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वेदांता के नियामगिरी प्रोजेक्ट पर पानी फेर दिया। बहरहाल, तेज रफ्तार से दौड़ रहे अनिल अग्रवाल, जयराम रमेश के दिए घावों को सहला रहे हैं और अगले वार की तैयारी में है।
यहां पर कुछ पेंच है जिसे समझना जरूरी है। अनिल अग्रवाल जैसे लोगों ने दिल्ली समेत छोटी राजधानियों में डीलमेकरों का जो जाल बिछाया है उसमें कई बार आपस में ही टकराव हो जाता है। बीजेपी के राज में उनका काम मजे से चला और कांग्रेस में चिदंबरम उनके पुराने यार हैं। केर्न इंडिया को अगर वो खरीद लेते हैं तो वो उस स्थिति में आ जाएंगे, जहां से उनका टकराव मुकेश अंबानी की रिलांयस से होगा। इसलिए अब वो मुकेश की आंखों में चुभ रहे हैं। तेल रिफाइरनी के मामले में वो मुकेश अंबानी से पंगा ले रहे हैं तो बिजली के सुपर प्रोजेक्ट की घोषणा करके उन्होंने अनिल अंबानी को भी चुनौती दे दी है। अग्रवाल एक बार रिफाइनरी के धंधे में हाथ जला चुके हैं लेकिन पुराने इरादे खतम नहीं हुए हैं। अगले साल के शुरुआत में वे बिजली के 11 सुपर प्रजेक्ट के लिए कमर कस रहे हैं जिसमें हरेक कम से कम 4,000 मेगावाट का है। यहीं जाकर रिलांयस के दो दिग्गजों से उनका टकराव शुरू होता है।

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के अंदर के सत्ता समीकरण में चिदंबरम, मनमोहन सिंह और मोंटेक एक ‘कोटरी’ के हैं जो धुर उदारवादी माना जाता है। आप इसे कांग्रेस आलाकमान का कॉरपोरेट या उदार चेहरा(?) कह सकते हैं। दूसरी तरफ एक खेमा वो है जो पार्टी आलाकमान के हिसाब से पार्टी का समाजिक चेहरा बनना चाहता है। इसके नए अगुआ बने हैं दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और सीपी जोशी। ये कांग्रेस आलाकमान का समाजिक चेहरा है, बिल्कुल सौम्य, सरल और निश्चल! इस खेमे को ‘आम आदमी’ के ‘सरोकारों’ की सोते जागते चिंता रहती है। वो सरकार की कॉरपोरेट लॉबी के बरक्श हमेशा बयानवाजी करता है और जनता को आश्वस्त करता जाता है। सूत्रों की माने तो रिलांयस ने इसी खेमे को साधा है। इनके अलावा मुरली देवड़ा और रिलायंस के रिश्ते पर तो चर्चा होती ही रहती है। केर्न इंडिया को निगलने की फिराक में लगी वेदांता की बाक्साइट खदानों पर ताला जड़े जाने की घटना को इन संदर्भों में देखा जाना चाहिए। मजे की बात ये कि इधर जयराम ने वादांता के मनसूबों पर पानी फेरा और उधर राहुल गांधी, इस काम का श्रेय लेने नियामगिरी पहुंच गए। वैसे हमें याद है कि एक बार साल 1994 में तब के पर्यावरण मंत्री राजेश पायलट का रातोंरात तबादला कर दिया गया था जब उन्होंने चंद्रास्वामी से पंगा लिया था। लेकिन इस बार जयराम रमेश के पीछे मुकेश अंबानी खड़े हैं जिनकी कांग्रेस के बड़े नेताओं में आकंठ घुसपैठ है। इसलिए फिलहाल उनकी नौकरी सुरक्षित लगती है।

इधर जिस हिसाब से माओवाद के बहाने दिग्विजय सिंह, चिदंबरम पर निशाना साध रहे हैं उससे कई बार चिदंबरम की नौकरी खतरे में लगती दिखती है। जाहिर है, दिग्गी राजा का ये माओवाद प्रेम महज दिखावा है, खेल तो कहीं और से खेला जा रहा है। आधिकारिक तौर पर दिग्विजय सिंह की हैसियत बातौर कांग्रेस महासचिव यूपी के प्रभारी की है और वे राहुल गांधी के हाथ-पैर-नाक और मुंह भी हैं !
देखा जाए तो वेदांता जिस राह पर आगे बढ़ती हुई इस मुकाम पर पहुंची है, लगभग रिलांयस ने भी वहीं तरीका अपनाया था। धीरुभाई अंबानी हों या उनके सुपुत्र अंबानी बंधु-उन्होंने कारोबार में आगे बढ़ने के लिए हर उपलब्ध तरीका अख्तियार किया। ऐसे में ये कॉरपोरेट वार किस मंत्री को हलाल करेगा ये आगे देखने वाली बात होगी।

दुर्भाग्य से हम एक ऐसे युग के गवाह हैं जहां ठेकेदारों, दलालों और खनन माफियाओं ने सरकार पर कब्जा कर लिया है। हिंदुस्तान में आर्थिक सुधार(?),खान माफियाओं का उदय, आदिवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन और माओवाद के उदय का कालक्रम लगभग एक ही है। इस हिसाब से आप कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं को अनिल अग्रवाल और अंबानी बंधुओं का लघु रूप मान सकते हैं। दुनिया के विशालतम लोकतंत्र में आपका फिर भी स्वागत है! चलिए कॉमनवेल्थ गेम्स में अतिथियों का स्वागत करें !

Wednesday, August 18, 2010

चट्टान दरकी भर है...टूटी नहीं है...!

लालू-पासवान के बीच डील पक्की होने के बाद बिहार में समीकरण के हिसाब से अब लड़ाई कांटे की हो गई है। लालू प्रसाद ने माय प्लस दलित प्लस राजपूतों का एक जुझारु, मजबूत और आक्रामक गठबंधन बनाया है और माय समीकरण की आक्रामक वोटिंग के लिए खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया है। कुल मिलाकर लालू यादव के पाले में लगभग 45 फीसदी जातियों का मजबूत समीकरण है जो नीतीश के लिए बड़ी चुनौती बनकर ताल ठोक रहा है।

इधर मौसमी पंछियों ने उड़ान भड़नी शुरु कर दी है। अभी नीतीश के पाले से कुछ उड़े हैं, बाकी लालू के पिंजड़े से उड़ने को बेताब हैं। पिछले साढ़े चार सालों की तेजड़िया उछाल के बाद अचानक सुशासन बाबू की लोकप्रियता जरुर दरकी है । मुख्यमंत्री पर तानाशाही के आरोप तो पहले से ही लगते थे लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार के भी कई आरोप लग गए। इधर नीतीश के अपने ही नेता शरद यादव की वक्रदृष्टि उनपर पड़ गई। वैसे मामला अभी रफा दफा कर दिया गया है। ऊपर से सब शांत है, मुद्दा अगले चुनाव जीतने का है।

लालू ये जानते हैं कि कांग्रेस इस बार उनके मुस्लिम वोट बैंक में बड़े पैमाने पर सेंध लगाने की जुगत में है। ऐसा कांग्रेस ने बिहार में एक मुसलमान नेता को सरदारी सौंप कर अपनी मंशा जता भी दी है। दूसरी बात लालू ये भी जानते है कि कांग्रेस चुनाव में बड़े पैमाने पर धनवल का प्रयोग करेगी ताकि लालू के पाले से कम से कम आधे मुसलमानों को खींच कर लाया जा सके और आरजेडी की नैया को कोसी में डुबा दिया जाए।

लेकिन लालू की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती। अब कांग्रेस उनके यादव वोट बैंक में भी सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में यूं यादव बहादुरों-पप्पू और साधुओं ने कोई विशेष कमाल नहीं दिखाया था लेकिन कांग्रेस को फिर भी कई अपेक्षाकृत साफ सुथरे यादवों पर भरोसा है। इधर कांग्रेस ने बिहार यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी एक यादव कुंअर की बहाली कर दी है। दूसरी तरफ झंझारपुर से कई दफा सांसद रह चुके देवगौड़ा सरकार में पूर्व मंत्री देवेंद्र यादव पर भी वो डोरे डाल रही है। देवेंद्र से कांग्रेस की कई दफा वार्ता हो चुकी है लेकिन देवेंद्र यादव भी कम चतुर नहीं है। वे एक ही साथ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस- दोनों से तार जोड़े हुए हैं। वे चाहते हैं कि अगर लालू का अवसान होता है तो पूरे बिहार के यादव उन्हे अपनी सरदारी सौंप दें ! दांव जरा ऊंचा ही लगा दिया, 2014 तक की बेरोजगारी बैचेन जो किए हुए है !

खैर मामला जो भी हो , इससे संभावित नुकसान लालू का ही है। हां, उनको एक जगह जहां फायदा होता नजर आ रहा है वो ये है कि बिहार में राजपूतों का ज्यादातर वोट आरजेडी के पाले में आएगा, लेकिन देखना ये है कि कांग्रेस कितना उसका डैमेज करती है। लालू यादव के साथ बड़ी दिक्कत ये है कि उनका भूत अभी भी जिंदा है। लालू यादव अपनी पुरानी छवि से मुक्त नहीं हो पा रहे, और यहीं नीतीश की सबसे बड़ी ताकत है।

इधर मौसमी पंछियों ने पाला बदलना शुरु कर दिया है। प्रभुनाथ सिंह के आरजेडी ज्वाईन करने के बाद अब लल्लन सिंह कांग्रेस का दामन थामने वाले हैं। इधर देवेंद्र यादव, कांग्रेस और सपा दोनों कंपनियों में इंटरव्यू दे आए हैं। लोगबाग कहते हैं राजपूतों की कमी के इस युग में सुशासन बाबू भी कुछ राजपूत नेता आयात करेंगे। अफवाह है कि आरजेडी सांसद जगदानंद सिंह से उनकी एक राउंड बात भी हो गई है। इधर अपने बच्चों को देहरादून में पढ़ा रहे आनंदमोहन को भी सितारों पर यकीन हो चला है। पंडितों की इकलौती दुकान महामहोपाध्याय प्रात:स्मरणीय जगन्नाथ मिश्रा ने फिर से खोल ली है और नीतीश बाबू ने उन्हें एक एमबीए स्कूल की चेयरमैनी सौंप दी है! लेकिन इसका खतरा ये है कि पिछले चालीस साल से मिसिरजी के तमाम राजनीतिक विरोधी(इसमें पंडितों की तादाद खासी है!) चौंकन्ने हो गए हैं और ब्राह्मणों के इस स्वयंभू लास्ट मुगल को जिंदा नहीं होने देने की कसम खा रहे हैं।

बिहार में चुनाव को सिर्फ विकास केंद्रित मान लेने की बात फालतू लगती है। लोग विकास की चर्चा तो करते तो हैं लेकिन वोट देते वक्त जातीय समीकरण ज्यादा अहम हैं। नीतीश बाबू ने करीने से एक समीकरण बनाया है। मामला 50-50 का न सही, 55-45 का जरुर है। आनेवाले कुछ सप्ताहों में गोलबंदी और साफ हो जाएगी। वैसे नीतीश चाहते हैं कि चुनाव खंडित ही हों। उनका फायदा इसी में है।

पिछले 63 सालों में बिहार में किसी ने मीडिया को मैनेज किया है तो उसका नाम है नीतीश कुमार। यूं, ऐसा करके उन्होंने अपने आंखों पर खुद ही पट्टी बांध ली है। उन्हें अपने विरोध के स्वर कम ही सुनाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो ‘अंडरकरेंट’ की बात कर रहे हैं। कईयों का मानना है कि नीतीश का हाल कहीं 2004 के एनडीए जैसा न हो जाए। हलांकि लालू यादव की पुरानी छवि यहां भी नीतीश का तारणहार बनती हुई नजर आती है !

व्यक्तिगत छवि के मोर्चे पर अभी भी नीतीश मजबूत दिखते है। घोटालों के ताजा आरोपों ने लोगों लोगों के कान तो जरुर खड़े किए हैं लेकिन उसका घनघोर विरोध में कितना परिवर्तन हुआ है इसका सही आकलन किसी के पास नहीं। सुशासन बाबू सिर्फ एक ही बात से चिंतित लग रहे हैं कि कहीं कांग्रेस ज्यादा सवर्णों को टिकट न बांट दे। कुल मिलाकर नीतीश कुमार का नंबर पांच साल पहले के मुकाबले कमजोर जरुर हुआ है लेकिन अभी भी उन्हे खारिज मान लेना जल्दवाजी होगी।

लेकिन उससे भी अहम बात ये कि लालू ने अपनी दावेदारी पेशकर नीतीश को वाक ओवर दे दिया है...लालू का वोटर फिक्स था, नीतीश का बिखरा हुआ था..अब लालू के इस कदम से नीतीश का वोटर भी फिक्स हो गया है...लालू का ये कदम इस इनसेक्यूरिटी कम्प्लेक्श में उठाया गया लगता है कि कहीं यादव भी न बिखर जाए...इसके आलावा लालू की दावेदारी का कोई मतलब नहीं है...लालू, लड़ाई से पहले नतीजे का ऐलान कर चुके लगते हैं.....!

Friday, August 13, 2010

आनेवाले वक्त के लोग हैं ये...

धीरेंद्र सिंह रायबरेली में रहते हैं और एक व्यावसायिक कोर्स में डिप्लोमा कर रहे हैं। वे जब भी कोई पत्र-पत्रिका खरीदते हैं या दोस्तों के घर उन्हें कोई पुरानी पत्रिका मिलती है तो उसे वे जमा कर लेते हैं और गांव जाकर बच्चों में बांट देते हैं। उनका मानना है कि पत्रिकाएं या पुरानी किताबों को कबाड़ी के हाथों बेचने से अच्छा है कि कोई उसे पढ़ ले। आगे चलकर वे इसे संस्थागत रुप देना चाहते हैं और एक एनजीओ भी बनाना चाहते हैं। लखीमपुर खीरी के कृष्णकुमार मिश्र पेशे से प्राथमिक स्कूल में अध्यापक हैं और वाईल्ड लाईफ कंजर्वेशन उनकी दीवानगी है। उनके जिले में ही दुधवा नेशनल पार्क है जहां वे बिली अर्जन सिंह के संपर्क में आए। एक मित्र की सलाह पर उन्होंने इसे और भी संगठित रुप दिया और उन्होंने दुधवालाईव डॉट कॉम नामके एक वेबसाईट की शुरुआत की जो हिंदी में इस तरह की हिंदी में अपने आप में पहली पहल थी। आज मिश्र इस अभियान को और भी आगे बढ़ाने की बात सोच रहे हैं और एक त्रैमासिक लघु पत्रिका की शुरुआत का इरादा बना रहे हैं। ऐसी ढ़ेरों कहानियां है जो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं जिन्हें लोगों ने महज अपनी पहल पर शुरु किया है और वे जागरुकता के एक प्रतीक बन गए हैं। दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी) के छात्र रहे अंशु गुप्ता ने जब दिल्ली की सड़कों पर गरीब लोगों को भीषण ठंढ से कराहते देखा तो उनकी अंतरात्मा को ये गवारा नहीं हुआ। बस फिर किया था, गुप्ता ने अपनी क्लासमेट मीनाक्षी के साथ- जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी भी बनी- मिलकर गूंज नामका एक एनजीओ बनाया जो लोगों से उनके पुराने गरम कपड़े डोनेशन के रुप में लेता है और गरीब लोगों में मुफ्ता बांटते हैं। अंशु ने तमिलनाडू में आए सूनामी के वक्त भी अच्छा काम किया।


येकहानियाँ हमें क्या बताती हैं ? ये ऐसे लोग हैं जो कल के लीडर हैं और इन्होंने अपने अंदर के लीडरशिप की उर्जा को बखूबी पहचाना है और उसे साकार रुप देने की कोशिश की है। ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने व्यक्तिगत काम के अलावा भी कुछ करने का जज्वा जिंदा रखा है अपनी अलग राह बनाई है। ये कहांनिया हमें बताती हैं कि लीडर के पास हमेंशा एक एडवांस एजेंडा होता है और वे कभी खाली नहीं होता। वे हमेशा इनिशिएट करते हैं। गांधीजी की जब हत्या हुई तो उससे पहले वो बांग्ला सीख रहे थे और सीखने के काफी करीब पहुंच गए थे। गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, ' हे अर्जुन कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर, क्योंकि फल तो तुम्हारे हाथ में ही नहीं है। इसी तरह लीडर जो होते हैं वे तो बस कर्म किए जाते हैं भले ही लोग उस पर कुछ भी प्रतिक्रिया क्यों दें। वे जो चीज एक बार ठान लेते हैं फिर वे उससे पीछे नहीं हटते। वे क्विक डिसीजन लेते हैं और एक बार जब ले लेते हैं तो उस पर चट्टान की तरह खड़े रहते हैं। कार्ल मार्क्स ने कहीं लिखा है कि मध्यम और निम्नवर्ग के लोग कई बार इसलिए माता खा जाते हैं कि वे तेजी से फैसला नहीं ले पाते, जबकि इसके उलट उच्चवर्ग के लोगों में ये गुण तकरीबन अनुवांशिक रुप ले चुका होता है और वो कम काबिलियत के बावजूद कई बार कामयाब होते हैं। कहने का मतलब ये है कि एक लीडर को हमेशा क्विक डिसीजन लेना चाहिए और उसे किसी डाइलेमा का शिकार नहीं होना चाहिए। ऐसा देखा गया है कि लीडर अतीतजीवी नहीं होते। वे अतीत से सिर्फ सीखते भर हैं, उसकी ओर कभी लौटते नहीं। वे बड़ी बेदर्दी से अतीत को अपनी जिंदगी से काट फेंक देते हैं। महाभारत में अगर कृष्ण के जीवन को गौर से देखें तो कृष्ण का चरित्र पूरी तरह से एक लीडर का चरित्र है। कृष्ण, गोकुल से जब मथुरा आए तो फिर वे कभी लौटकर गोकुल नहीं गए। वे उस यशोदा को भी बड़ी बेदर्दी से भूल गए जिन्होंने उन्हें पाला था। मथुरा को एक बार छोड़ा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। हस्तिनापुर की राजनीति में जब वे सक्रिय हुए तो बहुत दिनों तक द्वारका को भूल गए। कुल मिलाकर उनका तयशुदा काम ही उनकी पूजा थी। वे उसे डूबकर करते थे। एक लीडर के लिए कमिटमेंट और फोकस बड़ी चीज है। कहते हैं कि चर्चिल जब रिटायर हो गए तो वे गुलाब की बागवानी में डूब गए। एक पत्रकार ने जब उनसे राजनीति पर बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि बेहतर है कि गुलाब पर बात की जाए। कहने का मतलब ये कि लीडर अपने काम में फोकस्ड होता है।

दूसरी अहम बात ये कि लीडर जो भी करता है वे उसका अपना नहीं होता, वो एक बड़े काउज के लिए करता है। अक्सर इसिलिए एक लीडर की जाती जिंदगी बहुत अच्छी नहीं होती। ये बात गांधी से लेकर लेनिन तक पर लागू होती है। अहम बात ये भी है कि एक लीडर प्रतिभाओं को बखूबी पहचानता है। वो हर घड़ी सही टैलंट को ग्रूम करने की कोशिश करता है और सेंकेंड जेनेरेशन लीडरशिप तैयार करता है।
कहते हैं कि लीडर हमेशा जन्मजात होता है। लेकिन ऐसा नहीं है। लीडरशिप की क्वालिटी कमोवेश हरेक इंसान में होती है, बस उसे ग्रूम करने की जरुरत होती है। कुछ परिवेश का असर तो कुछ शैक्षणिक माहौल भी इसमें अहम रोल निभाते हैं लेकिन अगर सही गाईडेंस मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाता है। तो चलिए, हम आज ही अपने अंदर के लीडर को पहचानते हैं और बन जाते हैं कल के हिंदुस्तान की आवाज। आखिर कहाबत है न...कि गरते हैं शहसबार ही मैदाने जंग में।

Wednesday, August 4, 2010

‘कॉमनवेल्थ’ के बाद अब ‘बुलेट ट्रेन’…तमाशा जारी है...!


क्या आपको बुलेट ट्रेन पर चढ़कर तीन घंटे में पटना पहुंचने की इच्छा नहीं होती ? कितना अच्छा लगेगा अगर आप 5,000 रुपया किराय अदा करें और एक उपन्यास पढ़ते हुए या सल्लू मियां की कोई फिल्म देखते हुए पटना पहुंच जाएं। वहां आपके इंतजार में कोई शॉफर ड्रिवने गाड़ी हो, जो आपको अपनी कोठी तक छोड़ आए ! और हां, ख्याल रहे कि आप अगर फिल्म देखने के बदले कोई उपन्यास या मैगजीन पढ़ते हुए जाएं तो वो खालिस अंग्रेजी की हो। तभी तो आप एक डिजाइनर हिंदुस्तानी (बिहारी नहीं) लगेंगे। आपकी चिंता बहुत जल्दी ही दूर होने वाली है। आपकी ये चिंता दिल्ली में बैठे हुए कुछ लोगों का गिरोह, जिसे सरकार कहते हैं बहुत जल्द दूर करने वाली है। अब ये मत पूछिए कि इसमें खर्च कितना आएगा। वो सब समझना आपके औकात की बात नहीं है। वैसे इस तरह के ट्रेन में चढ़ना भी आपके औकात के बाहर ही है, लेकिन मुगालता पालने में क्या हर्ज है ?

अब देखिए, ये जो हमारी सरकार बहादुर है न, वो आपको किस तरीके से बुलेट ट्रेन देगी। वो आपको नरेगा में काम देती है, बीपीएल को अनाज देती है-देती है कि नहीं ? तो उस सरकार बहादुर को अब इस बात की शर्म आने लगी है कि चीन जैसे देश में जब बुलेट ट्रेन दौड़ सकती है, तो हमारे यहां क्यों नहीं। माना कि हम उनके जैसे ओलंपिक नहीं करवा सके हैं, लेकिन कॉमनवेल्थ करवाने जा रहे हैं कि नहीं ? आप सच-सच बताईये, आपको कॉमनवेल्थ से खुशी हो रही है कि नहीं ? आपका दिल बल्लियों उछल रहा है कि नहीं..! जरुर उछल रहा होगा, आप शरमा रहे हैं, इसीलिए नहीं बोल रहे हैं।

अब देखिए, दिल्ली से पटना है मात्र 1000 किलोमीटर। अब 500-600 करोड़ रुपये किलोमीटर के हिसाब से पटरी बिछा भी दी जाए(जो शर्तिया प्रोजेक्ट के बनने तक 1500 करोड़ रुपये प्रति किमी हो जाएगी) तो कितना बजट आएगा ? सही जोड़ा आपने(हिंदुस्तानी इसलिए अच्छा इंजिनियर बनते हैं), ये खर्च आएगा मात्र 5 लाख करोड़ रुपये। अरे जनाव, ये भी कोई खर्च है ? 12 लाख करोड़ का तो अपने सरकार बहादुर का खर्च है, डेढ़ लाख करोड़ सेना खा जाती है, 1 लाख करोड़ हम ‘खेल’ में खर्च कर सकते हैं तो इतनी रकम बुलेट ट्रेन में क्यों नहीं। अरे, कुछ पैसा विदेशों से ले लेंगे, कुछ जनता पर सरचार्ज लगा देंगे, बस खेल खतम।

क्या कहा, इतने पैसे में सबको शिक्षा और स्वास्थ्य मिल जाएगी ? अरे महाराज, लोगों को एक ही दिन में थोड़े पढ़ाना है और तंदुरुस्त बनाना है ? और फिर आबादी भी देखिए, 120 करोड़ होने वाले हैं। अभी बुलेट पर चढ़िए। बाद की बाद में देखी जाएगी।

क्या कहा, ये ठेकेदारों, दलालों और नेताओं का प्रोजेक्ट है ? आप पागल तो नहीं हो गए ? क्या आपको बैलगाड़ी के युग में ही रहना है ? 21वीं सदीं में नहीं जाना आपको ? जरुर इसमें विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है जो जनता में गलत-फलत संदेश फैलाते हैं कि उच्च तकनीक से देश का बुरा होगा। अरे आप सोचिए, कि हमारा देश विश्वस्तरीय बन रहा है, हमारे पास एटम है, मिसाईल है, साफ्टवेयर है, क़ॉमनवेल्थ है, मेट्रो है, फिर बुलेट से आपको क्यों खुजली हो रही है ?

अरे, आप क्या बकवास कर रहे हैं ? 15 अगस्त को परेड देखकर आपको खुशी नहीं होती ? मंत्रियों के बड़े बंगले और लंबी गाडियां देखकर आपको खुशी नहीं होती? अंग्रेजों के जमाने में थी अपने लोगों के पास ऐसी कोठियां ? तो पैसा तो इसमें भी खर्च होता है न...फिर बुलेट ट्रेन से तो देश का गौरव बढ़ेगा, आप मान भी जाईये। अब ठीक है ये ठेकेदार या नेता भी तो अपने ही भाई बंधु है, घी कहां जा रहा है तो दाल ही में न...! क्या कहा, स्विस बैंक…हम आपको आश्वासन देते हैं कि कमीशन या घूस की कोई रकम हम स्विस बैंक नहीं जाने देंगे। हम सीधे आपके लिए सरकार से बात करेंगे। अब तो खुश !

Thursday, July 29, 2010

सफदरजंग के बहाने...

हाल ही में सफदरजंग अस्पताल के चक्कर काटने को मजबूर होना पड़ा। इससे पहले मैंने किसी बड़े अस्पताल का चक्कर नहीं काटा था। जब तक दिल्ली नहीं आया था तब तक बिहार में अपने घर के आसपास क्लिनिक या नर्सिंग होम से ही काम चल जाता था, लेकिन दिल्ली की बात और थी। यहां अस्पताल का मतलब कुछ और ही है, प्राईवेट में इलाज करवाना तो ज्यादातर लोगों के बूते की बात ही नहीं। यूं, दिल्ली के बारे में माना जाता है कि यहां देश के कुछ बेहतरीन अस्पताल हैं, जो काफी हद तक सही बात भी है। लेकिन वे अस्पताल काम के बेतहाशा बोझ के तले चरमरा रहे हैं। एम्स या सफदरजंग जब बना होगा तो उस समय की आबादी को ध्यान में रखकर इसे खासा बड़ा अस्पताल कहना चाहिए। लेकिन आज का हिंदुस्तान जब अपनी आबादी को करीब 120 करोड़ तक आंकने को बैचेन है-सफदरजंग मानो कराह रहा है।

हजारों की भीड़, लोगों का रेलमपेल, डॉक्टरों और नर्सों के चेहरे पर तनाव और उनके व्यवहार में चिड़चिड़ापन, सफदरजंग की मानो खासियत बन गई है। देश के सुदूरवर्ती इलाकों से आए लोग, बुंदेलखंडी से लेकर मैथिली तक बोलते हुए आपको सफदरजंग के कैम्पस में मिल जाएंगे। वे अपने मरीज के साथ एक बड़ी उम्मीद में यहां आते हैं और अस्पताल के कैंम्पस में दरी या चादर बिछाकर सो जाते हैं और अचानक कभी बारिश आती है और सब उठकर अस्पताल के अहाते में जाकर खड़े हो जाते हैं।

सफदरजंग सरकारी अस्पताल है, बिल्कुल वैसा ही जैसा कोई सरकार अस्पताल होता है। लेकिन राजधानी में होने की वजह से और सरकार का एक प्रतिष्ठित अस्पताल होने की वजह से इसका काम काफी चाक चौबंद है। मरीजों को मुफ्त का इलाज और दवाईयां तो मिलती ही है-खाना भी ठीक ठाक मिलता है। मैं जिस मरीज के साथ आया था उसे अगर किसी निजी अस्पताल में इलाज करवाने ले जाता तो खर्च कम से काम लाख टके से ऊपर का आता, लेकिन सफदरजंग में एक अठन्नी तक खर्च नहीं हुआ। ये देखकर मैं शायद पहली बार अपनी सरकार से नाराज नहीं हुआ। मुझे लगा कि मेरे मुल्क में एक सरकार भी है जो कभी-2 कुछ काम भी कर लेती है।

सफदर जंग में एक शानदार मेडिकल कॉलेज भी बनकर तैयार है और (कुछ लोगों के मुताबिक) हिंदुस्तान का सबसे बड़ा बर्न युनिट भी यहीं है। बगल में जयप्रकाश नारायण ट्रोमा सेंटर है और अस्पताल के पूरब में गर्व से इठलाता हुआ एम्स।

सरकार के इस अस्पताल में लोगों की रेलमपेल के बावजूद मुफ्त का इलाज देखकर मुझे कुछ पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र याद आ गए जिसमें जनता को मुफ्त की स्वास्थ्य और शिक्षा सेवा मुहैया करवाने की बात अक्सर की जाती है। वैसे तो क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी सभी पार्टियों ने स्वास्थ्य के बारे में काफी जबानी जमा-खर्च की है लेकिन मुझे लगता है कि वाम पार्टियां इस बारे में ज्यादा गंभीर है। मेरे दोस्त राजीव का छोटा भाई सुमित हाल ही में कलकत्ता से इंजिनियरिंग करके लौटा है उसका भी यहीं कहना है कि बंगाल के गांवों में सरकारी अस्पतालों की हालत काफी अच्छी है। बिहार-यूपी में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। इधर सुना नीतीश बाबू भी कुछ सक्रिय हुए हैं। केरल में भी सुना कि सरकारी अस्पताल टनाटन है।

मेरा ध्यान अचानक सफदरजंग की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर जाता है जिसमें कर्मचारी यूनियन के एक धरने का जिक्र है। इसमें कहा गया है कि सफदरजंग को दिल्ली से झझ्झर(हरियाणा) न ले जाया जाए और इसकी जमीन को निजी हाथों में बेचने का षडयंत्र न किया जाए। मैं अचानक चौंक उठता हूं। सफदरजंग अस्पताल जिस जमीन पर बना है कायदे से दिल्ली के हिसाब से उस जमीन की कीमत करीब 20,000 करोड़ से कम नहीं होनी चाहिए। तो क्या सरकार इसे किसी अंबानी या टाटा को सौंपने वाली है ? मेरा मन बैचेन हो उठता है। दूसरी बात ये कि इसे हरियाणा शिफ्ट करने का मतलब होगा कि यूपी, बिहार और एमपी से आए उन हजारों लोगों की परेशानियों में एक और इजाफा जो दिल्ली में अपने कई रिश्तेदारों के होने की वजह से सफदरजंग में इलाज करवाने आ जाते हैं और अपने रहने का इंतजाम भी कर लेते हैं। झझ्झर में उन्हें कौन अपने घर में रहने देगा?

अचानक लखीमपुर खीरी से मेरे मित्र के के मिश्रा का फोन आता है, मैं उन से बात करता हूं। वे कहते हैं कि सुशांत, खीरी में भले ही मैं कार मेनटेन कर लूं लेकिन मेरे जैसे लाखों हिंदुस्तानियों की औकात नहीं है कि वे निजी अस्पताल में लाखों की रकम चुका कर इलाज करवाएं।

तभी अचानक किसी अखबार में मणिशंकर अय्यर के बयान पर नजर जाता है वे कॉमनवेल्थ गेम्स को कोस रहे हैं। मैं उनकी राय से इत्तेफाक रखने लगता हूं। आखिर इस गेम के नाम पर 50,000 करोड़ रुपैया किसकी जेब से खर्च हो रहे हैं ? और क्यों ? इतने रुपये में तो सफदरजंग जैसा करीब 50 सफदरजंग मुल्क के 50 जिलों में जरुर बन सकता था। हमारी सरकार ठेकेदारों और दलालों के चंगुल में फंस गई है जो भव्य खेलों का आयोजन करवाकर मेरा खून पी रही है।

मैं सोच रहा हूं कि अगर वाकई सफदरजंग को कहीं और शिफ्ट कर दिया गया और इसकी जमीन कॉरपोरेट घरानों को दे दी गई तो अगली बार मेरा कोई रिश्तेदार या खुद मैं ही-कर्ज लेकर कहीं इलाज करवा रहा होउंगा।

बगल की दीबार पर सफदरजंग के एक स्टॉफ का बेशर्म इश्तेहार पोस्टर में खिलखिला रहा है-कृपया दो बीएचके का स्टॉफ क्वाटर किराए के लिए उपलब्ध है, संपर्क करें। आमीन!

Sunday, July 4, 2010

बी हैप्पी...बी पोजिटिव...

क्या आपने कभी महसूस किया है कि अचानक कोई आता है और आपका चेहरा खिल उठता है, जबकि कुछ लोगों के आते ही आप नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं ! कई बार तो ऐसा होता है कि कई लोगों के जिक्र भर करने से, आप अपने आप को खिला हुआ महसूस करते हैं भले ही आप उससे न मिले हों! अध्यात्म और मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो कुछ लोग पोजिटिव इनर्जी लेकर आते हैं और आपको एक पोजिटिव फीलींग से भर देते हैं जबिकि दूसरी तरफ कुछ लोग हमेशा निगेटिव इनर्जी ही छोड़ते रहते है। वे हमेशा दुख ही बांटते रहते हैं और सामने वाले को भी दुखी कर जाते हैं। दरअसल, निगेटिव इनर्जी बांटने वाले को लोग पसंद नहीं करते और उनसे बचना भी चाहिए। वे दुनिया की ऐसी भयावह तस्वीर आपके सामने खींचते हैं कि आपका आत्मविश्वास तो कमजोर होता ही है साथ ही आप भी निगेटिविटी से भर जाते हैं। ऐसे लोगों को लोग पसंद नहीं करते हैं और उनसे कन्नी काटने की कोशिश करते हैं।

अपने आसपास रहने वाले ऐसे लोगों को आप आसानी से पहचान सकते हैं। आप उनके कुछ बयानों पर महज गौर करते रहिए। मेरा टाईम ही खराब है... मैं ये नहीं कर सकता...ये कैसे हो सकता है...पूरी दुनिया स्वार्थी हो गई है...ये कुछ ऐसे बयान है जो बताते हैं कि सामने वाले की सोच कैसी है। ऐसे लोग अक्सर निंदा पुराण में भी खासी दिलचस्पी रखते हैं। इसको जानने का दूसरा तरीका ये भी है आप ये गौर करिये कि सामने वाला बंदा जिन-जिन लोगों का जिक्र कर रहा है वो उसके कैरेक्टर के किन पहलूओं को उजागर कर रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि कुछ लोगों को दुनिया के किसी भी इंसान में कोई अच्छाई नहीं दिखाई देती। ऐसे लोगों से भी बचने की जरुरत है।
दरअसल, ये दुनिया अच्छाई और बुराई का मिला-जुला रुप है। पोजिटिव सोच वाले लोग अक्सर लोगों की अच्छाईयों की बात करते हैं, वे उनमें कुछ सीखने लायक चीज खोजते हैं। जबकि निगेटिव सोच वाले लोग अपने दिमाग का पोजिटिव रिशेप्टर ही बंद करके रखते हैं।

दरअसल, पोजिटिव इनर्जी वाला इंसान ही लीडरशिप एबलिटी पाल सकता है। वो उम्मीदें जगाता है, सपने दिखाता है और उसे पूरा करने का रोडमैप तैयार करता है। ऐसा ही इंसान टैलेंट को पहचान सकता है और उसे बढ़ावा भी दे सकता है। लेकिन यहां एक सवाल ये भी है कि मान लीजिए कोई निगेटिव इनर्जी से भर ही गया है तो क्या किया जाए ?

निगेटिविटी के कई कारण हो सकते हैं। व्यक्ति विशेष का पारिवारिक-सामाजिक माहौल, उसकी अपब्रिंगिग और उसको मिलने वाला गाईडेंस का इसमें रोल तो होता ही है, लेकिन उससे भी बड़ा रोल होता है उसे अपने जिंदगी में मिलने वाली नाकामयाबियों का।

अक्सर नाकामयाबी को लोग एक चुनौती की तरह नहीं लेते-वे उसे जिंदगी का अंत मान लेते हैं। दरअसल, ये दुनिया हमारी बदौलत नहीं चलती, हां हम उसे थोड़ा बेहतर बनाने में अपना योगदान जरुर दे सकते हैं। निगेटिविटी से भरे लोगों को चाहिए की वे हमेशा इनगेज रहें। खालीपान, निगेटिव उर्जा को और भी ज्यादा बढ़ाता है। निगेटिविटी से भरे लोग समाज से कटने लगते हैं, उन्हे लगता है कि उनके पास बांटने को कुछ भी नहीं है। जबकि ऐसे वक्त लोगों को नए-नए लोगों से मेलजोल की सबसे ज्यादा जरुरत होती है।
ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलने और बात करने पर कई तरह के अनुभव, विचार और मौके सामने आते हैं। सच्चाई तो ये है कि कोई काम तभी हो पाता है जब दो आदमी मिलते हैं। ऑनलाईन या टेलीफोनिक मीटींग्स से ज्यादा जरुरी वन-टू वन मीटिंग होता है क्योंकि तभी लोग आपकी पूरी परसनाईल्टी से वाकिफ हो पाते हैं।
इसके अलावा, दुनिया के कामयाब लोगों की बायोग्राफीज भी निगेटिव उर्जा से मुक्त होने में मददगार साबित होती है जिन्होंने खाक से उठकर आसमान को छुआ है। परिवार के लोगों और दोस्तों का प्रोत्साहन ऐसी दशा में बहुत मददगार साबित होता है।

तो चलिए, हम आज ही तय करें कि अपने को पोजिटिव इनर्जी से भरपूर बना लें। अगर हमें सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट, खेतों में काम करते किसानों की मुस्कुराहट और मेहनतकश लोगों के चेहरों में कोई उम्मीद नजर आती है तो यकीन मानिए कि हम पोजिटिव इनर्जी से लवरेज हैं। बस हमें करना ये है कि इस पोजिटिव इनर्जी को बांटने में कोई कंजूसी नहीं करनी है। फिर देखिए जिंदगी किस तरह आगे बढ़कर आपका हाथ थाम लेती है!

(यह लेख आई नेक्स्ट में छप चुका है)

Tuesday, June 22, 2010

भोपाल नरसंहार पर...काफी देर बाद...

एक शहर को जिंदा गैस चैंबर में भून डालने के बाद भी कुछ सवाल जिंदा हैं। न्यूज चैनल स्टूडियों में बैठे देश के दोनों बड़े दलों के प्रवक्ता या तो जनता की असहायता के प्रतीक लगते हैं या फिर अपनी हरमजदगी के विज्ञापन करते मॉडल। सवाल ये भी नहीं है कि ओबामा ने ब्रिटिश पेट्रोलियम से 20 अरब डॉलर की रकम कैसे निचोड़ ली या फिर हमारी सरकार ने इतने कम पैसे पर कैसे यूनियन कार्बाइड को क्लीन चिट दे दी। किसी सरकारी लालबुझक्कड़ ने कहा कि भोपाल के न्यायाधीश ने अपने फैसले के दिन महज नियम-कायदों के हिसाब से ही अभियुक्तों को इतनी कम सजा दी। मानो इसका तो कुछ किया ही नहीं जा सकता। सरकार ने हमेशा की तरह जनता के आक्रोश को देखते हुए एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर बना दिया, जो अनंत काल में अपना फैसला सुनाएगी। तब तक शायद एंडरसन भी मर चुका होगा और महिंद्रा भी।

अब चूंकि सरकार को इस बात का बिलकुल डर नहीं है कि 5-10 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर कर साउथ ब्‍लॉक को घेर सकते हैं या इसमें कथित रूप से शामिल नेताओं और उनके नामलेवाओं को घर में घेरकर मारा जा सकता है – तो सरकार क्यों कोई कार्रवाई करेगी। जब पिछले 26 साल से कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ तो अब खाक होगा। सरकार ये जानती है।

लेकिन सवाल ये है कि क्या भोपाल महानरसंहार के जिंदा भारतीय दोषियों को सजा दिलाने के लिए संसद कानून में संशोधन नहीं कर सकती? इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता को जब सुप्रीम कोर्ट में रद्द दिया गया था तो याद कीजिए क्या हुआ था। इंदिरा गांधी जो खुद ही सरकार थी – उन्होंने रातोरात संविधान में संशोधन कर अपने आपको उस फैसले से ऊपर कर लिया था। यानी वैसे तो भारत की सरकार ‘महासरकार’ है लेकिन अमेरिका का मामला होता है तो पिद्दी हो जाती है। लेकिन फर्ज कीजिए, सरकार हिंदुस्तान में सुकून की जिंदगी जी रहे भोपाल नरसंहार के शरीफजादों को कोई सजा देती है, तो अमेरिका को क्यों खुजली होगी? उसे तो सिर्फ एंडरसन से मतलब है, जिसका मामला उसने रफा-दफा मान लिया है। लेकिन नहीं, सरकार महिंद्रा टाइप के भारतीय गुनहगारों को कोई सजा नहीं देगी। आप और हम जब अपने-अपने ऑफिसों में महिंद्रा के बंधु-बांधवों की कंपनियों में खट रहे होंगे तो लगभग पौरुषहीन हो चुका महिंद्रा किसी कोमलांगी की बाहों में झूल रहा होगा और उसका पोता किसी जेसिका लाल जैसियों की हत्या कर रहा होगा।

मजे की बात ये है कि आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद किसी ने अभी तक अर्जुन सिंह या स्वर्गीय हो चुके राजीव गांधी या फिर बीच के सालों में बीजेपी के कुर्सीधारी नेताओं की भूमिका की जांच करने की मांग नहीं की है। क्यों न इन लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए। सारे लोग ‘बड़े लोगों’ को बचाते हुए ही अभी तक बहस कर रहे हैं। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अर्जुन सिंह का सोनिया से ‘चुप्पी’ का डील कैसे फ्लॉप हुआ। हमें सिर्फ इस बात से मतलब होनी चाहिए की अगर अर्जुन सिंह या राजीव गांधी दोषी हैं तो फिर उनको सजा जरूर मिलनी चाहिए। हमें इस बात का जवाब चाहिए कि बीच के दौर में वीपी सिंह से लेकर वाजपेयी सरकार तक ने उस अमेरिकी हत्यारे को भारत न लाकर संविधान की किस धारा का उल्लंघन किया।

कुछ लोगों की राय में राजीव गांधी तो दिवंगत हो चुके हैं, उनको जांच के दायरे में कैसे लाया जा सकता है? इसका जवाब ये है कि अगर जांच के बाद राजीव गांधी दोषी पाये जाते हैं, उनको दिये गये तमाम राष्ट्रीय सम्मान छीन लिये जाएं, जिनमें भारत रत्न भी शामिल है, और दूसरे जिंदा लोगों के पेंशन और सम्मान छीने जा सकते हैं।

लेकिन मैं ये सवाल किससे कर रहा हूं? जब देश का पक्ष और विपक्ष ही इस नरमेघ में शामिल है तो फिर सवाल किससे और क्यों?

Saturday, February 13, 2010

शिवसेना की गुंडई के वक्त धमाके का मुफीद वक्त

यूं, धमाकों को अहम या कम अहम धमाका तो नहीं कहा जा सकता लेकिन शनिवार को पूना में जर्मन बेकरी के बाहर हुआ धमाका ऐसा धमाका है जिसके बड़े मायने हैं। पिछले नवंबर में असम में भी धमाके हुए थे और इसमें कोई शक नहीं कि वो भी आतंकवादियों की ही करतूत थी। इस लिहाज से पूना में हुआ धमाका गृहमंत्री चिदंबरम की रिपोर्ट कार्ड में लाल निशान के तौर पर तो नहीं देखा जा सकता, लेकिन इसके बड़े मतलब जरुर हैं।

गृहमंत्रालय ने ये कबूल किया है कि ये धमाका कोई एक्सीडेंट नहीं था, बल्कि ये आतंकवादियों का किया हुआ धमाका था। गणतंत्र दिवस के समय से ही इस तरह की खबरें फिजां में तैर रही थी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने खुद कबूला था कि वो मुंबई हमलों जैसी घटनाओं के दुबारा न होने देने की गारंटी नहीं ले सकते। उसी वक्त हमारे रक्षामंत्री ए के एंटनी ने भी कुछ इसी तरह की आशंका जताई थी। पाकिस्तान लगातार मुबंई हमलों के आरोपियों के बारे में टालमटोल की नीति बरकरार रखे हुए है। भारत ने पिछले दिनों उससे समग्र वार्ता की पहल फिर से शुरु करने की पेशकश की, जिसे पाकिस्तानी हुक्मरानों ने अपनी विजय के तौर पर पाक जनता के सामने परोसा। जब वार्ता की औपचारिकताएं तय की जा रही थी, ठीक उससे पहले ये धमाका हुआ है। ऐसे में ये धमाका जिस बात की ओर इशारा करता है वो ये कि वार्ता से ठीक पहले वार्ता को रोकने की कोशिश जरुर की गई है।

अहम बात ये भी है कि धमाकों का जगह और इसकी तिथि बड़े शातिराना ढंग से चुनी गई। जिस जर्मन बेकरी में धमाका हुआ और उसमें कई विदेशियों के मारे जाने की भी खबरें हैं। ये बेकरी ओशो आश्रम के नजदीक है जहां विदेशियों खासकर यूरोपियनों की खासी आदमरफ्त रहती है। ये धमाका इस ओर संकेत करता है कि इस धमाके के तार आतंकवाद के अंतराष्ट्रीय नेक्सस से जुड़े हो सकते हैं। ये धमाका उसी अंदाज में हुआ है जिस अंदाज में इन्डोनेशिया और मिश्र में हुए थे। अमेरिका के अफगानिस्तान और इराक में हमलों के बाद अंतराष्ट्रीय इस्लामिक आतंकवाद का निशाना अमेरिकी और यूरोपीयन देशों के नागरिक होते रहे हैं। ये बात ओसामा बिन लादेन के कई कथित टेपों से जाहिर होती रही है। ऐसे में एक ही साथ इस धमाके से कई निशाना साधने की कोशिश की गई है। इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर हिंदुस्तान दुर्भाग्य से अमेरिका-नीत पश्चिमी देशों की करतूतों का फल भी भुगतने पर मजबूर हो रहा है। असली चिंता यहां से शुरु होती है।

दूसरी अहम बात इस धमाकों के टाईमिंग को लेकर है। एक ऐसे वक्त में जब महाराष्ट्र समेत पूरा देश ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी को जबर्दस्ती झेलने और सहने के लिए मजबूर हो रहा है, बिलाशक ये वक्त धमाका करने वालों के लिए बड़ा ही मुफीद वक्त था। महाराष्ट्र की लगभग पूरी पुलिस शिवसैनिकों की गुंडागर्दी रोकने के लिए जब सिनेमाघरों के आसपास तैनात हो तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि आपने एनएसजी के कितने हब मुल्क में बना लिए। ये ऐसा मुफीद वक्त है जिसे शिवसेना जैसी पार्टियों के रहते हमारे मुल्क के दुश्मन बार-बार पाएंगे और धमाके करते रहेंगे।

बड़ा सवाल अब ये है कि इन धमाकों से भारत-पाक के बीच होनेवाली संभावित वार्ता पर क्या असर पड़ेगा। तकरीबन डेढ़ साल से दोनों मुल्कों के बीच जो बातचीत ठप्प पड़ी हुई है कहीं वो तो प्रभावित नहीं हो जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो वाकई ये आतंकवादियों के मनसूबों को पूरा करने जैसा होगा।

Monday, January 18, 2010

ज्योतिदा… ‘जीडीपी’ तुम्हे जरुर माफ नहीं करेगी...!

देश के बड़े नेताओं में से एक ज्योति बसु चले गए...लेकिन वे हमारी पीढ़ी के ऊपर भी एक अमिट छाप छोड़कर गए। हम इतिहास के उस काल में जी रहे हैं जब नेहरु काल के साक्षी रहे एक-एक नेता धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं और देश की हुकूमत अब उन लोगों के हाथ आ रही है जो या तो आजादी के बाद पैदा हुए या जिन्होने उस के बाद होश संभाला था। राजनीति की हमेशा से अपनी नैतिकता रही है और असंभव को संभव बनाने की कला के रुप में ये हर घड़ी..हर मिनट अपना रुप बदलती रही है। ऐसे में ज्योति बसु का जाना निश्चय ही एक बड़ा खालीपन छोड़ जाता है।
आमतौर पर हमारी पीढ़ी ज्योतिदा को एक सौम्य, सुसंस्कृत और मितभाषी नेता के रुप में जानती रही है जिन्होने अपने होने का कभी ज्यादा विज्ञापन नहीं किया। उन्होने अपने लंबे शासनकाल का कोई गुरुर नहीं पाला जबकि अक्सर उनकी पार्टी इस दंभ से पीड़ित दिखी। ज्योतिदा भारतीय इतिहास के संभवत: ऐसे पहले नेता हुए जिन्होने इमानदारी से भूमिसुधार लागू किया और ग्रामीण बंगाल में सशक्तिकरण की एक ज्योति पैदा की। आज बंगाल में सबसे कम भूमिविवाद के मामले हैं और शायद इस वजह से भी वो अपराध सूंचकांक में निचले पायदान पर है। लेकिन वे भी समझ चुके थे कि जिस बंगाल को ‘80 के दशक में उनकी सख्त जरुरत थी वो 21 वीं सदी के शुरुआत में दूसरी चुनौतियों से रुबरु हो चुका था। वाम राजनीति और ट्रेड यूनियनों के सख्त साये में बंगाल..औद्योगिकरण की दौर में पिछड़ता गया और ‘सिटी ऑफ ज्वाय’ कहा जाने वाला कलकत्ता ‘दोयम दर्जे’ का होता गया। राजीव गांधी ने एक दफा कलकत्ता को मुर्दों का शहर तक कह डाला था-जिस पर बंगाली भद्रमानुषों ने आपत्ति जताई थी। अवसरों की तलाश में छटपटाता बंगाल का मध्यवर्ग...दिल्ली-बंबई के युवाओं की तुलना में असहाय महसूस करने लगा और यहीं से बंगाल की वाम राजनीति चरमराने लगी। जिस वाम ने कभी गांवो और किसानों की सशक्तिकरण के लिए सब कुछ किया था उसी के नौजवान होते बच्चे अब वाम सरकार से उदारीकरण के दौर में अपना सही मुकाम मांग रहे थे।

लेकिन क्या ज्योति बसु को हम या हमारा इतिहास सिर्फ इसी आधार पर आंकेगा कि उनके दौर में बंगाल की जीडीपी क्या थी? या फिर उस दौर की समग्र कसौटियों पर उनकी गणना की जाएगी?

हमें याद है कि बिहार के सुदूरवर्ती गांव में जब हम होश संभाल रहे थे...उसी वक्त लोगों का नौकरी की खोज में कलकत्ता जाना कम होने लगा था। ये ‘80 के दशक की बात होगी। ‘श्रम’ ने अपना रास्ता दिल्ली, पंजाब और बंबई की ओर मोड़ लिया था। ये तय होता जा रहा था कि बंगाल के पास अब देने को पैसे नहीं है। लेकिन हमारी पूरी पीढ़ी बंगालियों की बौद्धिकता, उनकी संस्कृति और साहित्य से गजब प्रभावित थी। हम अखबार देखते तो बंगाली के रुप में ज्योतिदा ही नजर आते-वे हमारे जन्म से लेकर पूरी जवानी तक हमें बंगाल के रुप में दिखे। हम उनके व्यक्तित्व के आईने में रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर..शरत और बंकिम तक को देखते। ये यकीन ही नहीं होता कि इस सौम्य और धवल व्यक्तित्व के साये में उनकी पार्टी ‘गुंडई’ भी करती होगी।

लेकिन ये एक ज्वलंत प्रश्न है कि क्या बंगाल में सिर्फ मार्क्सबादियों की वजह से ही आर्थिक विकास रुक गया या इसके कुछ और भी कारण थे ? अगर ऐसा था तो फिर पूरा का पूरा उत्तरभारत क्यों विकास के पैरामीटर पर फिसड्डी नजर आता है।

दरअसल, भारत के मौजूदा ढ़ांचे में आर्थिक विकास कई कारकों का नतीजा है। राज्यों की हालत केंद्र के सामने वैसे भी नगरपालिका से ज्यादा नहीं-इसले अलावा देश के अलग-अलग इलाकों की भौगोलिक बनाबट इसमें बड़ा रोल अदा करती है। एक लंबे वक्त तक केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकारों के वक्त ज्योतिदा और उनकी पार्टी को ये मंजूर नहीं था कि विकास का वो ढ़ांचा स्वीकार किया जाए जो 11 फीसदी जीडीपी देती है। उन्होने साबुन और कॉस्मेटिक के क्षेत्र में निवेश को खारिज कर दिया लेकिन जब ‘सही निवेश’ की बारी आई तो हालात हाथ से निकल चुके थे। इतिहास कई बार बहुत देर से मौका देता है। बंगाल की बढ़ी हुई आबादी, ये विकल्प नहीं देती कि सिंगूर जैसी परियोजना लागू की जाए। ऐसे में ममता बनर्जी… ‘जनवाद’ और किसानों की स्वाभाविक नेता नजर आ रही है जो उस गठबंधन की सदस्य है जो वैश्विक पूंजीवाद का बेहतरीन दोस्त है।

हां, एक बात जो तय है कि ज्योतिदा...वामपंथ को पूरी तरीके से आधुनिक पपिप्रेक्ष्य में नहीं ढ़ाल पाए। वे ट्रेड यूनियनों को एक हद से ज्यादा लगाम नहीं लगा पाए और कलकत्ता की छवि बिगड़ृती चली गई। शायद इसकी एक वजह ये भी हो कि उनकी और उनके पार्टी की पूरी उर्जा गैरकांग्रेस और बाद में गैर-भाजपावाद के विकल्प को तलाशने में ही लगी रही....।

लेकिन ज्योतिदा ने जिस बंगाल को छोड़ा वो सबसे कम भेदभाव वाला राज्य था। वो समाजिक सौहाद्र और भाईचारे का अद्भुद प्रतीक बन गया। बंगाल की मौजूदा पीढ़ी अपने दिल्ली और बंगलोर के समकक्षों की तुलना में भले ही ज्योतिदा की नीतियों की आलोचना करे...लेकिन ये ज्योति बसु की नीतियों का ही नतीजा था कि उत्तरभारत में शायद पहली बार किसी राज्य में शताब्दियों से चले आ रहे समाजिक-आर्थिक भेदभाव का अंत हो सका। आज का बंगाल अगर एक साथ उड़ान भरने को व्याकुल दिख रहा है तो ये ज्योतिदा के ही नीतियों का परिणाम था-हां ज्योतिदा को जीडीपी का इतिहास जरुर माफ नहीं करेगा।

Wednesday, January 13, 2010

जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है...

प्रतिभा कटियार
अभी-अभी कैलेंडर बदला है. अभी-अभी हमने पिछले बरस के अचीवमेंट्स का बहीखाता बंद किया है. अभी तक हमारे चेहरों पर सक्सेस की मुस्कुराहटें कायम हैं. जश्न दर जश्न...टीआरपी दर टीआरपी...सर्कुलेशन दर सर्कुलेशन... बेहद झूठी, खोखली सफलताओं के शोर में हमारी रूहें तबाह हो चुकी हैं. खाल को खुरचो तो फिर खाल ही निकलती है...खून नहीं...दर्द नहीं...कहकहे...कयामत बरपाने वाली हंसी. तमिलनाडु वाली वो खबर जैसे जेहन में कैद है अब तक. वो सड़क पर पड़ा कराह रहा था...तड़प रहा था...खून ही खून...दर्द ही दर्द. चिल्लाता, कराहता वह सब इंस्पेक्टर हमारे कहकहों के शोर में दम तोड़ गया. सत्तानशीनों के काफिले गुजरते गये...लेकिन किसी के कानों में उसकी आवाज नहीं गयी. कोई नहीं रुका...कोई नहीं. मरना उसकी नियति थी. वो मर गया. हमारे पास चैनल बदलने के ऑप्शन थे. लाफ्टर शो थे, सीरियल, एमटीवी...रजाइयां नींदें...सवेरा और जिन्दगी...उसके पास नहीं था कुछ भी. उसके परिवार के पास भी कुछ नहीं था. सोचती हूं तो क्या वो इंस्पेक्टर ही मरा था सड़क पर जिंदगी मांगते हुए. वो जिंदगी जो उसकी थी. जिसे किसी की भी एक छोटी सी पहल से सहेजा जा सकता था. नहीं, वो इंस्पेक्टर नहीं मरा था, वो हमारी मौत थी. हमारी आत्माओं की मौत. ढूंढिये तो हमारे शरीरों में बहता हुआ खून सफेद हो चुका है. कहकहों के शोर में तकलीफें गुम हो चुकी हैं. हममें से कितने लोग हैं जो सिर्फ सांस भर नहीं ले रहे बल्कि जी रहे हैं. मंजूनाथ जी रहा था...चंद्रशेखर भी जीना चाहता था...और भी बहुत सारे नाम हैं. जो सचमुच जीना चाहते हैं लेकिन हम उन्हें जीने नहीं देते. वे दम तोड़ देते हैं इसी तरह सड़कों पर, गलियारों में, घरों में, कैम्पस में. ऐसे किसी भी व्यक्ति की मौत हर उस व्यक्ति की मौत भी होती है जो कहीं जिंदा है अब तक अपनी आत्मा के साथ. सवाल किससे करें. जवाब कौन देगा. हम आतंकवादियों से लडऩे की बात कर रहे हैं (सिर्फ बात). वो तो खुले दुश्मन हैं. उनके इरादे पता हैं हमें. तरीके भी. लेकिन क्या होगा उन दुश्मनों का जो हमारे ही भीतर छुपा बैठा है. जो हमारी आत्माओं में दीमक की तरह लग गया है. किस उल्लास में डूबे हैं हम. क्या सचमुच उल्लास का, सुख का कोई कारण है? जीडीपी ग्रोथ बढ़ रही है और हम अंदर ही अंदर खोखले हो रहे हैं. हमारे बच्चे खुदकुशी कर रहे हैं. हमारे रिश्ते हमसे मुंह चुरा रहे हैं. हमारे अपने हमारी ओर हसरत से देखते हुए दम तोड़ रहे हैं और हम खुश हैं. क्या हर पल अपनी आत्मा के मरने की आवाज सचमुच किसी को सुनाई नहीं देती. क्या यह एक बड़े जनआंदोलन का वक्त नहीं है. जिस समाज में निदोर्षों को किसी भी पल मौत का खौफ सता रहा हो, उस समाज में कहकहों के सहारे जीने की कोशिश को क्या कहा जाये. यह तो कुछ ऐसा ही है कि घर चाहे जैसा हो दरवाजे पर मखमल के पर्दे $जरूर लटकाना. हमारी लहूलुहान आत्माओं पर, किसी के दुख से विचलित होने की, आंखों की कोरें नम होने की इंसानी जरूरतों पर पर्दा डाल रहे हैं ये सक्सेस आंकड़े, ये ग्लैमर, ये शोर, कहकहे. गालिब याद आते हैं कि रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल...जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है...

Sunday, January 10, 2010

हम कहां जा रहे हैं....?

तमिलनाडु में हाल ही में एक सब-इस्पेंक्टर की मंत्रियों के सामने बेरहमी से हत्या और उसे बचाने में अधिकारियों के द्वारा दिखाई गई अनिच्छा ऐसी पहली घटना नहीं हैं जो हमारी बढ़ रही संवेदनहीनता की तरफ इशारा करती है। ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं जिसमें कहीं किसी मीडियाकर्मी ने किसी को महज इसलिए नहीं बचाया कि उसे बेहतरीन स्टोरी मिल रही थी। रोडरेज की घटनाएं हों या फिर नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की खबर-अब ये खबरें हमारी संवेदना को नहीं झकझोड़ती। ऐसा लगता है कि हम इन घटनाओं के प्रति इम्यून होते जा रहे हैं। 6 महीने की अवोध वालिका से लेकर 80 साल की बुजु्र्ग महिला तक सुरक्षित नहीं। ऐसे में सवाल ये है कि एक मुल्क के तौर पर हम विकास के जिस स्टेज से गुजर रहे हैं, क्या वाकई वो डेवलपमेंट कहे जाने लायक है?

दरअसल, हम ऐसे नकली विकास और जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों में उलझे हुए हैं कि हमें पता ही नहीं है कि देश की जनता किन हालातों में जी रही है। हम खुश है, हमारी सरकारें खुश हैं कि 10 फीसदी ग्रोथ हो रहा है लेकिन आए दिन बेगुनाह मारे जा रहे हैं-लेकिन उस सबसे से इस ग्रोथ पर थोड़े ही कोई असर होता है। सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ अंधे विकास से हमें कुछ मिलने वाला है? हमने मानवीय मूल्यों का विकास नहीं किया है। हमने पश्चिम के उस विकास मॉडेल को अपना लिया है जिसमें पैसा कमाना ही सबसे बड़ी काबिलियत है। हमने नैतिकता की छद्म परिभाषा गढ़ ली है जिसमें किसी लड़की अपनी मर्जी से शादी करना तो खाप पंचायतों के दायरे में आता है लेकिन किसी बेगुनाह इंस्पेक्टर का मारा जाना नहीं।

आप गौर कीजिए, उन मामलों पर जिनमें मानसिक दवाब के तहत बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं-इसलिए की उनके मां-बाप उन्हे आईआईटी में जाने का दवाब डाल रहे है। हमारे देश में इतनी कम सुविधाएं पैदा की गई है कि कुछ मलाईदार जगहों के लिए लोग आपस में मर रहे हैं या मार रहे हैं। ये केंद्रीकृत विकास हमें कहीं का नहीं छोड़ रही। हम ऐसे हिंदुस्तान में जी रहे हैं जहां छोटे शहर से आनेवालों से उनकी आईडेटिटी पूछी जा रही है और गांव वाले सिर्फ भेड़बकरियों की तरह हैं!

दूसरी बात, हमारे नैतिक मूल्यों से जुड़े हैं। हम लालची और व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं और इसे पेशेवराना अंदाज कहा जा रहा है। इसकी तारीफ की जा रही है-बच्चों को यहीं सिखाया जा रहा है।
तो फिर रास्ता क्या है? हमें सोचना होगा कि हम किधर जा रहे हैं। सरकार और वुद्धजीवियों का रोल यहां अहम हो जाता है।

Friday, January 1, 2010

क्यों न दर्ज हो तिवारी के खिलाफ मुकदमा?

किसी बड़े बुद्धिजीवी की उक्ति है- हम कई औरतों से इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि दुनिया में बुद्धिमान लोगों की भारी कमी है...और इश्वर ने हमें इस विशेष काम के लिए भेजा है कि बुद्धिमान लोगों की आपूर्ति बनी रहे। एन डी तिवारी को बुद्धिजीवी के खांचे में रखने से बहुतों को एतराज होगा लेकिन एन डी ने इस उम्र में युवाओं को जरुर चुनौती दे दी है वे उनकी उर्जा और प्रतिभा का मुकाबला करें। यूं हमारी जनता शासक वर्ग के ऐसे मामलों को 'देवलोक' का मामला मानती रही है और उनके किसी कृत्य के लिए किसी 'खाप' पंचायत का इंतजाम अभी तक नहीं किया गया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या एन डी तिवारी को महज उम्र और 'सार्वजनिक जीवन' में उनके 'योगदान'(!) की वजह से छोड़ देना चाहिए?

पक्ष-विपक्ष के नेताओं को मिलाकर तिवारी जैसे बिगड़ैल सांढ़ों का तंत्र इतना ताकतवर है कि वो किसी भी संपादक को वो चीज दे सकता है जो उसे अपने पूरे करियर में लालाओं ने नहीं दी होगी। इसलिेए उनसे किसी भी तरह की उम्मीदे पालना बेकार है। हां, गैरपरंपरागत मीडिया ने जरुर तिवारी के खिलाफ बोलना जारी रखा है। वो तो भला हो यू-ट्यूब का कि 'नारायण' के 'रासलीला' का आनंद जनता लाईव ले सकी।

लेकिन क्या तिवारी को महज राज्यपाल पद से हटा दिया जाना उनकी(या उसकी?) सजा है? तिवारी ने क्या गुनाह किया कि उसके पीछे लोग बल्लम-बर्छे लेकर पिल पड़े? दो वयस्क व्यक्तियों का आपसी सहमति से संबंध कैसे आपराधिक हो सकता है?

लेकिन तिवारी ने आपराधिक गलती की है--

1. राजभवन सेक्स कांड के बारे में कहा गया है कि तिवारी को ये महिलाएं इसलिए मुहैया कराई गई कि उन्होने खदानों के ठेके दिलवाने का भरोसा दिलाया था। अगर वाकई ऐसा था तो तिवारी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज होना चाहिए और इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
2. तिवारी जिस पद पर बैठे थे वहां वे प्रत्य़क्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कई लोगों को उपकृत या उपेक्षित कर सकते थे। ऐसे में अगर ये महिलाएं तिवारी के पास किसी दवाब बस भेजी गई या हमबिस्तर हुई तो तिवारी पर बलात्कार के एंगिल से जांच होनी चाहिए।
3. तिवारी ने ऐसा कर के राजभवन की गरिमा को ठेस पहुंचाया है जिसको बरकरार रखने की बात उन्होने अपने पद की शपथ लेते समय कही थी। ऐसा करके उन्होने संविधान का उल्लंघन किया है और इसके लिए सिर्फ उन्हे पद से हटाया जाना काफी नहीं। एक उच्च कार्यालय में बैठने लायक विश्वसनीयता की उन्होने हत्या की है।
4 इस एंगिल से भी जांच होनी चाहिए कि क्या एक साथ कई महिलाओं के साथ संबंध बनाना अप्राकृति यौनाचार की श्रेणी में आता है या नहीं? क्या भारतीय दंड विधान में ऐसा प्रावधान है जो इसे कानूनन सही मानता है?

तिवारी को जो सजा मिली है वो सिर्फ पॉपुलर सेंटीमेंट्स को तुष्ट करने के लिए मिली है न कि उनके वास्तविक अपराधों के लिए। यहां सवाल नैतिकता का बिल्कुल नहीं है-सवाल इसका है कि उन्होने संविधान का शपथ लेकर उसकी धज्जियां उड़ाई है और सत्ता के शीर्षस्थलों में से एक राजभवन में भ्रष्टाचार के साथ रंगरेलियां की है। एन डी तिवारी एक बड़े अपराधी हैं और उनके कारनामों की जांच होनी चाहिए और जबजक वे पाकसाफ नहीं करार कर दिए जाते उनसे तमाम सरकारी सुविधाएं और उनका पेंशन छीन लिया जाना चाहिए।

(ये लेख 'जनतंत्र' पर आ चुका है- http://janatantra.com/2010/01/01/sushant-jha-on-n-d-tiwari-sex-scandal/